Karnataka Assembly Election: कर्नाटक विधानसभा चुनाव (Karnataka Legislative Assembly election) में अब चंद महीने ही बचे हैं. कर्नाटक विधानसभा का कार्यकाल 24 मई 2023 को खत्म हो रहा है. ऐसे में अप्रैल-मई में यहां चुनावी दंगल हो सकता है.
सभी राजनीतिक दलों ने कर्नाटक के सियासी दंगल को फतह करने के लिए तैयारियां शुरू कर दी है. फिलहाल वहां बीजेपी की सरकार है और सत्ता में वापसी बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. वहीं कांग्रेस के लिए एक बड़े राज्य में जनाधार को बढ़ाने का मौका होगा.
दक्षिण भारत में पैठ बढ़ाने का मौका
2023 में 9 राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होने हैं. वहीं 2024 में केंद्र में सत्ता के लिए लोकसभा चुनाव होना है. बीजेपी के लिए कर्नाटक की जंग जीतना बहुत मायने रखती है. बीजेपी को भली भांति पता है कि कर्नाटक से होकर ही दक्षिणी राज्यों में उसकी सत्ता का विजय रथ आगे बढ़ सकता है. जहां 2023 में चुनाव होने हैं उनमें कर्नाटक चार बड़े राज्यों में से एक है. इन राज्यों में कर्नाटक ही है जो दक्षिण भारत में आता है. दक्षिण भारत में कर्नाटक बीजेपी के लिए एकमात्र गढ़ है. बीजेपी का कर्नाटक में 150 सीटें जीतने का टारगेट है.
कर्नाटक में 113 सीट से मिलेगी सत्ता की चाबी
कर्नाटक विधानसभा में कुल 224 सीटें है और सत्ता के लिए 113 सीटों की जरुरत होती है. विधानसभा चुनाव के नजरिेए से कर्नाटक को 6 भागों में बांटा जा सकता है. हैदरबाद से सीमाएं जुड़ने वाला क्षेत्र हैदराबाद कर्नाटक में 40 सीटें आती हैं. बॉम्बे कर्नाटक यानी महाराष्ट्र से लगे इलाकों में 50 सीटे, तटीय क्षेत्रों में 19, मैसूर के इलाके में 65 सीटें आती हैं. वहीं सेंट्रल कर्नाटक में 22 और बेंगलुरु में 28 सीटें आती हैं.
2018 में सबसे बड़ी पार्टी बनी थी बीजेपी
पिछली बार 2018 में हुए चुनाव में बीजेपी 104 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. बीजेपी को 36.35% वोट मिले थे. कांग्रेस सबसे ज्यादा वोट (38.14%) लाने के बावजूद 80 सीट ही ला सकी थी और जेडीएस को 37 सीटों पर जीत मिली थी. 2013 के चुनाव में बीजेपी को महज 40 सीटें मिली थी. इस लिहाज से उसे 2018 के चुनाव में 64 सीटों का फायदा मिला था. 2013 के मुकाबले 2018 में बीजेपी के वोट बैंक में करीब दोगुना का इजाफा हुआ था. हालांकि त्रिकोणीय समीकरण बनने की वजह से बीजेपी बहुमत हासिल करने में नाकाम रही थी. वहीं 2018 के चुनाव में कांग्रेस को 42 सीटों का नुकसान हुआ.
5 साल में सियासी समीकरण बदले
पिछले पांच साल में कर्नाटक की राजनीति में बहुत कुछ बदल गया है. जब 2018 में जब बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी तो बीएस येदियुरप्पा की अगुवाई में सरकार बनाई. हालांकि बहुमत के अभाव में 6 दिनों में ही मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद जेडीएस और कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनाई. 23 मई 2018 को जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने. जेडीएस-कांग्रेस की सरकार सिर्फ 14 महीने ही टिक पाई. हालात कुछ ऐसे बने कि बीजेपी फिर से सरकार बनाने के में कामयाब रही. बीजेपी के दिग्गज नेता बीएस येदियुरप्पा 26 जुलाई 2019 को चौथी बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने. बीजेपी की सरकार बनने के पीछे कांग्रेस के कई विधायकों का बागी हो जाना रहा.
