कर्नाटक के चुनावी रण में कांग्रेस और बीजेपी के अलावा जेडीएस, केआरआरएस, बीएसपी के साथ ही एसडीपीआई भी मैदान में है. बीएसपी राज्य में जेडीएस, केआरआरएस और एसडीपीआई के साथ मिलकर राज्य में थर्ड फ्रंट बनाने की कवायद में जुटी है, लेकिन कांग्रेस की टेंशन एसडीपीआई ने बढ़ा दी है. कर्नाटक से पहले गुजरात और बिहार में कांग्रेस का खेल खराब हो चुका है.
सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (SDPI) की स्थापना तो वैसे 2009 में हुई थी, लेकिन पिछले 3 साल से पार्टी राज्य में सबसे ज्यादा सुर्खियों में है. कर्नाटक कांग्रेस के दिग्गज नेता और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष यूटी खादर ने कहा है कि बीजेपी के साथ मिलकर एसडीपीआई राज्य में ध्रुवीकरण की राजनीति कर रही है.
खादर ने कहा कि कर्नाटक के तटीय इलाकों में एसडीपीआई बीजेपी के कहने पर वोट काटने का काम कर रही है. एसडीपीआई ने राज्य की 100 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कही है. पार्टी मुस्लिम बहुल बेंगलुरु, दक्षिण कन्नड़, मैसूर, उडुपी और चित्रदुर्ग के अधिकांश सीटों पर उम्मीदवार उतारने की तैयारी में है. 2018 के चुनाव में एसडीपीआई ने राज्य की 4 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे.
कर्नाटक में इस बार 10 मई को मतदान और 13 मई को मतगणना प्रस्तावित है. चुनाव आयोग की घोषणा के मुताबिक सभी 224 सीटों पर एक ही चरण में मतदान कराए जाएंगे. आयोग ने कहा है कि कर्नाटक चुनाव में इस बार 58 हजार से ज्यादा पोलिंग बूथ बनाए गए हैं.
16 राज्यों में एसडीपीआई का वजूद, कर्नाटक में सबसे प्रभावी
2009 में नई दिल्ली में एसडीपीआई का गठन किया गया था और 2010 में चुनाव आयोग से संगठन को मान्यता मिली थी. पार्टी का लक्ष्य मुसलमानों को राजनीति में हिस्सेदारी दिलाना है.
एसडीपीआई अभी केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, गोवा, महाराष्ट्र, पुडुचेरी, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा और मणिपुर में सक्रिय है. संगठन पर बेंगलुरु हिंसा की साजिश रचने और हिजाब विवाद में उकसाने का आरोप लग चुका है.
16 राज्यों में सक्रिय एसडीपीआई का सबसे ज्यादा असर कर्नाटक में है. पंचायत स्तर पर कर्नाटक में संगठन के करीब 100 से अधिक प्रतिनिधि हैं. पार्टी का राज्य के कई जिलों में प्रखंड स्तर तक मजबूत संगठन भी है.
एसडीपीआई का पीएफआई कनेक्शन क्या है?
2006 में भारत में इस्लाम की समस्या और मुद्दे को उठाने के लिए पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया का गठन किया गया. धीरे-धीरे पीएफआई ने कई फ्रंट का विस्तार किया. एसडीपीआई भी पीएफआई की पॉलिटिकल शाखा है.
पीएफआई पर गठन के बाद कई धार्मिक हिंसा फैलाने और साजिश रचने का आरोप लगा. झारखंड में 2018 में पीएफआई पर बैन कर दिया गया था. कर्नाटक के उडुपी में पहले हिजाब विवाद और फिर कई राज्यों में सांप्रदायिक हिंसा फैलाने की साजिश रचने में पीएफआई का नाम सामने आया था.
2022 में केंद्र सरकार ने पीएफआई और उससे जुड़े 8 संगठनों पर अनलॉफुल एक्टिविटी प्रिवेंशन एक्ट (यूएपीए) के तहत 5 साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया. हालांकि, यह बैन पीएफआई के राजनीतिक फ्रंट एसडीपीआई पर नहीं लगा.
