अयोध्या फैसले से असंतुष्ट पक्ष के पास अब क्या हैं कानूनी रास्ते, रिव्यू और क्यूरेटिव पिटीशन के नियम जानिए
किसी मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अगर कोई पक्ष असंतुष्ट रहता है, तो उसके पास पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का अधिकार है.
नई दिल्ली: अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर पहली पुनर्विचार याचिका दाखिल हो चुकी है. अभी कुछ और याचिकाओं के दाखिल होने की बात कही जा रही है. इस लेख में हम बात करेंगे कि 9 नवंबर के अयोध्या फैसले से असंतुष्ट पक्षकारों के पास इस समय कानूनी तौर पर क्या-क्या रास्ते उपलब्ध हैं और उनसे जुड़ी प्रक्रिया क्या है.
पुनर्विचार याचिका और उसके नियम
सब से पहले बात पुनर्विचार याचिका की. किसी मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अगर कोई पक्ष असंतुष्ट रहता है, तो उसके पास पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का अधिकार है. संविधान का अनुच्छेद 137 सुप्रीम कोर्ट को यह शक्ति देता है कि वह अपने ही फैसले की दोबारा समीक्षा कर सके. पुनर्विचार याचिका के नियमों के तहत इसे फैसला आने के 30 दिन के भीतर दाखिल करना होता है. इस याचिका में यह बताना होता है कि
- क्या कोर्ट के फैसले में कोई बुनियादी कमी है? तथ्यों के आधार पर सही निष्कर्ष नहीं निकाला गया.
- क्या कानून से जुड़े किसी अहम बिंदु की अनदेखी की गई या उसकी गलत व्याख्या की गई?
- क्या जो फैसला दिया गया वह अदालत के अधिकार क्षेत्र के बाहर था?
पुनर्विचार याचिका पर सीधे खुली अदालत में सुनवाई नहीं होती. इसे पहले मामले में फैसला देने वाले जजों के पास भेजा जाता है. यह जज एक साथ बैठकर फाइल का अध्ययन करते हैं और तय करते हैं कि क्या पूरे मामले पर या उसके किसी पहलू पर दोबारा सुनवाई की जरूरत है. अगर जज पुनर्विचार याचिका में उठाई गई किसी बात से सहमत होते हैं तो वह मामले को खुली अदालत में सुनवाई के लिए लगाने का निर्देश देते हैं. ऐसे में दूसरे पक्ष को भी नोटिस जारी करके बुलाया जाता है और दोनों के वकील फिर से जिरह करते हैं.
कम मामलों में ही बदलता है फैसला
यहां यह समझना जरूरी है कि पुनर्विचार याचिका के चलते बहुत कम मामलों पर दोबारा सुनवाई होती है. ज्यादातर पुनर्विचार याचिका चैंबर से ही खारिज कर दी जाती हैं. इसकी वजह यह होती है कि जजों को दोबारा सुनवाई के लिए तैयार होने से पहले ऐसा लगना चाहिए कि वाकई उनसे फैसला देते वक्त कोई कमी रह गई है. ज्यादातर मामलों में कोर्ट सुनवाई के दौरान पूरा समय देता है और बाद में हर दलील का जवाब देते हुए विस्तृत फैसला सुनाता है. ऐसे में फैसला देने वाले जजों को इस बात के लिए आश्वस्त कर पाना बड़ा कठिन होता है कि उनसे कोई ऐसी कमी रह गई जिसके चलते दोबारा सुनवाई जरूरी है.
कभी-कभी कुछ मामलों की अहमियत को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट खुली अदालत में दोबारा सुनवाई के लिए तैयार हो जाता है. लेकिन इसके बावजूद फैसले में बदलाव नहीं आता. उदाहरण के लिए राफेल लड़ाकू विमान खरीद मामले में प्रशांत भूषण, अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा की तरफ से दाखिल पुनर्विचार याचिका पर कोर्ट खुली अदालत में सुनवाई को तैयार हुआ, लेकिन अंतिम परिणाम वही रहा. कोर्ट ने पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज करते हुए सौदे की जांच से मना कर दिया.
हालांकि, कुछ मामलों में कोर्ट अपने आदेश में संशोधन भी करता है. जैसे 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी विज्ञापन में सिर्फ राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के फोटो के इस्तेमाल की इजाजत दी थी, लेकिन 2016 में राज्य सरकारों की पुनर्विचार याचिका के बाद राज्यपाल, मुख्यमंत्री और मंत्रियों की तस्वीरों के भी इस्तेमाल की इजाजत दे दी.
