Karnataka Election Congress: अभी फिलहाल देश में छत्तीसगढ़ के अलावा कर्नाटक ही वो राज्य है जिसमें कांग्रेस मजबूत स्थिति में दिख रही है. इसके बावजूद कांग्रेस के लिए कर्नाटक में सत्ता तक पहुंचने की राह इतनी आसान नहीं है.


कर्नाटक विधानसभा का कार्यकाल 24 मई 2023 को खत्म हो रहा है. ऐसे में अप्रैल-मई में  कर्नाटक विधानसभा चुनाव (Karnataka Legislative Assembly election) हो सकता है. इस साल जिन 9 राज्यों में चुनाव होना तय है, उनमें मध्य प्रदेश के बाद कर्नाटक में सबसे ज्यादा सीटें हैं. यहां कुल 224 विधानसभा सीटें हैं. इस लिहाज से भी कांग्रेस के लिए कर्नाटक में सत्ता हासिल करना बेहद महत्वपूर्ण है. 


तीन राज्यों में खुद के बलबूते कांग्रेस की सरकार


फिलहाल कांग्रेस अपने बलबूते सिर्फ तीन राज्यों हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार चला रही है. हिमाचल में अभी -अभी सत्ता मिली है, तो छत्तीसगढ़ और राजस्थान में इस साल नवंबर-दिसंबर के बीच चुनाव होने की संभावना है. 2024 के आम चुनाव से पहले कांग्रेस  के सामने  देश के अलग-अलग राज्यों में अपनी खोई सियासी जमीन पाने की बड़ी चुनौती है. इस चुनौती से निपटने के नजरिए से कर्नाटक की सत्ता पर काबिज होना कांग्रेस के लिए फायदेमंद और बूस्टर साबित हो सकता है. इससे देशभर में कांग्रेस के सुस्त पड़े कार्यकर्ताओं के बीच सकारात्मक संदेश भी जाएगा. 


बीजेपी और जेडीएस से मिलेगी कड़ी टक्कर


कर्नाटक में सत्ता हासिल करना कांग्रेस के लिए इतना आसान नहीं है. कांग्रेस को बीजेपी और जेडीएस की चुनौती से पार पाना होगा. फिलहाल कर्नाटक के सियासी समीकरण में बहुत कुछ ऐसा है जो  कांग्रेस के पक्ष में है और बहुत कुछ ऐसा भी है जो उसके लिए नुकसानदायक साबित हो सकते हैं. सबसे पहले फायदेमंद पहलू पर गौर करते हैं.


एंटी इनकंबेंसी का मिल सकता है फायदा


कर्नाटक में 26 जुलाई 2019 से बीजेपी सत्ता में है.  ऐसे में बीजेपी के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी इस बार के चुनाव में एक बड़ा मुद्दा रहेगा. कांग्रेस को इसका फायदा मिल सकता है.  मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई (Basavaraj Bommai) सरकार के ऊपर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों को भी कांग्रेस इस बार भुना सकती है. हाल के कुछ महीनों में सरकारी परियोजनाओं से जुड़े कुछ ठेकेदारों ने आत्महत्या की है. पिछले साल अप्रैल में बोम्मई सरकार में मंत्री रहे के. एस. ईश्वरप्पा (KS Eshwarappa) को ऐसे ही खुदकुशी की एक घटना के बाद मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था.  ठेकेदारों ने मंत्रियों पर रिश्वत मांगने का आरोप भी लगाया है.  कांग्रेस लगातार बोम्मई सरकार के खिलाफ  'पे सीएम' अभियान चलाकर भ्रष्टाचार का मामला उठाते रही है.  कांग्रेस बोम्मई सरकार पर  सरकारी कामों में  चालीस फीसदी कमीशन लेने का आरोप लगाती रही है. हालांकि मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई इन आरोपों का खंडन करते रहे हैं और इन्हें राजनीति से प्रेरित बताते आए हैं.  इस बार कांग्रेस प्रचार अभियान में भ्रष्टाचार के मुद्दे को जोर-शोर से उठाने की तैयारी में है. 


लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय बीजेपी से हैं नाराज


कर्नाटक के दो प्रभावशाली समुदाय लिंगायत और वोक्कालिगा इस वक्त आरक्षण बढ़ाने की मांग को लेकर बीजेपी से नाराज हैं. चुनाव से पहले अगर आरक्षण के चक्रव्यूह को बीजेपी नहीं भेद पाई, तो ये पहलू कांग्रेस के पक्ष में जा सकता है. 18 फीसदी वाले लिंगायत समुदाय को बीजेपी का परंपरागत वोट बैंक माना जाता है. वहीं वोक्कालिगा समुदाय में जेडीएस की पकड़ अच्छी है. वोक्कालिगा समुदाय के लोग कर्नाटक की आबादी में 16 फीसदी हैं. फिलहाल ये दोनों ही समुदाय बीजेपी से नाराज है. लिंगायत-वोक्कालिगा के आरक्षण बढ़ाने की मांग को पूरा करने का वादा करके कांग्रेस बीजेपी पर बढ़त बना सकती है. ऐसा कहा जा रहा है कि जुलाई 2021 में बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाने से भी लिंगायत समुदाय बीजेपी से खफा है. कर्नाटक की राजनीति में इन दोनों समुदाय के वोट से ही सत्ता किसके पास जाएगी, ये तय होते रहा है. ऐसे में कांग्रेस इन दोनों समुदायों के वोटबैंक में सेंधमारी कर कर्नाटक की सत्ता तक पहुंच सकती है. 


'भारत जोड़ो यात्रा' से मिल सकता है फायदा


राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा (BHARAT JODO YATRA) को कर्नाटक में अच्छा रिस्पांस मिला था.  कांग्रेस का कहना है कि इस यात्रा का असर विधानसभा चुनाव में  दिखेगा और पार्टी को लाभ मिलेगा. सूबे में कांग्रेस के कार्यकर्ता इस यात्रा के बाद से बेहद उत्साहित हैं. ये यात्रा कर्नाटक में 20 दिन रही.  यात्रा  सात जिलों चामराजनगर, मैसुरु, मांड्या, तुमकुर, चित्रदुर्ग, बेल्लारी और रायचूर से होकर गुजरी.  यात्रा के रूट और सियासी समीकरण से भी समझा जा सकता है कि कांग्रेस ने सोच-समझकर ऐसा रूट रखा था. उसका फोकस उन जिलों पर था जिसमें जेडीएस और बीजेपी ज्यादा मजबूत हैं. इनमें दक्षिण कर्नाटक के जिलों पर ख़ास जोर रहा, जहां वोक्कालिगा समुदाय का वर्चस्व है. ये समुदाय जेडीएस का वोट बैंक माना जाता है.  पुराने मैसूर इलाके में पारंपरिक तौर से कांग्रेस और जेडीएस के बीच लड़ाई रही है. भारत जोड़ो यात्रा से इन इलाकों में कांग्रेस को अपना जनाधार बढ़ाने की आस है. हालांकि बीजेपी का कहना है कि इस यात्रा से कांग्रेस को कोई लाभ नहीं मिलने वाला है. 


'हाथ से हाथ जोड़ो ' अभियान से उम्मीद


कांग्रेस 26 जनवरी से देशभर में 'हाथ से हाथ जोड़ो' अभियान शुरू कर रही है. इसके तहत कांग्रेस ब्लॉक, पंचायत और बूथ के स्तर पर लोगों से सीधे संपर्क साधेगी. दो महीने तक चलने वाले इस अभियान में राहुल गांधी की चिट्ठी भी लोगों को सौंपी जाएगी, जिसमें 'भारत जोड़ो यात्रा' का संदेश होगा.  उसके साथ ही कांग्रेस लोगों के बीच  नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ आरोप पत्र  का पुलिंदा भी बांटेगी.  इस अभियान के तहत कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाद्रा (Priyanka Gandhi Vadra) के कर्नाटक जाने की भी संभावना है.  कांग्रेस को उम्मीद है कि इस अभियान से कर्नाटक के चुनाव में उसके पक्ष में माहौल और बेहतर होगा.  