दरअसल, एसडीपीआई को चुनाव आयोग से मान्यता मिली है और उस पर कार्रवाई का अधिकार भी आयोग के पास ही है. ऐसे में एसडीपीआई गृह मंत्रालय के इस एक्शन से बच गया. पीएफआई पर बैन के बाद एसडीपीआई कर्नाटक में और अधिक सक्रिय हो गई है.
कर्नाटक में एसडीपीआई का राजनीतिक सफर
साल 2013 में एसडीपीआई ने कर्नाटक में 23 सीटों पर उम्मीदवार उतारे. राज्य में पार्टी का यह पहला चुनाव था. पार्टी को जीत तो नहीं मिली लेकिन चुनाव में 3.2 फीसदी वोट लाने में सफल रही. इसके बाद एसडीपीआई 2018 के चुनाव मैदान में भी उतरी.
इस बार एसडीपीआई बजट को ध्यान में रखते हुए केवल 4 सीटों पर कैंडिडेट उतारे. हालांकि, पार्टी को इस बार भी सफलता नहीं मिली. चारों सीट पर पार्टी की बुरी तरह हार हुई. पीएफआई पर बैन के बाद एसडीपीआई सबसे ज्यादा सक्रिय हुई है.
चुनावी परफॉर्मेंस ठीक नहीं फिर कांग्रेस की क्यों बढ़ी टेंशन?
स्थापना के बाद से अब तक एसडीपीआई का चुनावी परफॉर्मेंस विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में ठीक नहीं रहा है. पार्टी सिर्फ लोकल बॉडी के चुनाव में ही ठीक-ठाक प्रदर्शन कर पाई है. ऐसे में सवाल उठता है कि इस बार कांग्रेस एसडीपीआई की वजह से टेंशन में क्यों है? आइए विस्तार से जानते हैं...
1. धार्मिक मुद्दे को हावी करने में भूमिका- कर्नाटक में बीजेपी हिजाब, लव जिहाद और टीपू सुल्तान जैसे धार्मिक मुद्दे को तूल दे रही है. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष का हाल ही में एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें वे कह रहे थे कि नाले और सड़क से ज्यादा लव जिहाद के मुद्दे पर बात करो.
कांग्रेस का आरोप है कि बीजेपी के धार्मिक प्रोपेगंडा की पॉलिटिक्स में एसडीपीआई भी फंस गई है और मामले को तूल दे रही है. एसडीपीआई के लोग बीजेपी की बी टीम की तरह काम कर रही है.
कांग्रेस नेता यूटी खादर ने एक इंटरव्यू में कहा कि राज्य में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो, इसलिए बीजेपी और एसडीपीआई के लोग मिलकर विवादित टिप्पणी कर रहे हैं और विकास के मुद्दे से ध्यान भटकाने की कोशिश में है.
हालांकि, एसडीपीआई कांग्रेस के इस आरोप को खारिज करती है. एसडीपीआई के प्रदेश अध्यक्ष अब्दुल माजिद कहते हैं- कांग्रेस सिर्फ मुसलमानों का वोट लेना जानती है, जब मसला उठाने का वक्त आता है तो पार्टी चुप हो जाती है.
2. कांग्रेस के पास प्रभावी मुस्लिम चेहरा नहीं- कर्नाटक में कांग्रेस के पास इस बार बड़े मुस्लिम चेहरे की कमी है. पार्टी में पहले के रहमान खान, रौशन बेग, कमर आलम जैसे कद्दावर मुस्लिम नेता थे, जिनकी मुस्लिम मतदाताओं में काफी पैठ मानी जाती थी.
के रहमान खान राज्यसभा में उपसभापति रह चुके हैं, जबकि बेग और आलम राज्य के बड़े विभागों में मंत्री थे. आलम का 2017 में निधन हो गया तो वहीं बेग ने 2019 में कांग्रेस छोड़ दी. रहमान उम्र की वजह से पॉलिटिक्स में कम एक्टिव हैं.
पार्टी ने पिछले दो साल से बीजे जमीर खान को मुस्लिम चेहरे के रूप में प्रमोट करने की कोशिश की है, लेकिन खान मैसूर से बाहर प्रभाव जमाने में अब तक बेअसर रहे हैं. एसडीपीआई की काट खोजने के लिए कांग्रेस को इसलिए भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.