2021 में येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा
2019 में फिर से बीजेपी सरकार बनाने में कामयाब हो गई, लेकिन उसके लिए राज्य में जनाधार बरकरार रखना इतना आसान नहीं था. दो साल के भीतर ही बीजेपी को येदियुरप्पा की जगह लिंगायत समुदाय से ही आने वाले बसवराज सोमप्पा बोम्मई को कमान देनी पड़ी. बीजेपी नेता बसवराज बोम्मई 28 जुलाई 2021 को कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री बने. बीएस येदियुरप्पा ही वो शख्स थे जिनकी वजह से बीजेपी दक्षिण भारत के किसी राज्य में पहली बार सरकार बनाने में कामयाब हुई थी. इसके बावजूद भी बीजेपी को येदियुरप्पा की जगह पर किसी और को लाना पड़ा. उस वक्त कहा गया कि राज्य के प्रशासनिक कामों में येदियुरप्पा के बेटे की दखलंदाजी की शिकायतों से पार्टी का शीर्ष नेतृत्व नाराज था. इसके अलावा भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर भी बीजेपी किसी नए शख्स को राज्य की कमान देना चाहती थी.
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क्या कर्नाटक बीजेपी का मजबूत किला बन पाएगा?
बीजेपी को 2004 के विधानसभा चुनाव में 79 सीटें मिली थी और वो पहली बार किसी दक्षिण भारत के राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. इसके बाद 2008 के चुनाव में बीजेपी 110 सीट जीतकर स्पष्ट बहुमत के करीब पहुंच गई. 2013 के चुनाव में भी बीजेपी सिर्फ 40 सीट ही जीत पाई. कांग्रेस ने स्पष्ट बहुमत के साथ सरकार बना ली. इन आंकड़ों से साफ है कि कर्नाटक में बीजेपी के लिए राह कभी भी आसान नहीं रही है और 2023 में उसके सामने सत्ता में वापसी की चुनौती होगी. 2007 में 7 दिनों को छोड़ दें तो बीजेपी ने कर्नाटक में पहली बार 2008 में सरकार बनाई थी. उसके बाद 2013 में सत्ता बरकरार रखने में नाकाम रही. 2018 में भी उसके लिए सत्ता में बने रहने में मुश्किल आई. हालांकि एक साल बाद ही जुलाई 2019 में सत्ता पाने में कामयाब रहने के बावजूद पिछले तीन साल में बीजेपी को दो मुख्यमंत्री बनाने पड़े.
जेडीएस के साथ गठबंधन की कितनी संभावना
ऐसे तो बीजेपी कर्नाटक में अकेले चुनाव लड़ना चाहेगी. लेकिन एक फैक्टर है जिसे बीजेपी रोकना चाहेगी. कांग्रेस-जेडीएस का चुनाव पूर्व गठबंधन बीजेपी के लिए खतरा पैदा कर सकता है. पिछले चुनाव में कांग्रेस और जेडीएस को मिलाकर 117 सीटें आई थी. बीजेपी को 36.53%, कांग्रेस को 38.14% और जेडीएस को 18.3% वोट मिले थे. वोट शेयर के विश्लेषण से साफ है कि पिछली बार कांग्रेस-जेडीएस को मिलाकर 56 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे. अगर इस बार भी ऐसा हुआ तो बीजेपी के लिए मुश्किल हो जाएगा. हालांकि कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी ने अक्टूबर 2022 में ही एलान कर दिया था कि वे किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेंगे, लेकिन चुनाव में अभी कुछ महीने बाकी हैं और बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस जेडीएस से गठबंधन का दबाव बना सकती है.
वोक्कालिगा वोटरों को साधना आसान नहीं
कर्नाटक में लिंगायत के बाद वोक्कालिगा बड़ा समुदाय है. वोक्कलिगा समुदाय के वोटरों का दक्षिण कर्नाटक के जिले जैसे मंड्या, हसन, मैसूर, बेंगलुरु (ग्रामीण), टुमकुर, चिकबल्लापुर, कोलार और चिकमगलूर में दबदबा है. राज्य की आबादी में ये 16 प्रतिशत हैं. ये जेडीएस के परंपरागत समर्थक माने जाते हैं. लिंगायत को ज्यादा तरजीह देने के कारण ये समुदाय बीजेपी से खफा रहती है. कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने के लिए बीजेपी जेडीएस से गठबंधन कर वोक्कालिगा समुदाय के दबदबे वाले पुराने मैसूर क्षेत्र की 89 सीटों के चुनावी समीकरण को साध सकती है. पिछली बार बीजेपी को इनमें सिर्फ 22 सीटों पर ही जीत मिली थी. कांग्रेस को 32 और जेडीएस को 31 सीटों पर जीत मिली थी. अगर इन इलाकों में बीजेपी का प्रदर्शन कुछ और बेहतर होता तो उसे स्पष्ट बहुमत आसानी से हासिल हो जाता.