क्यूरेटिव याचिका की प्रक्रिया
पुनर्विचार याचिका यानी रिव्यू पिटीशन के खारिज हो जाने के बाद भी याचिकाकर्ता के पास एक मौका और रहता है. 2002 में रूपा हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा मामले के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने संशोधन याचिका यानी क्यूरेटिव पिटीशन की व्यवस्था दी. कोर्ट ने माना कि किसी मामले में रिव्यू पिटीशन के खारिज हो जाने के बाद भी उसकी इस आधार पर समीक्षा की गुंजाइश होनी चाहिए कि किसी पक्ष के साथ अन्याय ना हो जाए.
हालांकि कोर्ट ने फैसले में क्यूरेटिव पेटिशन के लिए और भी कड़ी शर्तें रखीं
इस तरह की याचिका बिना किसी वरिष्ठ वकील की अनुमति के दाखिल नहीं हो सकती. ऐसी याचिका में एक वरिष्ठ वकील का सर्टिफिकेट लगाना जरूरी है कि उनके विचार में मामले को एक बार फिर देखे जाने की जरूरत है. वरिष्ठ वकील वह वकील होते हैं जिनके लंबे कैरियर और बतौर वकील प्रदर्शन को देखते हुए खुद सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट उन्हें यह दर्जा देता है.
क्यूरेटिव पेटिशन में याचिकाकर्ता को यह बताना होता है कि क्या रिव्यू पिटीशन खारिज करते वक्त कोर्ट ने जो आदेश दिया उससे किसी पक्ष के साथ अन्याय हो रहा है.
तय नियम के मुताबिक क्यूरेटिव पिटीशन सुप्रीम कोर्ट के तीन वरिष्ठतम जजों के साथ मामले की पहले सुनवाई कर चुके जजों के पास भेजी जाती है. यह सभी जज बंद चैंबर में क्यूरेटिव पिटीशन की फाइल को देखते हैं और उस पर फैसला लेते हैं. अगर जज संशोधन की मांग के साथ दाखिल की गई इस याचिका पर दोबारा सुनवाई को जरूरी मानते हैं, तो खुली अदालत में सुनवाई हो सकती है.
क्यूरेटिव पिटीशन के खारिज होने की गुंजाइश और भी ज्यादा होती है क्योंकि इसमें याचिका करने वाले को 2-2 फैसलों में कमी का हवाला देना पड़ता है. मामले में सुनवाई के बाद आए मूल फैसले के साथ ही पुनर्विचार याचिका खारिज करने के फैसले में भी कमी बतानी होती है. ऐसा कर पाना बहुत मुश्किल होता है.
अयोध्या केस में क्या होगा
सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले पर 1045 पन्नों का विस्तृत फैसला दिया था. उस फैसले से पांचों जज सहमत थे. ऐसे में जो पुनर्विचार याचिका है दाखिल हो रही है, उस पर सुनवाई का फैसला लेते वक्त जज सबसे पहले यह देखेंगे कि क्या उन्होंने वाकई याचिका में उठाई गई कुछ बातों का जवाब नहीं दिया है? क्या कोई ऐसे बिंदु हैं जिन पर और स्पष्टता की जरूरत है?
मामले में पांचों जजों की तरफ से साझा फैसला पढ़ने वाले चीफ जस्टिस रंजन गोगोई अब रिटायर हो चुके हैं. ऐसे में उनकी जगह किसी दूसरे जज को शामिल करके पांच जजों का कोरम पूरा किया जाएगा. इस साल के लिए कोर्ट के तय कैलेंडर के मुताबिक 18 दिसंबर के बाद सर्दी की छुट्टियां शुरू हो जाएंगी. ऐसे में इस बात की उम्मीद कम है कि इसी महीने पुनर्विचार याचिकाओं को देखने के लिए बेंच बैठ पाएगी. गुंजाइश यही ज्यादा लगती है कि जनवरी में यह तय होगा कि क्या अयोध्या मामले पर दाखिल पुनर्विचार याचिकाओं की खुली अदालत में सुनवाई होगी या उन्हें चेंबर से खारिज कर दिया जाएगा.
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