3. मुस्लिम आरक्षण खत्म होने पर चुप्पी- हाल ही में बोम्मई सरकार ने पिछड़े मुसलमानों को राज्य में मिल रहे 4 फीसदी आरक्षण को खत्म कर दिया है. मुसलमानों को मिल रहे आरक्षण को लिंगायत और वोक्कलिगा में बांटा गया है. कांग्रेस ने इस मसले पर चुप्पी साध ली है.
एसडीपीआई ने इसे मुद्दा बनाया और कांग्रेस की राजनीति पर सवाल उठाया है. कांग्रेस इस बार लिंगायत और वोक्कलिगा वोटों पर भी फोकस कर रही है.
ऐसे में बोम्मई सरकार के इस फैसले पर पार्टी ने चुप्पी साध ली. कांग्रेस को इस पर बयान देने से बैकफायर होने का डर सता रहा है. हालांकि पार्टी ने आरक्षण को फिर से बहाल करने का वादा जरूर किया है.
इधर, एसडीपीआई ने सरकार के फैसले को राजनीतिक मुद्दा बनाया है और कहा है कि सदन में मजबूत होने पर इसे जोर-शोर से उठाया जाएगा. मुस्लिम आरक्षण के मुद्दे पर भी वोट कटने का डर कांग्रेस को है, इसलिए चुनावी रण में कांग्रेस की टेंशन बढ़ गई है.
4. थर्ड फ्रंट की अटकलों ने टेंशन बढ़ाई- कांग्रेस को दक्षिणी कर्नाटक समेत पूरे राज्य में बेहतर परफॉर्मेंस की उम्मीद है. पार्टी के इंटरनल सर्वे में 140 सीटें मिलती दिख रही है, लेकिन एसडीपीआई और जेडीएस समेत छोटी पार्टियों के गठबंधन की अटकलों ने टेंशन बढ़ा दी है.
बीएसपी, जेडीएस और केआरआरएस के साथ मिलकर अगर एसडीपीआई तीसरा मोर्चा राज्य में बना लेती है, तो इसका सीधा नुकसान कांग्रेस को होगा. कांग्रेस इस बार जेडीएस के वोक्कलिगा वोटबैंक में भी सेंध लगाने की तैयारी कर रही है. ऐसे में अगर थर्ड फ्रंट बनता है तो पार्टी की रणनीति पर पानी फिर सकता है.
12 फीसदी मुसलमान, 60 सीटों पर सीधा असर
कर्नाटक में मुस्लिम वोटर्स की संख्या करीब 12 फीसदी के आसपास है. गुलबर्ग, रायचूड़, धारवाड़, बिदड़ और बीजापुर जिले में मुस्लिम मतदाताओं की अच्छी-खासी आबादी है. राज्य की करीब 60 विधानसभाओं की सीट पर मुस्लिम वोटर्स असरदार हैं.
राज्य में विधानसभा की कुल 224 सीटें हैं और सरकार बनाने के लिए 113 सीटों की जरूरत होती है. 2018 में कर्नाटक विधानसभा में मुसलमान विधायकों की संख्या 7 थी, जिसमें 6 कांग्रेस से जीतकर सदन पहुंचे थे. 2013 में कांग्रेस अकेले दम पर कर्नाटक में सरकार बनाने में कामयाब रही थी, उस साल 11 मुस्लिम विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे थे.
कांग्रेस ने राज्य में चुनाव की घोषणा से पहले 124 उम्मीदवारों की घोषणा की है, जिसमें 8 टिकट मुसलमानों को दिया है. पार्टी का एक खेमा इस चुनाव में ज्यादा से ज्यादा मुसलमानों को टिकट देने की अपील कर चुका है.
अब जाते-जाते 2018 का चुनाव परिणाम जान लीजिए...
कर्नाटक में 2018 के चुनाव में 104 सीट जीतकर बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. कांग्रेस को 80 सीटों पर और जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) को 37 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर राज्य में सरकार बना ली थी.
लेकिन 2019 में ऑपरेशन लोटस के बाद जेडीएस कांग्रेस की सरकार गिर गई. बाद में हुए उपचुनाव में बीजेपी ने अपनी सीटों की संख्या बढ़ा ली. बीजेपी के पास अभी 119 सीटें हैं. कांग्रेस के पास 75 और जेडीएस के पास 28 सीटें हैं.