आरक्षण बढ़ाने की मांग पर अड़े हैं वोक्कालिगा
दक्षिणी कर्नाटक में इस बार राहुल गांधी के भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को फायदा मिलने की आस है. बोम्मई सरकार को वोक्कालिगा समुदाय के लिए आरक्षण बढ़ाने के मुद्दे से भी निपटना होगा. ये समुदाय अपने लिए 4 से बढ़ाकर 12 फीसदी आरक्षण की मांग कर रहा है. चुनाव से पहले अगर ऐसा नहीं हुआ तो बीजेपी को इनके नाराजगी का खामियाजा भगतना पड़ सकता है. पुराने मैसूर के इलाकों में बीजेपी अपनी कमजोरी पर ध्यान दे रही है. वो चाहती है कि यहां की 70 से ज्यादा सीटों पर जीत मिले.
लिंगायत समुदाय की नाराजगी पड़ सकती है भारी
कर्नाटक में 18 फीसदी आबादी की वजह से लिंगायत समुदाय हर पार्टी के लिए बड़ा वोट बैंक है. राज्य की करीब 100 सीटों पर इनके वोट निर्णायक हैं. इनमें से 62 सीटों पर उनका दबदबा है. पिछली बार इन 62 में से 40 सीटों पर बीजेपी की जीत हुई थी. बीजेपी को इन इलाकों में 2013 के मुकाबले 11 सीटें ज्यादा मिली थी. लिंगायत समुदाय में बीजेपी का जनाधार मजबूत था, लेकिन कहा जा रहा है कि 2021 में बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाने की वजह से ये समुदाय बीजेपी से नाराज चल रहा है. लिंगायत से होते हुए भी मौजूदा मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई की पकड़ उतनी मजबूत नहीं है. लिंगायत समुदाय को ये भी डर है कि चुनाव जीतने के बाद बीजेपी गैर-लिंगायत को मुख्यमंत्री न बना दे. ऐसे में बीजेपी को इस समुदाय को अपने साथ रखने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी. हालांकि बीजेपी लिंगायत मठो, मंदिरों और ट्रस्ट का खास ख्याल रख रही है. इस साल अगस्त में बीजेपी सरकार ने इनके लिए अनुदान के तौर पर 142 करोड़ रुपये जारी किए हैं. वहीं लिगायत तीर्थस्थलों के लिए भी 108 रुपये आवंटित किए गए हैं. इन सबके बावजूद बीजेपी कतई नहीं चाहेगी कि लिंगायत समुदाय की नाराजगी का फायदा कांग्रेस उठा ले.
दलित मतदाताओं पर होगी बीजेपी की नज़र
कर्नाटक में सबसे बड़ी आबादी दलित मतदाताओं की है. कर्नाटक में अनुसूचित जाति की आबादी 23% है. यहां विधानसभा की 35 सीटें इस समुदाय के लिए आरक्षित है. पिछली बार के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी बनाने में दलितों का बड़ा योगदान रहा था. बीजेपी को इस समुदाय का 40 फीसदी वोट मिला था. जबकि 2013 में कांग्रेस को 65 फीसदी दलित वोट मिले थे. इससे जाहिर है कि इस बार बीजेपी को बड़ी जीत हासिल करने के लिए दलितों का सहयोग चाहिए. मल्लिकार्जुन खरगे के कांग्रेस अध्यक्ष बनने से कर्नाटक का दलित वोट बैंक कांग्रेस की ओर लामबंद नहीं हो, इसकी ओर भी बीजेपी को ध्यान देना होगा.
क्या आदिवासी फिर से कमल का देंगे साथ
कर्नाटक में अनुसूचित जनजाति (ST) की आबादी करीब 7% है. उनके लिए 15 सीटें आरक्षित हैं. ये मुख्य तौर से मध्य और उत्तरी कर्नाटक में केंद्रित हैं. पिछली बार बीजेपी को इनका साथ मिला था. इस समुदाय के 44 फीसदी वोट के साथ बीजेपी ने 7 सीटों पर जीत हासिल की थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने कर्नाटक में एसटी के लिए आरक्षित दोनों सीट पर जीत हासिल की थी. आरक्षित सीटों के अलावा मलनाड और तटीय जिलों में कुछ सीटों पर आदिवासी वोट निर्णायक साबित होते हैं. इस समुदाय में कांग्रेस की भी अच्छी पकड़ है. अगर बीजेपी कर्नाटक को अपना मजबूत किला बनाना चाहती है तो उसे आदिवासियों का वोट बंटने से रोकना होगा.
