नई दिल्ली: कर्नाटक के इस्तीफा देने वाले विधायकों के मामले में सुप्रीम कोर्ट कल फैसला देगा. कोर्ट ये तय करेगा कि विधानसभा स्पीकर को पहले विधायकों के इस्तीफे पर फैसला करना होगा या वो अयोग्यता की कार्रवाई को आगे बढ़ा सकते हैं. गुरुवार को होने वाले कांग्रेस-जेडीएस सरकार के बहुमत परीक्षण पर इस आदेश का सीधा असर पड़ेगा. अगर विधायकों का इस्तीफा स्वीकार होता है तो सीएम कुमारस्वामी की सरकार के बहुमत परीक्षण में फेल होने का अंदेशा बढ़ जाएगा. अगर इस्तीफा स्वीकार नहीं होता, तो उन्हें पार्टी व्हिप के तहत सरकार के समर्थन में वोट देना पड़ सकता है.
विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने वाले सत्ताधारी कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन के 15 विधायकों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है. उन्होंने आरोप लगाया है कि विधानसभा अध्यक्ष अपने संवैधानिक दायित्व से दूर भाग रहे हैं. वो इस्तीफे पर फैसला नहीं ले रहे. उल्टे विधायकों को सदस्यता के अयोग्य करार देने की कार्रवाई शुरू कर दी है. बहुमत खो चुकी सरकार को किसी तरह बचाने की कोशिश की जा रही है.
पिछले हफ्ते चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 3 जजों की बेंच ने विधानसभा स्पीकर से आग्रह किया था कि वो विधायकों से मिल कर इस्तीफों पर फैसला लें. विधायकों के वकील मुकुल रोहतगी ने कोर्ट को बताया कि स्पीकर विधायकों से मिले, लेकिन कोई फैसला नहीं लिया. रोहतगी ने आरोप लगाया कि स्पीकर सिर्फ समय बर्बाद कर रहे हैं. वो इस्तीफों के बाद कांग्रेस की तरफ से दिए गए अयोग्यता के आवेदन पर विचार कर रहे हैं.
रोहतगी ने कहा अयोग्यता से जुड़ी कार्रवाई एक तरह का मुकदमा है. जिसमें सब पक्षों को सुनना पड़ता है. इसकी समय सीमा तय नहीं है. क्या होगा अगर स्पीकर इसको 4 साल चलाता रहे? क्या तब तक इस्तीफे लटके रहेंगे? विधायकों से कहा जाता रहेगा कि उन्हें सदन में सरकार के पक्ष में वोट करना होगा. ये अपनी इच्छा से इस्तीफा दे रहे विधायकों को जबरन बांध के रखने की कोशिश है.
बागी विधायकों के वकील कोर्ट को बताया कि ऐसे कई उदाहरण हैं जहां अयोग्यता की कार्रवाई लंबित रहते विधायक ने इस्तीफा दिया और हाई कोर्ट ने इस्तीफा स्वीकार किये जाने के पक्ष में फैसला दिया. केरल के एक मामले में तो इस्तीफा उस दिन दिया गया जब अगले रोज़ अयोग्यता पर फैसला आने वाला था. इस पर चीफ जस्टिस ने कहा कि इस तरह से तो आपका केस मजबूत नज़र आ रहा है.
रोहतगी ने बेंच को ध्यान दिलाया कि साल भर पहले इसी कोर्ट ने कर्नाटक में 24 घंटे में फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया था. कोर्ट ने कर्नाटक में प्रोटेम स्पीकर नियुक्ति, विधायकों की शपथ, फ्लोर टेस्ट सबका समय तय किया था. तब उससे लाभ लेने वाला पक्ष अब कह रहा है कि कोर्ट विधानसभा की कार्रवाई पर आदेश नहीं दे सकता.
स्पीकर रमेश कुमार के वकील अभिषेक मनु सिंघवी की दलीलें रखते हुए कहा, "मामला स्पीकर के विवेक का है. क्या कोर्ट उनके अधिकार क्षेत्र में दखल देगा? 11 जुलाई को 11 विधायकों ने उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलकर इस्तीफा दिया. अब भी 4 विधायक स्पीकर से नहीं मिले. स्पीकर को देखना होता है कि इस्तीफे किसी दबाव में तो नहीं दिए गए."
बेंच के सदस्य जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा, "नियम कहता है कि व्यक्तिगत रूप से मिलने वाले विधायक के इस्तीफे पर तुरंत फैसला हो. स्पीकर ने फैसला क्यों नहीं लिया." चीफ जस्टिस ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, "विधायकों का कहना है कि 6 जुलाई को स्पीकर उनसे नहीं मिले. उन्होंने विधानसभा महासचिव को इस्तीफा दिया. स्पीकर ने इसकी जानकारी मिलने के बाद कुछ क्यों नहीं किया? विधायकों से मिलने की कोशिश क्यों नहीं की? विधायकों को इतनी सी बात के लिए कोर्ट क्यों आना पड़ा? हम ऐसा क्यों न कहें कि जल्द से जल्द इस्तीफे पर फैसला लें, फिर अयोग्यता आवेदन पर सुनवाई करें?"
सिंघवी ने जवाब दिया, "स्पीकर को अपने विवेक के आधार पर निर्णय लेने दिया जाए. निर्णय को बाद में कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है. चीफ जस्टिस ने कहा, "कोर्ट ने हमेशा स्पीकर के पद को ऊंचा दर्जा दिया है. लेकिन पिछले 20-30 सालों में स्पीकरों ने जिस तरह से काम किया है, उससे लगता है कि इस पर दोबारा विचार की ज़रूरत है."
मुख्यमंत्री एच डी कुमारस्वामी की तरफ से पेश वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने भी कोर्ट से स्पीकर के काम मे दखल न देने का आग्रह किया. धवन ने कहा कि कोर्ट को विधायकों की याचिका पर विचार ही नहीं करना चाहिए था. साढ़े 3 घंटे चली कार्रवाई में सभी पक्षों की दलीलें विस्तार से सुनने के बाद कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया.