Bismillah Khan Death Anniversary: शहनाई के वो 'उस्ताद', जिसने बना लिया पूरी दुनिया को अपना मुरीद
Bharat Ratna Bismillah Khan: दुनिया में शहनाई को नई पहचान देने वाले बिस्मिल्ला खां साहब को गए यूं तो 17 साल गुजर चुके हैं, लेकिन उनकी शहनाई की गूंज आज भी हमारे कानों में सुनाई देती है.
King of Shehnai Bismillah Khan: “सिर्फ संगीत ही है जो इस देश की विरासत और तहजीब को एकाकार करने की ताकत रखता है.” ये महज अल्फाज नहीं सच्ची इबारत हैं. जिन्हें भारत रत्न और शहनाई के शहंशाह उस्ताद बिस्मिल्ला खान ने बयां किया था. शहनाई को पूरी दुनिया में नई पहचान देने वाले बिस्मिल्ला खां साहब को गए यूं तो 17 साल गुजर चुके हैं, लेकिन उनकी शहनाई की गूंज आज भी हमारे कानों में सुनाई देती है.
बिस्मिल्ला खां साहब का परिवार पिछली पांच पीढ़ियों से शहनाई वादन के क्षेत्र में असरदार हैसियत रखता था. उनके पूर्वज बिहार के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार भी रहे. 21 मार्च 1916 में बिहार के डुमराव जिले में जन्मे उस्ताद बिस्मिल्ला खां मात्र 6 साल की उम्र में अपने पिता पैगंबर खां के साथ वाराणसी चले आए थे. यहां उनकी शिक्षा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और शांतिनिकेतन में हुई.
चाचा अली बख्श से शहनाई सीखने का किया था आगाज
यहीं पर उन्होंने अपने चाचा अली बख्श विलायतु से छोटी उम्र में शहनाई बजाना सीखना शुरू कर दिया था. कहना गलत न होगा कि बिस्मिल्ला खां साहब को शहनाई वादन विरासत में मिला था. उनके परिवारीजन को शुरू से राग दरबारी बजाने में महारत हासिल थी. जिसे उन्होंने अपनी लगन और जुनून से उस मुकाम पर पहुंचा दिया जहां ‘शहनाई का मतलब बिस्मिल्ला खां’ हो गया.
स्वतंत्रता दिवस पर आज भी सुनाई देती है उनकी शहनाई की गूंज
बिस्मिल्ला खां साहब 21 अगस्त 2006 को इस दुनियां से रुखसत हो गए, लेकिन उनकी शहनाई की गूंज प्रत्येक वर्ष स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से प्रधानमंत्री के भाषण के बाद आज भी सुनाई देती है. यह परंपरा है जो देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय से अनवरत चली आ रही है. इतना ही नहीं दूरर्शन और आकाशवाणी की सिग्नेचर ट्यून में उस्ताद की शहनाई ही सुनाई देती है. 1947 को जब भारत आजाद हुआ था. बिस्मिल्ला खां ने दिल को छू लेने वाली धुन बजाई थी. उसी समय से परंपरा चली आ रही है. प्रधानमंत्री के भाषण पर दूरर्शन पर उनकी धुन आज भी सबको भावुक कर देती है.
देश के सर्वश्रेष्ठ पुरस्कारों से नवाजे गए
मात्र 14 साल की छोटी उम्र में इलाहाबाद (प्रयागराज) में संगीत परिषद में अपनी शहनाई से सबको मंत्रमुग्ध करने वाले बिस्मिल्ला खां साहब भारत में दिए जाने वाले लगभग सभी बड़े पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं. 2001 में इन्हें देश के सर्वोत्तम पुरस्कार ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया. इसके अलावा इन्हें 1980 में पद्म विभूषण, 1968 में पद्म भूषण, 1961 में पद्म श्री, 1956 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से नवाजा जा चुका है. इसके अलावा 1930 में ऑल इंडिया म्यूजिक कॉफ्रेंस में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का पुरस्कार भी मिला. वहीं मध्य प्रदेश सरकार ने अपने यहां के सर्वोच्च संगीत पुरस्कार ‘तानसेन’ की पदवी देकर सम्मानित किया था.
जब लोकधुनों के महारथी उस्ताद को मिली डॉक्ट्रेट की उपाधि
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां संगीत की लोकधुनें बजाने में माहिर थे. इसमें ‘बजरी’, ‘झूला’ और 'चैती’ जैसी कठिन और प्रतिष्ठित धुनों पर महारत हासिल करने के लिए उन्होंने कठोर तपस्या की. इसके अलावा क्लासिकल और मौसिकी में भी शहनाई को दुनिया में सम्मान दिलाया. जिस जमाने में लोग संगीतज्ञों को ज्यादा तरजीह नहीं देते थे. उस समय उस्ताद ने अपनी काबिलियत से शहनाई को संगीत के शिखर पर पहुंचाया. उनकी इसी मेहनत और तपस्या को देखकर शांतिनिकेतन और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्ट्रेट की उपाधि से सम्मानित किया था.
कई फिल्मों में भी सुनाई दे चुकी है उस्ताद की शहनाई
महान शहनाई वादक बिस्मिल्ला खां ने कई फिल्मों में भी अपनी शहनाई से दर्शकों का मनमोहा है. बिस्मिल्ला खां ने कन्नड़ फिल्म सनादी अपात्रा में राजकुमार के लिए शहनाई बजाई. इसके अलावा 1959 में गूंज उठी शहनाई को तो शायद ही कोई भूल पाएगा. 1994 में मेस्ट्रो च्वॉइस में भी उस्ताद की धुन ने रंग जमाया था. 1994 में मेघ मल्हार से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया था. इसके बाद 2000 में क्वीन एलिजाबेथ हॉल में लाइव शो में उन्होंने सबको अपना दीवाना बना दिया था. इसी साल लंदन में भी अपनी शहनाई की गूंज सुनाई थी. उनके इस परफॉरमेंस पर पूरा लंदन झूम उठा था.
शहनाई के शहंशाह दिल से भी राजा थे
शहनाई के बादशाह बिस्मिल्लाह खां साहब दिल से भी राजा ही थे. वह अपनी दरियादिली के लिए भी जाने जाते थे. अपनी शहनाई की कमाई का सारा पैसा परिवार और जरूरतमंदों पर खर्च कर देते थे. अपने लिए उन्हें कोई चिंता नहीं रहती थी. इसके कारण उन्हें आर्थिक दिक्कतों का सामना भी करना पड़ा था. इसी कारण सरकार को आगे आकर उनकी मदद करनी पड़ी थी. वह अपनी एक ख्वाहिश के साथ दुनिया से अलविदा हो गए. उनकी बड़ी इच्छा थी कि एक बार वह इंडिया गेट पर शहनाई बजाएं, मगर वह पूरी न हो सकी. उनके सम्मान में उनके साथ उनकी शहनाई को भी ‘सुर्पुदे’ खाक कर दिया गया.
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