कर्नाटक की बीजेपी सरकार ने राज्य में मुसलमानों को दिया जाने वाला 4 प्रतिशत आरक्षण खत्म कर दिया है. सरकार ने इस आरक्षण को खत्म करके दो प्रमुख समुदायों, वीरशैव-लिंगायत और वोक्कालिगा में बांट दिया है. इस फैसले के साथ ही बीजेपी सरकार ने मुसलमानों को 10 प्रतिशत आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) श्रेणी में ट्रांसफर करने का फैसला लिया है.
अब वोक्कालिगा समुदाय को मिलने वाला आरक्षण 4 प्रतिशत से बढ़ाकर 6 प्रतिशत कर दिया गया है. पंचमसालियों, वीरशैवों और दूसरे लिंगायत श्रेणियों के लिए कोटा 5 प्रतिशत से बढ़ाकर 7 प्रतिशत हो गया है. वहीं, मुस्लिम समुदाय को अब आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग ( EWS) कोटे के तहत आरक्षण मिलेगा. इस कैटेगरी में मुस्लिमों को ब्राह्मणों, वैश्यों, मुदालियर, जैन, और दूसरे समुदाय के साथ 10 प्रतिशत ईडब्लूएस कोटे के लिए लड़ना होगा.
चुनाव से एक महीने पहले हुए रिजर्वेशन कैटेगरी में बदलाव
इस फैसले के बाद कांग्रेस प्रवक्ता रमेश बाबू ने ये कहा कि पिछड़े राज्य में मुसलमानों के लिए कोटा या आरक्षण लगभग तीस सालों से अस्तित्व में है. एक तरह से राज्य में ये एक "स्थापित कानून बन चुका है. बगैर किसी वैज्ञानिक आधार और राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग रिपोर्ट के इसे अचानक बदला नहीं जा सकता है.
कर्नाटक की बीजेपी सरकार ने विधानसभा चुनाव से महीने भर पहले ये घोषणा की है. वहीं विपक्ष ने इस फैसले को सांप्रदायिक रूप से प्रेरित और चुनावी हथकंडा कहा है. विपक्ष ने ये कहा है कि यह कानून की कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा. लेकिन बासवराज बोम्मई का ये कहना है कि 'धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण का किसी भी राज्य में कोई प्रावधान नहीं है.
ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या वाकई कर्नाटक में धार्मिक अल्पसंख्यकों को आरक्षण न देने का चलन रहा है, आखिर पहले की कर्नाटक सरकार मुसलमानों को किस आधार पर आरक्षण देते आए हैं .
कर्नाटक में मुसलमानों के आरक्षण का इतिहास
कर्नाटक में मुस्लिमों को पहली बार आरक्षण 1994 में मिला था. उस दौरान पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने कर्नाटक में मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में रिजर्वेशन प्रस्ताव रखा था. देवगौड़ा की सरकार ने "2 बी" श्रेणी को पैमाना मानते हुए मुसलमानों को आरक्षण दिया था.
"2 बी" श्रेणी के जरिए मुसलमानों को आरक्षण दिया जाना एक ऐतिहासिक फैसला रहा है. जिसकी शुरुआत 1918 में मैसूर रियासत में हुई थी. कर्नाटक के राजा के समय ही मुसलमानों को आगे बढ़ाने के लिए उनको सामाजिक आधार पर आरक्षण जैसी व्यवस्था लागू करने की चर्चा शुरू हुई थी. जिस पर अंतिम मुहर 1994 में एचडी देवेगौड़ा की सरकार ने लगाई.
मुसलमानों को आरक्षण देने का यही नियम आज भी कर्नाटक में काम करता है . इस नियम में मुसलमानों को 'सामाजिक रूप से पिछड़ा माना जाता है.
यानी मुसलमानों को उनके धर्म के आधार पर पिछड़े वर्ग के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है. मुसलमानों को दिया जाने वाला आरक्षण उनके पिछड़ेपन को देखते हुए मिला है.
बेंगलुरु सेंट्रल के पूर्व कुलपति प्रोफेसर एस जपेत ने इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में कहा कि कर्नाटक सरकार का ये फैसला बहुत अवैज्ञानिक और बिना किसी आधार के लिया गया है. यह फैसला वैचारिक रूप से प्रेरित मालूम पड़ता है.
