Jayaprakash Narayan Birth Anniversary Special: हां जयप्रकाश नाम है समय की करवट का, अंगड़ाई, भूचाल, बवंडर के दावों से, भरी हुई तरुणाई का. जयप्रकाश वह नाम जिसे इतिहास समादार देता है, बढ़कर जिनके पदचिह्नों को उस पर अंकित कर लेता है.
भारत को सैकड़ों सालों तक गुलाम बनाकर रखने वाली ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ क्रांति के अनेकों बिगुल फूंके गए थे, लेकिन आजाद भारत में भी अगर सरकार को हिला देने वाले आंदोलनों की चर्चा की जाए तो वह लोकनायक जयप्रकाश नारायण की चर्चा के बगैर शुरू ही नहीं होगी. आजादी की लड़ाई में पंडित जवाहरलाल नेहरू के बेहद खास सहयोगी रहे जयप्रकाश नारायण नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी को अपनी मुंहबोली भतीजी मानते थे.
हालांकि जब उन्हें यह लग गया कि स्वाधीन भारत के जिस लक्ष्य के साथ आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी वह राह भटक रही है तो उन्होंने इंदिरा के खिलाफ भी बिगुल फूंक दिया. आजाद भारत में जन आंदोलन के लिए जयप्रकाश की क्या अहमियत थी वह राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की उपरोक्त पंक्तियों में बयान किया गया है.11 अक्टूबर 1902 को ब्रिटिश साम्राज्य के बलिया जिले में उनका जन्म हुआ था. फिलहाल यह क्षेत्र उत्तर प्रदेश का एक जिला है. आइए जयंती विशेष पर आज हम बात करते हैं महान स्वतंत्रता सेनानी जयप्रकाश नारायण के लोकनायक बनने की.
इंदिरा सरकार के खिलाफ की आंदोलन की शुरुआत
जेपी न होते तो शायद इंदिरा गांधी का वह रूप भी न दिखता और उन्हें रोकने वाला भी कोई नहीं था. इंदिरा के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में युवाओं ने गुजरात और फिर बिहार में आंदोलन किया. पहले बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफ्फूर से और बाद में सुप्रीम कोर्ट से चुनाव का मुकदमा हारने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से इस्तीफा मांगा गया, जिसकी वजह से टकराव इतना बढ़ गया था कि देश में आपातकाल के दौर को भी देखना पड़ गया था.
प्यारे वतन के लोकतंत्र को खोखला करते भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे प्रभावी आंदोलन की नींव, किसी और ने नहीं बल्कि जेपी ने ही रखी थी. आंदोलन को जेपी ने हिंसा से दूर ले जाकर अहिंसक बनाया और उसे महज सत्ता परिवर्तन की रणनीति के बजाय संपूर्ण क्रांति का अमली जामा पहनाया था. हालांकि 1975 में आपातकाल लगने के कारण वह आंदोलन लोकतंत्र वापसी का आंदोलन बनकर रह गया.
आजादी की दूसरी लड़ाई कहा जाता है जेपी आंदोलन
आपातकाल के बाद दोबारा चुनाव में इंदिरा की हार की वजह से जेपी के आंदोलन को आजादी के दूसरी लड़ाई कहा गया. उसी की वजह से मुख्यधारा की राजनीति से हाशिये पर जा चुके जेपी के नेतृत्व में समाजवादी, गांधीवादी, जनसंघी और कम्युनिस्टों समेत तमाम विपक्षी दलों को यह आत्मविश्वास आया कि वे भी केंद्र में सरकार बना सकते हैं. यह वर्ष 1973 से 76 का वह दौर था जब देश में कांग्रेस आसमान की तरह अजेय थी लेकिन जेपी आंदोलन ने इसे तार-तार कर दिया था.
दावा किया जाता है कि जेपी के इस आंदोलन के बाद जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का देशव्यापी आधार बना और उसी पर सवार होकर उन्होंने पहले 1996 में और बाद में 2014 में दिल्ली की बागडोर अपने हाथ में ली. जेपी आंदोलन से निकले लालू यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह (दिवंगत), शरद यादव, देव गौड़ा जैसे अनगिनत ऐसे नाम हैं जो देश की राजनीति में जेपी के दिखाए रास्ते पर चलकर बदलाव के सूत्रधार बने रहे. हालांकि आज जयप्रकाश की विरासत को संभालने के लिए साहसी, निश्छल और विचारशील राजनेताओं की कमी राष्ट्रीय स्तर पर समाजवादी विचारधारा को पनपने नहीं दे रही.
जयप्रकाश की विरासत को कौन संभाले?
जयप्रकाश नारायण की विरासत क्या है और भारतीय लोकतंत्र के निर्माण में उनका क्या योगदान है, यही वह विषय है जिसे आज के युवाओं को समझाने की जरूरत है. जयप्रकाश नारायण शुरुआत में गांधीवाद की राह पर ही चले थे. गांधी से विनोबा तक गांधीवादियों की जो यात्रा थी उसका असर जयप्रकाश भी था. 1954 से 1972 तक विनोबा भाव़ के साथ जेपी भी सर्वोदयी थे. हालांकि बाद में उन्होंने इसे समय की बर्बादी माना.
जयप्रकाश नारायण की विरासत प्रेरणादायक इसलिए है क्योंकि वह सत्ता से दूर सतत संघर्ष और मानवीय स्वाधीनता के समाजवादी मूल्यों पर आधारित नए समाज रचने की बात किया करते थे. वे दक्षिणपंथी और वामपंथी कटघरे से दूर अपनी राह खुद बनाने वाले लोकनायक हैं इसीलिए उनका मूल्यांकन व्यापक फलक पर होता रहा है. उन्हें यकीन था कि वे वामपंथियों और दक्षिणपंथियों का समवेत हृदय परिवर्तन करके उन्हें क्रांतिकारी बना सकते हैं.
