नई दिल्ली: उसे स्कूल जाना पसंद है लेकिन अपनी बीमारी की वजह से वो चाह कर भी हफ़्ते में दो बार से ज़्यादा स्कूल नहीं जा सकता. उसे खेलना पसंद है लेकिन थोड़ी देर खेलते ही उसकी साँस फूलने लगती है.

राँची के रहने वाले सौरभ सिंह के 5 साल के बेटे शौर्य को 'लाइज़ोज़ोमल स्टोरेज सिंड्रोम' (हंटर सिंड्रोम) नाम की बीमारी है और उसकी ज़िंदगी की क़ीमत 1 करोड़ 75 लाख रुपए सालाना है.  जी हाँ सालाना ...क्योंकि बच्चे को ऐसी बीमारी है जिसका कोई इलाज नहीं है लेकिन इस बच्चे को ज़िंदा रखने के लिए जिस दवा की ज़रूरत है, उसके लिए परिवार को हर साल क़रीब पौने दो करोड़ रुपए ख़र्च करने पड़ेंगे. ये हम नहीं बल्कि एम्स के डिपार्टमेंट ऑफ़ पेडिएट्रिक्स के एचओडी विनोद कुमार पॉल की ये मेडिकल रिपोर्ट कह रही है.

'हंटर सिंड्रोम' एक जेनेटिक बीमारी है जिसका पूरी दुनिया में कोई इलाज ही नहीं है. मेडिकल साइंस अभी तक इलाज खोज पाने में नाकाम है. ये दुनिया की 'रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर' बीमारियों में से एक है.



सबसे हैरान करने वाली बात ये है कि केंद्र सरकारों की ओर से 'वर्ल्ड क्लास मेडिकल फ़ैसिलिटी' देने के तमाम दावों के बावजूद देश में इस बीमारी की दवा मौजूद ही नहीं है. देश का सबसे बड़ा अस्पताल एम्स भी अपने हाथ खड़े कर चुका है. हालाँकि इस बीमारी से लड़ने और बच्चे को ज़िंदा रखने का एक ही तरीक़ा है और वो है 'एंज़ाईम रिप्लेसमेंट थेरपी' जो ब्रिटेन की 'शायर फ़र्मासुटिकल' नाम की कम्पनी बनाती है, जिसका ख़र्च पौने दो करोड़ रुपए सालाना है.

दरअसल शौर्य के शरीर में 'सलफ़ेटेज़' नाम के एंज़ाईम की कमी है जिसकी वजह से उसके शरीर के अंग धीरे-धीरे ख़राब हो रहे हैं, इस बीमारी को बढ़ने से रोकने के लिए 'एंज़ाईम रिप्लेसमेंट थेरपी' की ज़रूरत होती है लेकिन ये थेरपी इतनी महँगी है कि चाह कर भी बच्चे के परिजन उसको अफ़ॉर्ड नहीं कर सकते. डॉक्टरों के मुताबिक़ शौर्य ज़्यादा से ज़्यादा 15 साल की उम्र तक ज़िंदा रह सकता है, लेकिन ये जानते हुए भी शौर्य के माता-पिता अपने बच्चे को बचाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं.

शौर्य के पिता ने अपने बच्चे को बचाने के लिए केंद्रिय स्वास्थ्य मंत्री से लेकर पीएमओ और राष्ट्रपति तक को चिट्ठी लिख चुके हैं लेकिन अभी तक मदद का कोई भी हाथ शौर्य की तरफ़ नहीं बढ़ा है. शौर्य की माँ ने change.org पर ऑनलाइन पेटिशन डाली हुई है ताकि पीएम नरेंद्र मोदी तक ये बात पहुँच सके.



शौर्य के पिता सौरभ सिंह एक निजी फ़र्म में काम करते हैं और 40 हज़ार रुपए महीना कमाते हैं. उनका कहना है कि तमाम कोशिशों के बावजूद भी अभी तक सरकार की ओर से कोई मदद नहीं हुई है.

स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से तो यहाँ तक कह दिया गया कि 'रेयर डिज़ीज' की हमारी लिस्ट में यह बीमारी आती ही नहीं है. सौरभ ने बताया, 'दवा बनाने वाली कम्पनी ने कुछ साल पहले इस बीमारी से जूझ रहे कुछ चुनिंदा बच्चों को फ़्री में दवा उपलब्ध कराई थी लेकिन अब उसने भी मदद करने से इंकार कर दिया है.'

दरअसल शौर्य जब 3 साल का था तब उसकी बीमारी का पता चला था. उसकी हड्डियों में अकड़न आने और साँस फूलने की शिकायत के बाद परिवार ने उसे वेल्लोर के सीएमसी में दिखाया जहाँ इस बीमारी के बारे में पता चला. इसके बाद शौर्य को देश के सबसे बड़े अस्पताल एम्स में भर्ती कराया गया लेकिन यहाँ भी डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए. अब परिवार की आख़िरी उम्मीद केंद्र सरकार है, जहाँ से अभी तक मदद के नाम पर एक रुपया भी नहीं मिला है.