आजादी से पहले से ही कर्नाटक के मुस्लिम समाज की बेहतरी और उनके विकास के लिए पिछड़े वर्ग के रूप में बांटा गया था. खासतौर से कर्नाटक में इसके लिए कई राज्य आयोगों का गठन भी किया गया था.
1918 में मिलर पैनल और 1990 के दशक में बनी ओ चिन्नाप्पा रेड्डी आयोग ऐसे ही राज्य आयोग हैं. इन दोनों आयोगों ने मुस्लिमों के सामाजिक रूप से पिछड़े होने और उन्हें समाज में दूसरे समुदायों के बराबर का रुतबा दिलाने के लिए इन्हें 2 बी श्रेणी में रखा.
मैसूर रियासत के समय में आरक्षण को लेकर क्या थी मुसलमानों की स्थिति
बता दें कि कर्नाटक अल्पसंख्यकों के विकास के लिए नीति बनाने वाला पहला राज्य था. इसकी शुरुआत मैसूर रियासत के समय हुई थी. उस दौरान गैर-ब्राह्मण या ब्राह्मण विरोधी आंदोलन हुए थे जिसका मकसद ओबीसी समुदाय को ऊपर उठाना था.
कृष्णराज वाडियार चतुर्थ मैसूर के तत्कालीन महाराजा थे. उन्हीं की अगुआई में 1918 में मिलर समिति का गठन किया गया था. इस समिति ने ओबीसी के लिए आरक्षण, छात्रवृत्ति और आयु में छूट की सिफारिश की थी. लोक सेवा नियुक्तियों में पिछड़े वर्गों के लिए कुछ छूट दी गई थी. इस समिति ने मुसलमानों को पिछड़ा वर्ग का दर्जा दिया था.
मुस्लिम समुदाय की 10 से ज्यादा जातियों को दिया गया था पिछड़े वर्ग का दर्जा
आजादी के बाद, 1961 में, आर नागन गौड़ा समिति का गठन किया गया. इस समिति को मैसूर पिछड़ा वर्ग आयोग के नाम से भी जाना जाता है. मैसूर पिछड़ा वर्ग आयोग समिति ने "मुसलमानों को पिछड़े वर्गों में रखे जाने की मांग की थी. इस समिति ने एक लिस्ट बनाई और 10 से ज्यादा जातियों को सबसे पिछड़े वर्ग के रूप में पहचाना. ये सभी जातियां मुस्लिम समुदाय की ही थी.
लेकिन इस समिति की रिपोर्ट को लागू नहीं किया जा सका. वजह एक सरकारी आदेश के कसौटी पर इस समिति का खरा न उतरना था. उस दौरान ऊंची जातियों ने भी इस समिति का विरोध किया था.
मुसलमानों और ईसाई समुदाय को जाति के आधार पर आरक्षण देना गलत?
साल 1975 में पिछड़ा वर्ग के नेता और तत्कालीन मुख्यमंत्री देवराज उर्स ने कर्नाटक का पहला पिछड़ा वर्ग आयोग या एलजी हवानूर आयोग बनाया. एलजी हवानूर आयोग ने जाति के आधार पर हिंदुओं को आरक्षण देना सही ठहराया, वहीं मुसलामानों और ईसाई समुदाय के लोगों को जाति के आधार पर आरक्षण न देने की बात कही गई थी.
कमिशन का ये कहना था कि नौकरियों में मुसलमानों की नुमाइंदगी काफी कम है. इसलिए मुस्लिम समुदाय को धर्म के आधार पर आरक्षण दिया जाए न कि पिछड़ी जातियों को पैमाना मान कर. हालांकि 1977 में देवराज उर्स ने अन्य पिछड़े वर्गों के तहत मुसलमानों को आरक्षण दिया. नतीजतन कर्नाटक के लिंगायत समूह ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया.
1983 में रामकृष्ण हेगड़े सरकार ने कर्नाटक में दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया . इसे टी वेंकटस्वामी आयोग के नाम से जाना जाता है. 1986 में सरकार की तरफ से एक रिपोर्ट पेश की गई , जिसमें किसी भी जाति या समुदाय के पिछड़ेपन के लिए आर्थिक मानदंडों पर जोर दिया गया था. इस आयोग ने मुसलमानों का आरक्षण बरकरार रखने की बात कही .