पिछड़े वर्ग को साथ लाने की चुनौती
दक्षिण के राज्यों में चुनाव को ध्यान में रखते हुए ही इस बार जुलाई में बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हैदराबाद में हुई थी. ये तो तय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे को ही आगे रखकर बीजेपी हर वर्ग के वोट को साधने की कोशिश करेगी. बीजेपी इसके लिए डबल इंजन के मंत्र भी इस्तेमाल करेगी. हालांकि उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती कर्नाटक के पिछड़ी जातियों को अपने साथ लाना है. बीजेपी को ये अच्छे से पता है कि बिना जाति समीकरण को साधे कर्नाटक में वो बड़ी जीत हासिल नहीं कर सकती.
पिछड़े वर्ग से युवा नेता को मिलेगा मौका
बीजेपी के दिग्गज नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा और मौजूदा मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई वीरशैव लिंगायत समुदाय से ही आते हैं. बीजेपी नेता सीटी रवि और डॉ सीएन अश्वथ नारायण (Dr CN Ashwath Narayan)वोक्कालिगा समुदाय से पार्टी के बड़े चेहरे हैं. बी श्रीरामुलु आदिवासी समुदाय (ST) से आते हैं. वहीं केंद्रीय सामाजिक न्याय राज्य मंत्री ए नारायणस्वामी अनुसूचित जाति (SC) के बड़े नेता माने जाते हैं. इन सबके बावजूद बीजेपी के पास एक युवा पिछड़े वर्ग के नेता की कमी है. पार्टी के आतंरिक सर्वे के मुताबिक पिछली बार 50 प्रतिशत से ज्यादा पिछड़े वर्ग का वोट बीजेपी को मिला था, लेकिन इस बार ये वर्ग बोम्मई सरकार से नाराज है. ऐसे में बीजेपी कर्नाटक के ऊर्जा मंत्री वी सुनील कुमार को पिछड़े वर्ग के चेहरा के तौर पर आगे ला सकती है.
मुस्लिम वोटरों का साथ पाने की चुनौती
कर्नाटक की आबादी में 12 फीसदी मुस्लिम हैं. कई सीटों पर ये चुनाव जीताने और कई सीटों पर नतीजे पलटने की ताकत रखते हैं. राज्य की 60 सीटों पर इनकी प्रभावी मौजूदगी है. तटीय और उत्तर कर्नाटक मुस्लिम बहुल 23 सीटे हैं. 2013 बीजेपी इनमें से सिर्फ 8 ही जीत पाई थी. वहीं 2018 में 10 सीटों पर जीत मिली थी. बीजेपी को पता है कि कांग्रेस इन सीटों पर ज्यादा मजबूत है. हालांकि इस बार असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi)की पार्टी AIMIM भी कर्नाटक के सियासी जंग में उतरने का एलान कर चुकी है. ओवैसी उत्तरी कर्नाटक के मुस्लिम बहुल सीटों पर ही करीब 15 उम्मीदवार उतार सकते हैं. अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस के परंपरागत वोटबैंक में सेंध लगने से बीजेपी को फायदा मिल सकता है. पिछले चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने जेडीएस का समर्थन किया था. कांग्रेस , जेडीएस और AIMIM के बीच मुसलमान वोट बंटने से बीजेपी लाभ की स्थिति में होगी.
कर्नाटक-महाराष्ट्र सीमा विवाद को करना होगा शांत
बीजेपी को कर्नाटक-महाराष्ट्र सीमा विवाद से भी निपटना होगा. वो कभी नहीं चाहेगी कि कर्नाटक चुनाव ये मुद्दा बने और जेडीएस इसका फायदा उठा ले. इस महीने के शुरुआत से ही ये मुद्दा सुर्खियों में है. दरअसल कर्नाटक के बेलगावी जिले को महाराष्ट्र अपने में मिलाना चाहता है. महाराष्ट्र-कर्नाटक के बीच 6 दशक से ज्यादा पुराना विवाद है. महाराष्ट्र कर्नाटक से बेलगावी समेत 865 गांवों को अपने में मिलाना चाहता है. उसकी दलील है कि इन गांवों में ज्यादातर निवासी मराठी बोलते हैं. चूंकि दोनों ही राज्यों में बीजेपी की सरकार है. इसलिए बीजेपी कतई नहीं चाहेगी कि ये मुद्दा कर्नाटक चुनाव के वक्त हावी हो.