जयप्रकाश भारतीय मानस में अपनी लोकप्रिय उपस्थिति दर्ज करा सके तो इसकी वजह यही है कि उन्होंने सारे संघर्ष किसी स्वार्थ के लिए नहीं परमार्थ के लिए किए. वे निश्छल थे और सामने वाले पर सहज विश्वास भी कर लेते थे.
73 साल में भारतीय लोकतंत्र की आत्मा को झकझोरा
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 1942 में चालीस साल की उम्र में गिरफ्तार हुए. फिर हजारीबाग जेल से दीवाली की रात 8 नवंबर, 1942 को भागकर उन्होंने अंग्रेज सरकार की नींद हराम कर दी. फिर आजादी के बाद 1974 में 73 साल की उम्र में जेल की यातना झेल कर अधिनायकवाद की ओर जा रहे भारतीय लोकतंत्र की आत्मा को जगा दिया था.
वे भारतीय लोकतंत्र की आत्मा की आवाज थे. इसीलिए 1974 में वे भारतीय लोकतंत्र के सन्नाटे में विरोध की बुलंद की आवाज के रूप में जिस तरह प्रकट हुए उसका वर्णन करते हुए धर्मवीर भारती प्रसिद्ध कविता ‘मुनादी’ में लिखते हैं-
खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का…
हर खासोआम को आगाह किया जाता है
खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अंदर से
कुंडी चढ़ाकर बंद कर लें
गिरा लें खिड़कियों के पर्दे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि एक बहत्तर साल का बूढ़ा आदमी
अपनी कांपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है.
जयप्रकाश कौन थे, इसका एक ओजपूर्ण परिचय रामधारी सिंह दिनकर की उन पंक्तियों से मिलता है जो उन्होंने 1946 में जयप्रकाश नारायण के जेल से रिहा होने के बाद लिखी थी. इसे पटना के गांधी मैदान में जेपी के स्वागत में उमड़ी लाखों लोगों के सामने पढ़ी थी.
कहते हैं उसको जयप्रकाश जो नहीं मरण से डरता है
ज्वाला को बुझते देख, कुंड में स्वयं कूद जो पड़ता है.
है जयप्रकाश वह जो न कभी सीमित रह सकता घेरे में
अपनी मशाल जो जला बांटता फिरता ज्योति अंधेरे में.
हां जयप्रकाश है नाम समय की करवट का, अंगड़ाई का
भूचाल, बवंडर, के दावों से, भरी हुई तरुणाई का
है जयप्रकाश वह नाम जिसे इतिहास समादार देता है
बढ़कर जिनके पदचिह्नों को उर पर अंकित कर लेता है.
अमेरिका में मजदूरी कर की पढ़ाई
जयप्रकाश नारायण ने उस दौर में भी शिक्षा की जरूरत को समझा था और भारत की सीमा पार कर अमेरिका में पढ़ने के लिए गए थे. हालांकि मजबूरी ने उनका पीछा वहां भी नहीं छोड़ा लेकिन अमेरिका में मजदूरी करके वहां के कई विश्वविद्यालयों में बी.ए. और उसके बाद समाजशास्त्र में एम.ए. करने के बाद वे पीएचडी की तैयारी में थे. तभी मां की बीमारी के कारण स्वदेश वापस लौटना पड़ा.
साथ नहीं रह सकीं पत्नी
पत्नी प्रभावती गांधी जी के साबरमती आश्रम में रहते हुए उनके प्रभावों में ब्रह्मचर्य का व्रत ले चुकी थीं. वे सामान्य दांपत्य जीवन जीने के जेपी के प्रस्तावों को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुईं और उसमें गांधी जी ने हस्तक्षेप करते हुए उन्हें दूसरा विवाह करने की सलाह दे डाली. जेपी ने गांधी के उस तर्क को ‘रूथलेस लाजिक’ कहा था.
जेपी अमेरिका से मार्क्सवादी बनकर लौटे थे. वे गांधी के अहिंसक सिद्धांत में पूरा यकीन नहीं करते थे. उन्होंने गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की साया स्वीकार तो की लेकिन भूमिगत आंदोलन में भी विश्वास करते रहे.
जेपी की प्रेरणा से कम्युनिस्ट बने नंबूदरीपाद
देश के प्रखर कम्युनिस्ट में से एक ईएमएस नंबूदरीपाद ने मार्क्सवाद के रास्ते पर चलने का फैसला किसी विदेशी मार्क्सवादी से नहीं, बल्कि जेपी से ली थी. यह चकित करने वाला है कि समाजवादी चरित्र के जेपी में किसी को दक्षिण पंथ की प्रेरणा मिली तो किसी को मार्क्सवाद की. जयप्रकाश नारायण ने ‘व्हाई सोशलिज्म' (समाजवाद क्यों) नाम से जो पुस्तक लिखी उसे पढ़कर ईएमएस नंबूदिरीपाद कम्युनिस्ट बने.
महात्मा गांधी ने जेपी को कहा समाजवादी
जेपी के समाजवाद के ज्ञान पर गांधीजी ने स्वयं लिखा है कि जयप्रकाश कोई साधारण कार्यकर्ता नहीं हैं. वे समाजवाद के आचार्य हैं और भारत में समाजवाद के बारे में उनसे ज्यादा कोई नहीं जानता. 8 अक्टूबर 1979 को पटना में उन्होंने आखिरी सांस ली थी. उसके बाद उनके आंदोलन का हिस्सा रहे नए युग के समाजवादियों ने अलग-अलग राह पकड़ी और अलग-अलग राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब रहे.