इस आयोग ने कर्नाटक की प्रमुख जातियां वोक्कालिगा और लिंगायतों समूह को आरक्षण से बाहर रखने की बात कही. नतिजन इस आयोग का विरोध होना शुरू हो गया .
कर्नाटक की कांग्रेस सरकार का मुसलमानों के आरक्षण को लेकर क्या रुख रहा है
तीसरा कर्नाटक पिछड़ा वर्ग आयोग या ओ चिनप्पा रेड्डी पैनल का गठन 1988 में किया गया था. इस आयोग ने 1990 में अपनी रिपोर्ट दी थी. उसी दौरान तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने क्रीमी लेयर को हटाने की सिफारिश की थी. कांग्रेस सरकार मुसलमानों को पिछड़ा वर्ग कोटा देने पर जोर दिया था.
1994 में कांग्रेस सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में मुस्लिमों के आरक्षण के लिए एक नई श्रेणी "2" बनाई गई . इस नई श्रेणी को चिनप्पा रेड्डी पैनल की रिपोर्ट के आधार पर तैयार किया गया था. 1994 में देवगोड़ा सरकार बनी और आरक्षण की इस श्रेणी को कायम किया. देवगोड़ा सरकार ने श्रेणी "2" को आधार मान के मुस्लिमों के आरक्षण की शुरुआत की.
ध्यान देने वाली बात यह है कि कर्नाटक सरकार की तरफ से गठित सभी समितियों और आयोगों में अल्पसंख्यकों को पिछड़े समुदायों के रूप में वर्गीकृत करने पर जोर दिया जाता रहा है.
जनता दल (सेक्युलर) के संस्थापक देवगौड़ा के मुताबिक, मुसलमानों को मिलने वाला आरक्षण राज्य की पुलिस की तरफ से पेश किए गए एक आंकड़े पर दिया गया. इस रिपोर्ट की मानें तो राज्य में 0.1 प्रतिशत से भी कम पुलिस कांस्टेबल मुस्लिम थे. तब देवगौड़ा ने ये कहा था कि मुसलमान हमारे देश के नागरिक नहीं है , जो उन्हें नौकरियों में दर्जा नहीं दिया जा रहा है.
बासवराज बोम्मई सरकार के हालिया लिए फैसले से देवगौड़ा के बेटे और जेडीएस के शीर्ष नेता एचडी कुमारस्वामी ने नाराजगी का इजहार किया है. एचडी कुमारस्वामी ने ये कहा कि केंद्र की बीजेपी सरकार हर मुद्दे पर राजनीति करने पर आमादा है. उन्होंने कैबिनेट की बैठक के दौरान आरक्षण के नाम पर खतरनाक खेल खेला है.
एचडी कुमारस्वामी ने कहा कि जो असंभव है उसे करने की कोशिश की जा रही है. तीन साल राज्य की सत्ता संभालने के बाद अब बीजेपी सरकार चुनाव जीतने का हथकंडा अपना रही है.
कर्नाटक में कितनी है मुस्लिम आबादी
कर्नाटक में मुस्लिम समुदाय की आबादी 12 प्रतिशत है. बोम्मई का ये दावा है कि मुस्लिम जातियों के सबसे पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण
बरकरार रखा जाएगा.
ओल्ड मैसूर या साउथ कर्नाटक में वोक्कालिगा समुदाय का वर्चस्व है. इनकी पूरे राज्य में आबादी में 15 प्रतिशत है. ये आबादी मांड्या, हासन, मैसूर, तुमकुर, कोलार और चिक्काबल्लापुर जिलों में ज्यादा है. मांड्या में 50 प्रतिशत ज्यादा वोक्कालिगा हैं.
बोम्मई का कहना है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों (मुसलमानों ) के लिए भी आर्थिक स्थितियां तय हैं. जब मुसलमान उस कैटेगरी में जाएंगे तो उनके पास भी आर्थिक मानदंड होंगे. अब मुसलमानों को ईडब्ल्यूएस श्रेणी में सिर्फ 4 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा.
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने राज्य में रिजर्वेशन प्रतिशत 50 तय किया था, लेकिन नए नियमों के मुताबिक राज्य में आरक्षण की सीमा 56 प्रतिशत हो गई है. कर्नाटक सरकार ने अनुसूचित जाति के लिए रिजर्वेशन 15 प्रतिशत बढ़ाकर 17 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्वेशन बढ़ाकर 3 प्रतिशत से 7 प्रतिशत कर दिया है.