सबरीमाला: अयप्पा के दर्शन की अभिलाषी दो महिलाओं को उनके द्वार से ख़ाली हाथ लौटना पड़े. कविता जक्कल और रेहाना फातिमा नाम की ये दो महिलाएं उनके दरवाजे तक पहुंचीं तो ज़रूरी लेकिन उन्हें अंदर नहीं जाने दिया गया. इस पर निराशा जताते हुए केरल के आईजी ने कहा, "हम उन्हें (दोनों महिलाओं को) लेकर मंदिर के प्रांगण में तो आ गए लेकिन पुजारी ने मंदिर का दरवाज़ा खोलने से मना कर दिया." आईजी ने आगे कहा कि तंत्री ने उन्हें चेतावनी दी कि अगर वो महिलाओं को आगे ले जाने की कोशिश करेंगे तो मंदिर बंद कर दिया जाएगा.


कविता जक्कल और रेहाना फातिमा नाम की दो महिलाओं ने भारी सुरक्षा घेरे के बीच सबरीमाला में प्रवेश करने की कोशिश की. लेकिन उनका ये प्रयास असफल रहा. केरल में भारी विरोध प्रदर्शनों के बीच लगभग 100 पुलिसकर्मियों के सुरक्षा घेरे के बीच ये दो महिलाएं सबरीमाला मंदिर की ओर गई थीं.


इनमें कविता पत्रकार हैं जबकि फातिमा समाज सेविका हैं. हैदराबाद की पत्रकार कविता और उनके चार सहयोगी सहित अन्य महिला भक्त को 80 पुलिसकर्मी घेरे हुए थे, जबकि बाकी 20 पुलिसकर्मी उनसे आगे चल रहे थे और रास्ता क्लियर कर रहे हैं. पांबा से मंदिर तक के रास्ते में आमतौर पर लगभग दो घंटे लगते हैं.


पुलिस महानिरीक्षक एस.श्रीजीत के नेतृत्व में इन्होंने सुबह लगभग 6.45 बजे चढ़ाई शुरू की. रास्ते में एक प्रदर्शनकारी भक्त कों के सामने आकर उन्हें रोकने लगा लेकिन पुलिस ने उसे हटा दिया. भक्तों का एक गुस्साया समूह मंदिर के प्रवेश द्वार के रास्ते के सामने खड़ा है, जहां से होकर ही मंदिर जाया जाता है.






सूत्रों के मुताबिक, मंदिर का तांत्री परिवार और पांडलम शाही परिवार के सदस्य महिलाओं को मंदिर में प्रवेश से रोकने के लिए मंदिर को बंद करने पर विचार कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट के 28 सितंबर के फैसले के बाद पहली बार बुधवार को मंदिर के कपाट खुले थे. कोर्ट ने अपने फैसले में 10 से 50 आयुवर्ग की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की मंजूरी दी थी.


सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के पक्ष में दिया फैसला
आपको बता दें कि बीते 28 सितंर को केरल के सबरीमाला में विराजमान भगवान अयप्पा मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया था. कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि सबरीमला मंदिर में हर उम्र की महिलाएं जा सकती हैं. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के साथ 53 साल पुराना कानून आज असंवैधानिक हो गया. पांच जजों की बेंच में चार जजों ने अलग अलग फैसला पढ़ा लेकिन सभी के फैसले का निष्कर्ष एक रहा, इसलिए इसे बहुमत का फैसला कहा जा सकता है.


जिन चार जजों ने फैसला पढ़ा उनमें चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस चंद्रचूर्ण, जस्टिस नरीमन और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल थे. कोर्ट के फैसले के बाद त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड के प्रेसीडेंट ए पद्मकुमार ने कहा कि हम दूसरे धार्मिक गुरुओं का समर्थन लेकर इस फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर करेंगे. फैसले में बेंच की इकलौती महिला सदस्य जस्टिस इंदु मल्होत्रा की राय बहुमत से अलग थी. इंदु मल्होत्रा ने अपने फैसले में कहा कि इस फैसले का व्यापक असर होगा, धर्म का पालन किस तरह से हो ये उसके अनुयायियों पर छोड़ा जाए. ये कोर्ट तय नहीं कर सकता. उन्होंने कहा कि मौलिक अधिकारों के साथ ही धार्मिक मान्यताओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता.


हालांकि, कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा, ''महिलाएं दिव्यता और अध्यात्म की खोज में बराबर की हिस्सेदार हैं. बनी बनाई मान्यताएं इसके आड़े नहीं आनी चाहिए. समाज को भी सोच में बदलाव लाना होगा, महिलाएं पुरुषों के समान हैं.'' कोर्ट ने कहा, ''पितृसत्तात्मक सोच आध्यात्मिक मामलों में आड़े नहीं आनी चाहिए. हर धर्म ईश्वर तक पहुंचने का जरिया है. कुछ लोगों को किसी धार्मिक प्रक्रिया से बाहर रखना सही नहीं है. अयप्पा के अनुयायी अलग धार्मिक मत नहीं है ये हिन्दू धर्म का ही हिस्सा है.'' कोर्ट ने कहा, ''धर्म के पालन का मौलिक अधिकार पुरुष और महिला को एक समान उपलब्ध हैं. अनुच्छेद में दी गयी नैतिकता की शर्त इस मामले में आड़े नहीं आती है.''


क्या है मामला?
केरल के सबरीमाला मंदिर में विराजमान भगवान अयप्पा को ब्रह्मचारी माना जाता है. साथ ही, सबरीमाला की यात्रा से पहले 41 दिन तक कठोर व्रत का नियम है. मासिक धर्म के चलते युवा महिलाएं लगातार 41 दिन का व्रत नहीं कर सकती हैं. इसलिए, 10 से 50 साल की महिलाओं को मंदिर में आने की इजाज़त नहीं है. कोर्ट इस बात की समीक्षा कर रहा है कि ये नियम संवैधानिक लिहाज से सही है या नहीं.


नागरिकों के मौलिक अधिकार अहम
5 जजों की बेंच के सदस्य जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने सुनवाई के दौरान कहा, "सबसे ज़रूरी ये है कि धार्मिक नियम संविधान के मुताबिक भी सही हो. कौन सी बात धर्म का अनिवार्य हिस्सा है, इस पर कोर्ट क्यों विचार करे? हम जज हैं, धर्म के जानकार नहीं." जस्टिस रोहिंटन नरीमन ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, "धार्मिक नियमों के पालन के अधिकार की सीमाएं हैं. ये दूसरों के मौलिक अधिकार को बाधित नहीं कर सकते."


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