Captain Vikram Batra Story: कारगिल विजय दिवस (Kargil Vijay Diwas) जब-जब मनाया जाएगा, तब इसके लिए प्राणों की आहूति देने वाले वीर सपूतों को याद किया जाएगा. कारगिल की लड़ाई में पाकिस्तानी घुसपैठियों (Pakistani Ifiltrators) पर कहर बनकर टूटे भारतीय सेना (Indian Army) के शेरशाह (Shershah) शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा (Shaheed Captain Vikram Batra) भी वह वीर अमर सपूत हैं, जिनकी याद में इस दिन बर्बस ही आंखें नम हो जाती है सीना गर्व से चौड़ा.
भारतीय सेना और देशवासी हर साल 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस मनाते हैं. कारगिल युद्ध पड़ोसी पाकिस्तान से हुआ लेकिन इसने दुनिया को भारत के युद्ध कौशल और सामरिक शक्ति का अहसास कराया. हो भी क्यों न, जिस देश की लाल विक्रम बत्रा सरीखे हों तो दुनिया को चौकन्ना और दुश्मनों में खौफ रहना ही चाहिए.
हाल में सात जुलाई को विक्रम बत्रा की शहादत का दिन था. विक्रम बत्रा का जन्म 9 सितंबर 1974 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में हुआ था. 6 दिसंबर 1997 से उन्होंने सेना में अपना करियर शुरू किया था. उनकी तैनाती भारतीय सेना की 13वीं बटालियन जम्मू-कश्मीर राइफल्स में हुई थी. दो साल बाद ही 1999 में वह कारगिल युद्ध के हिस्सा बने. इससे पहले के सैन्य ऑपरेशनों के जरिये भी उन्होंने पाक सेना और आतंकवादियों में खौफ भर दिया था. इसलिए कारगिल युद्ध के दौरान उन्हें कोड नेम दिया गया शेरशाह. वह जब युद्ध में दुश्मन को नाकों चने चबवा रहे थे तब महज 24 साल के थे. उन्होंने एक बार घरवालों से कहा था कि "तिरंगा लहराकर आऊंगा या तिरंगे में लिपटकर आऊंगा,लेकिन आऊंगा जरूर".
जब शुरू हुआ ऑपरेशन
मई 1999 में जब कारगिल युद्ध शुरू हुआ तो बत्रा और उनके दल को 6 जून को जम्मू-कश्मीर के द्रास सेक्टर में भेजा गया. बत्रा की 13 जेएके राइफल्स बटालियन को दूसरी बटालियन राजपूताना राइफल्स के लिए रिजर्व रखा गया था. बत्रा और दल को जिम्मेदारी दी गई कि उन्हें तोलोलिंग पर्वत की चोटी पर फिर से कब्जा जमाना है, जिसे पाकिस्तानी घुसपैठियों ने कब्जा लिया था. इससे पहले कई बार चोटी पर कब्जा कायम करने की कोशिशें की गई थीं लेकिन कामयाबी नहीं मिली थी. 20 जून को बत्रा की टीम तोलोलिंग के उत्तर में लगभग 1600 मीटर उसी रिगलाइन में दूसरे बिंदु से चढ़ाई की, जिसे पीक 5140 के रूप में जाना जाता है. यह समुद्र तल से 5000 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर स्थित है. यहां पर बटालियन का दुश्मन से दो-दो हाथ हुआ और भारतीय सेना ने चोटी पर से कब्जा छुड़ा लिया. इस जीत पर बिक्रम बत्रा ने अपने वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को सूचित करते हुए कहा, ''ये दिल मांगे मोर.''
मातृभूमि और साथी को बचाते-बचाते ऐसे दे दी शहादत
अगला ऑपरेशन मस्कोह घाटी से दुश्मन को खदेड़ना था. इसे पीक 4875 भी कहा जाता है. यहां से दुश्मन द्रास से मतायन तक राष्ट्रीय राजमार्ग एक के बड़े हिस्से पर नजर बनाए रख सकता था. बत्रा के साथ दूसरे साथी लेफ्टिनेंट अनुज नायर और लेफ्टिनेंट नवीन थे. सात जुलाई को मशीन गन का इस्तेमाल करते हुए भीषण युद्ध हुआ. बत्रा और उनके साथी दुश्मन की गोलीबारी में बुरी तरह घायल हो गए लेकिन उन्होंने लड़ना जारी रखा. लेफ्टिनेंट नवीन को पैर में गोली लग तो बत्रा उन्हें बचाने के लिए भागे. बत्रा जब उन्हें बचाने की कोशिश कर रहे थे तभी दुश्मन ने उन पर गोली चला दी. उन्होंने गोली को चकमा दे दिया और बच गए लेकिन अगले ही पल वह रॉकेट वाले ग्रेनेड के छर्रो की जद में आ गए और भारत माता यह वीर सपूत देश की रक्षा करते-करते दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गया. शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा को मरणोपरांत सेना सबसे ऊंचे सम्मान परमवीर चक्र से नवाजा गया. बॉलीवुड ने 'शेरशाह' नाम से उनके जीवन पर एक शानदार फिल्म भी बनाई है.