खरगे के कांग्रेस अध्यक्ष बनने का मिलेगा फायदा


अक्टूबर 2022 में मल्लिकार्जुन खरगे कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनें. कर्नाटक मल्लिकार्जुन खरगे का गृहराज्य है और वे राष्ट्रीय स्तर पर कर्नाटक के दिग्गज नेता माने जाते हैं.  एक और पहलू है जिसका कांग्रेस को फायदा मिल सकता है. मल्लिकार्जुन खरगे दलित समुदाय से आते हैं. कर्नाटक में सबसे बड़ी आबादी दलित मतदाताओं की है. कर्नाटक में अनुसूचित जाति (SC) की आबादी 23% है. यहां विधानसभा की 35 सीटें एससी के लिए आरक्षित हैं. पिछली बार यानी 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी बनाने में दलितों का बड़ा योगदान रहा था. बीजेपी को इस समुदाय का 40 फीसदी वोट मिला था. जबकि 2013 में कांग्रेस को 65 फीसदी दलित वोट मिले थे. पिछले कुछ सालों से सूबे में एससी समुदाय के बीच कांग्रेस का जनाधार सिकुड़ते जा रहा था. मल्लिकार्जुन खरगे के पार्टी अध्यक्ष बनने से कर्नाटक का दलित वोट बैंक फिर से कांग्रेस की ओर लामबंद हो सकता है. 


विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का जनाधार बरकरार


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के केंद्रीय राजनीति में आने के बाद कर्नाटक में कांग्रेस का वोटबैंक लोकसभा चुनाव में लगातार घटा है.  इसके बावजूद विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के वोटबैंक में कमी नहीं आई है.  2008 से अब तक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का वोट शेयर बढ़ा है. कांग्रेस को 2004 में 35.27% और 2008 में  33.86% वोट मिले थे. 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 36.6% वोट मिले थे, जो 2018 के चुनाव में बढ़कर 38.14% हो गया. पिछली बार 2018 में हुए चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज्यादा वोट मिले थे. हालांकि उसके बावजूद बीजेपी कांग्रेस से ज्यादा सीट जीतने में कामयाब रही थी. 


विधानसभा में मोदी फैक्टर ज्यादा कारगर नहीं 


बीजेपी को 2014 के आम चुनाव में कर्नाटक की 28 में से 17 लोकसभा सीटों (43 % वोट) पर जीत मिली थी. वहीं कांग्रेस को 9 सीटें (40.8% वोट) मिली थी. 2019 के आम चुनाव में बीजेपी 51.38 फीसदी वोटशेयर के साथ 28 में से 25 लोकसभा सीटें जीतने में सफल रही थी.  वहीं कांग्रेस सिर्फ एक सीट (31.88% वोट) ही जीत पाई थी.  इससे जाहिर है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट कम होते गया है, लेकिन विधानसभा में ऐसा नहीं हुआ है. 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी से ज्यादा वोटशेयर कांग्रेस के खाते में गया था. इन आकड़ों से साफ है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में लोकसभा की तरह नरेंद्र मोदी का करिश्मा काम नहीं करता है. कर्नाटक के लोगों का दोनों चुनाव में वोटिंग पैटर्न अलग-अलग है. कांग्रेस के लिए ये बहुत बड़ी राहत की बात है क्योंकि ज्यादातर राज्यों में बीजेपी पीएम मोदी के चेहरे पर ही चुनाव जीतते आ रही है. 


कई समस्याओं से निपटने की चुनौती


ऊपर जिन पहलू का जिक्र किया गया है, वे सारे ऐसे हैं, जिनसे कांग्रेस को फायदा पहुंचने की उम्मीद है.  कर्नाटक की सत्ता की राह में कांग्रेस के सामने कई कांटे भी हैं. इनसे कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. अंदरुनी कलह इसमें सबसे बड़ी चुनौती है. 