सीमा विवाद से जेडीएस को हो सकता है फायदा
ऐसे भी ये मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और बीजेपी के लिए यही बेहतर होगा कि मई 2023 तक ये मामला शांत रहे. इसी नजरिए से केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बात की और दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों से सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करने को कहा है. कांग्रेस भी राष्ट्रीय दल है. इसलिए वो भी इस मुद्दे पर कोई पक्ष नहीं लेना चाहती. जबकि जेडीएस की राजनीति कर्नाटक में ही सीमित है. बेलगामी के सीटों पर हमेशा से कांग्रेस और बीजेपी के बीच लड़ाई रही है. जेडीएस का यहां प्रभाव नहीं है. अगर कन्नड़ समर्थक सांस्कृतिक संगठन, कर्नाटक रक्षणा वेदिके (KRV) इस मुद्दे पर जेडीएस का समर्थन कर देता है, तो बीजेपी के लिए इन सीटों पर मुश्किलें बढ़ जाएगी. कर्नाटक महाराष्ट्र सीमा क्षेत्र में KRV के 10 लाख से ज्यादा समर्थक हैं.
विधानसभा में कांग्रेस का जनाधार बरकरार
पिछले कई चुनावों के विश्लेषण से पता चलता है कि नरेंद्र मोदी के केंद्रीय राजनीति में आने के बाद कर्नाटक में कांग्रेस का वोटबैंक लोकसभा चुनाव में लगातार घटा है. वहीं 2004 से अब तक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का वोट शेयर थोड़ा बढ़ा है. वहीं जेडीएस के वोट शेयर में पिछले दो दशक में कमी आई है. लोकसभा में तो जेडीएस को 2004 में 20% से ज्याद वोट मिले थे, लेकिन पार्टी को 2019 लोकसभा चुनाव में 10 फीसदी से कम वोट मिले. जबकि विधानसभा चुनाव में जेडीएस को 2004 से 2018 तक सिर्फ दो प्रतिशत वोट शेयर का नुकसान हुआ है.
विधानसभा में मोदी फैक्टर ज्यादा कारगर नहीं
बीजेपी को 2014 में कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में 43 फीसदी वोटशेयर के साथ 17 सीटें मिली थी. वहीं कांग्रेस को 9 सीटें मिली थी. वहीं 2019 में बीजेपी करीब 52 फीसदी वोटशेयर के साथ 28 में से 25 लोकसभा सीटें जीतने में सफल रही थी. 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सिर्फ 36.35% वोट ही मिले थे. इन आकड़ों से साफ है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में लोकसभा की तरह नरेंद्र मोदी का करिश्मा काम नहीं करता है. कर्नाटक के लोगों का दोनों चुनाव में वोटिंग पैटर्न अलग-अलग है. बीजेपी को इस समीकरण को साधने की भी चुनौती होगी.
बागियों को लेकर हिमाचल से सबक लेगी बीजेपी
बीजेपी के लिए हिमाचल प्रदेश चुनाव के नतीजे एक तरह का सबक है. वहां बीजेपी की हार सबसे अहम भूमिका पार्टी से बाहर गए बागी नेताओं की रही. बीजेपी के करीब 27 नेता वहां चुनावी मैदान में थे और 10 सीटों पर इनकी वजह से बीजेपी की हार हुई. बीजेपी कतई नहीं चाहेगी कि कर्नाटक में उसे इस तरह का कोी नुकसान हो. इसके लिए बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को टिकट बंटवारे में इस बार ज्यादा सतर्कता बरतनी होगी. बीजेपी के लिए कर्नाटक के नेताओं के बीच पनपते असंतोष को शांत करने की चुनौती है.
एंटी इनकंबेंसी और भ्रष्टाचार के आरोपों से निपटना
बीजेपी को सत्ता विरोधी लहर को भी साधना होगा. चुनाव होने के वक्त तक कर्नाटक में बीजेपी सरकार के करीब 4 साल हो जाएंगे. इन चार सालों में बीजेपी के कई नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे हैं. सत्ता विरोधी लहर के साथ भ्रष्टाचार के आरोपों पर भी कुछ वर्ग का गुस्सा बीजेपी पर भारी पड़ सकता है. ऐसे में बीजेपी चाहेगी कि कर्नाटक चुनाव में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code),हिन्दू एकता जैसे मुद्दे हावी रहें. ऐसे भी हाल फिलहाल में जिन राज्यों में भी चुनाव हुए हैं, उन सबमें बीजेपी ने यूनिफॉर्म सिविल कोड़ को बड़ा मुद्दा बनाया है और अपने संकल्प पत्र में इसे जगह भी दी है.
बीजेपी की नजर कांग्रेस के अंदरूनी कलह पर भी होगी. कांग्रेस के दो बड़े नेता पूर्व मुख्यमंत्री एस सिद्धारमैया और पार्टी प्रदेश अध्यक्ष डीके शिव कुमार के बीच पिछले कुछ साल से जारी रार जगजाहिर है और बीजेपी को इसका भी फायदा मिल सकता है.