सिद्धारमैया-डीके शिवकुमार के बीच वर्चस्व की लड़ाई 


पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया (Siddaramaiah) और  पार्टी प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार (D.K. Shivakumar) कर्नाटक में कांग्रेस के दो सबसे बड़े चेहरे हैं.  पिछले दो विधानसभा चुनावों में इन दोनों की मेहनत की वजह से ही कांग्रेस का जनाधार बरकरार रहा है.  हालांकि चुनाव जीतने की संभावना के बीच एक बड़ा सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच वर्चस्व की लड़ाई  से कांग्रेस के लिए कर्नाटक में सत्ता हासिल करने का सपना अधूरा रह जाएगा. दोनों नेताओं के बीच खींचतान की खबरें अक्सर सामने आते रहती हैं. अपने-अपने तरीके से दोनों ही कर्नाटक में चुनाव जीतने की हालत में मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी जताते रहते हैं. खुद तो खुलकर नहीं बोलते, लेकिन इनके समर्थकों की ओर से बयानबाजी होते रहती है.


सीएम पद पर दावेदारी को लेकर खींचतान


सिद्धारमैया कुरुबा (Kuruba) समुदाय से आते हैं. कर्नाटक की आबादी में इनकी संख्या 9 फीसदी से ज्यादा है. वहीं डीके शिवकुनार वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं. डीके शिवकुमार के समर्थकों का कहना है कि सिद्धारमैया 2013 से 2018 के बीच मुख्यमंत्री रह चुके हैं और उनकी उम्र भी अब 75 साल से ज्यादा हो गई है. इस नजरिए से वोक्कालिगा समुदाय से सीएम बनना चाहिए और इसके लिए डीके शिवकुमार को ही मौका मिलना चाहिए. वहीं सिद्धारमैया के समर्थकों का कहना है कि वे कांग्रेस के दिग्गज नेता हैं और इस बार का चुनाव उनके लिए आखिरी होगा. सिद्धारमैया की पकड़ कुरुबा के साथ ही राज्य के पिछड़े वर्ग, दलित और मुस्लिम मतदाताओं पर ज्यादा है. वहीं डीके शिवकुमार संसाधनों को जुटाने में माहिर हैं. 


खेमेबाजी से उम्मीदवारों का चयन हुआ कठिन


कर्नाटक में खेमेबाजी की वजह से कांग्रेस के लिए उम्मीदवारों के चयन का काम भी कठिन हो गया है. सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच अपने-अपने समर्थक नेताओं को टिकट देने के लिए लॉबिंग जारी है. सिद्धारमैया ने कहा है कि इस महीने ही कांग्रेस उम्मीदवारों की पहली सूची जारी कर सकती है. पार्टी को टिकट के लिए 1350 आवेदन मिले हैं.  कर्नाटक में उम्मीदवारों के चयन में इन दोनों की गुटबाजी का असर पड़ेगा. सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच तनातनी ऐसा पक्ष है, जिससे निपटना कांग्रेस हाईकमान के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. ये कांग्रेस के लिए ऐसा जख्म है, जिसका चुनाव से पहले सही उपचार नहीं किया गया, तो नतीजों के बाद ये पार्टी के लिए नासूर साबित हो सकती है. सिद्धारमैया और डीके शिव कुमार के बीच पिछले कुछ साल से जारी रार का बीजेपी को फायदा मिल सकता है.


मुस्लिम वोटबैंक में सेंध का खतरा


इस बार कांग्रेस को मुस्लिम वोटबैंक में सेंध लगने के खतरे से भी जूझना पड़ेगा. कर्नाटक की आबादी में 12 फीसदी  मुस्लिम हैं. करीब 60 सीटों पर इनकी मौजूदगी नतीजों के लिहाज से बेहद अहम हैं. तटीय और उत्तर कर्नाटक में मुस्लिम बहुल 23 सीट है. कांग्रेस इन इलाकों में ज्यादा मजबूत है. इस बार असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi)की पार्टी AIMIM भी कर्नाटक के सियासी जंग में उतरने का एलान कर चुकी है. ओवैसी उत्तरी कर्नाटक के मुस्लिम बहुल सीटों पर ही करीब 15 उम्मीदवार उतार सकते हैं. अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस के परंपरागत वोटबैंक में सेंध लगने का खतरा है. 


क्या आदिवासी कांग्रेस पर जताएंगे भरोसा ?


कर्नाटक में अनुसूचित जनजाति (ST) की आबादी  करीब 7% है. उनके लिए 15 सीटें आरक्षित हैं. ये मुख्य तौर से मध्य और उत्तरी कर्नाटक में  केंद्रित हैं.  पिछली बार बीजेपी को इनका साथ मिला था. इस समुदाय के 44 फीसदी वोट के साथ बीजेपी ने 7 सीटों पर जीत हासिल की थी.  इस समुदाय में कांग्रेस की भी अच्छी पकड़ है. अगर कांग्रेस कर्नाटक में वापसी की उम्मीद लगाए बैठे है, तो उसे आदिवासियों का भरोसा फिर से जीतना होगा. 


2018 में कांग्रेस को 42 सीटों का नुकसान


पिछली बार के चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज्यादा वोट मिले थे. इस बावजूद बीजेपी को उससे ज्यादा सीटें आई थी. कांग्रेस सबसे ज्यादा वोट लाकर भी 80 सीट ही जीत सकी थी. बीजेपी  कम वोट के बावजूद 104 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. जेडीएस को 37 सीटों पर जीत मिली थी. कांग्रेस को 2018 के चुनाव में 2013 के मुकाबले  42 सीटों का नुकसान हुआ था. 2018 में बहुमत के अभाव में 6 दिनों में ही मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा था. इसके बाद जेडीएस और कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनाई. हालांकि जेडीएस-कांग्रेस की सरकार सिर्फ 14 महीने ही टिक पाई थी.


2013 में कांग्रेस का शानदार प्रदर्शन


कर्नाटक में 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 122 सीटों पर जीत दर्ज की. बीजेपी और जेडीएस 40-40 सीटों पर ही जीत पाई.  स्पष्ट बहुमत के साथ कांग्रेस नेता सिद्धारमैया ने कर्नाटक में सरकार बनाई.  2013 में कांग्रेस की जीत की एक बड़ी वजह ये भी थी कि बीजेपी वो चुनाव बीएस येदियुरप्पा के बिना लड़ी थी. येदियुरप्पा ने नवंबर 2012 में बीजेपी छोड़ दी थी और खुद की पार्टी कर्नाटक जनता पक्ष बना लिया था. इसका खामियाजा बीजेपी को 2013 के चुनाव में भुगतना पड़ा और कांग्रेस बड़ी जीत हासिल करने में कामयाब हुई.   


2004 में सूबे में पहली बार गठबंधन सरकार


2008 में  कांग्रेस को 80 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं 2004 में कांग्रेस के खाते में 65 सीटें गई थी. बीजेपी के बड़ी पार्टी बनने के बावजूद उस वक्त कांग्रेस नेता धरम सिंह ने जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बना ली. बीजेपी को 79 और जेडीएस को 58 सीटें मिली थी. 2004 में ही कर्नाटक में पहली बार गठबंधन सरकार बनी थी. 1999 में कांग्रेस को 132 सीटों पर जीत मिली थी और कांग्रेस नेता एसएम कृष्णा उस वक्त मुख्यमंत्री बनें थे.


'अबकी बार, कांग्रेस 150 पार'  का नारा


कर्नाटक में इस बार बीजेपी, कांग्रेस और जेडीएस के बीच त्रिकोणीय मुकाबला है.  'अबकी बार, कांग्रेस 150 पार' इस नारे के जरिए कांग्रेस कर्नाटक की सत्ता हासिल करने की दिशा में जी-जान से जुटी है. उसे पता है बीजेपी में भी पूर्व सीएम येदियुरप्पा और वर्तमान सीएम बसवराज बोम्मई के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है. कांग्रेस, बीजेपी के इस अंदरुनी कलह को भुनाने की कोशिश कर सकती है. जेडीएस की कर्नाटक के दक्षिण हिस्सों खासकर पुराने मैसूर क्षेत्रों में ही पकड़ ज्यादा मजबूत है. जेडीएस मध्य और उत्तरी कर्नाटक में हाथ-पैर फैलाने की कोशिश में है. कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी के साथ जाने के चलते कर्नाटक के लोगों का जेडीएस पर भरोसा पूरी तरह से नहीं बन पा रहा है. कांग्रेस के लिए ये पहलू भी फायदेमंद है.  अब देखना होगा कि कांग्रेस सरकार बनाने के लिए जरूरी जादुई आंकड़े 113 तक पहुंच पाती है या नहीं.


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