नई दिल्ली: झारखंड में विपक्ष ने आदिवासी बनाम गैर आदिवासी मुद्दे का जमकर प्रचार किया. राज्य संगठन मांग करता रहा, लेकिन बीजेपी ने गैर आदिवासी चेहरे रघुवर दास को मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाया. महागठबंधन ने हेमंत सोरेन को प्रोजेक्ट किया. झारखंड के मुख्यमंत्री रहे रघुवर दास जमशेदपुर ईस्ट सीट पर 1995 से चुनाव जीत रहे थे. यानी पिछले 24 सालों से, लेकिन इस बार उनकी ये सीट निर्दलीय सरयू राय की आंधी में उड़ गई.


एक मुख्यमंत्री के 24 सालों के प्रभुत्व को एक निर्दलीय उम्मीदवार कुछ ही दिनों में ध्वस्त कर दे. तो ये राजनीतिक तौर पर कितनी बड़ी बात होगी. आज झारखंड में यही सबसे बड़ा उलटफेर हुआ है. बीजेपी की हार या कांग्रेस गठबंधन की जीत की समीक्षा तो होती रहेगी, लेकिन ये उलटफेर ऐसा है, जो अमूमन होता नहीं है. बीजेपी की इस हार की बात करेंगे. लेकिन बात जीत के चेहरे की.


रघुवर दास सरकार के छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट और संथाल परगना अधिनियम में संशोधन से आदिवासी समाज खुश नहीं था. रांची में विरोध प्रदर्शन के दौरान उनपर बल प्रयोग भी किया गया था. ये मुद्दा हेमंत सोरेन के लिए हथियार बन गया. बीजेपी राम मंदिर और नागरिकता कानून को कैश कराती रही, जबकि महागठबंधन जल-जंगल-जमीन की बात करता रहा. जेएमएम ने स्थानीय मुद्दों पर फोकस किया और बीजेपी नेशनल इश्यू पर वोट मांगती रही. साथ ही रघुवार दास ने बीजेपी के ही कई नेताओं को दरकिनार किया और उसका असर ये रहा कि झारखंड कांग्रेस-जेएमएम और आरजेडी गठबंधन के पास चला गया.


अगले 5 साल तक कांग्रेस और आरजेडी के दो पहियों के ऊपर बैठकर हेमंत सोरेन को झारखंड में ऐसे ही बैलेंस बनाकर चलना है. ये भी अपने आपमें इतिहास ही होगा कि 19 साल के छोटे से इतिहास में पांचवीं बार सोरेन परिवार के हाथों में सत्ता जाती दिख रही है.
हेमंत के पिता शिबु सोरेन 3 बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं और अब हेमंत सोरेन दूसरी बार झारखंड के मुख्यमंत्री बन रहे हैं.


झारखंड की सत्ता से बीजेपी को बेदखल करने के बाद हेमंत सोरेन ने कहा, "मेरे लिए आज का दिन संकल्प लेने का है. इस राज्य की जनता का, यहां के लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने का दिन है और आज का ये जनादेश शिबू सोरेन जी के समर्पण और परिश्रम का परिणाम है. जिस उद्देश्य के लिए ये राज्य लिया गया था, आज उन उद्देश्यों को पूरा करने का वक्त आ गया है."


हेमंत सोरेन की मेहनत का ही परिणाम था कि उन्होंने नरेन्द्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में चुनाव से पहले गठबंधन करके बीजेपी को हराने का करिश्मा किया. 2015 में महागठबंधन ने जो करिश्मा बिहार में किया था. वही, इस बार झारखंड में दोहराया गया. यही वजह है कि वो अकेले झारखंड में सबसे बड़ी पार्टी बने हैं. झारखंड में हर बार झारखंड मुक्ति मोर्चा की सीटें बढ़ीं हैं.


2005 में हुए चुनावों में जेएमएम को 17 सीटें मिलीं, फिर 2009 में 18 सीटें. 2014 में 19 सीटें और इस बार यानी 2019 में सीधे 30 सीटें मिलती दिख रही हैं. हेमंत सोरेन इस जीत का मतलब समझते हैं. इसीलिए वो अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस से ही सभी को साथ लेने की बात कर रहे हैं. उन्होंने कहा, "भरोसा दिलाता हूं कि उनकी उम्मीदें नहीं टूटेंगी, चाहें वो किसी भी वर्ग या समुदाय से हों. नौजवान, किसान, व्यापारी, मजदूर, बूढ़े बच्चे हों या पत्रकार मित्र क्यों ना हों?"


झारखंड की इस जीत में कांग्रेस के लिए भी काफी कुछ है. भले ही उसे सिर्फ 15 सीटें मिली हों. लेकिन गठबंधन की इस राजनीतिक का गोंद कांग्रेस पार्टी ही है. गठबंधन वाला ये प्रयोग पहले महाराष्ट्र में हुआ और फिर अब कांग्रेस का यही प्रयोग झारखंड में भी सफल रहा है. कांग्रेस ने ये समझ लिया है कि बीजेपी को हराने के लिए क्षेत्रीय दलों को साथ लेना ही होगा.


राजनीतिक विशेषज्ञ अरविंद मोहन कहते हैं, "गठबंधन पॉलिटिक्स हम लोग भूलने लगे थे. ये लग रहा था कि गठबंधन का दौर बीत गया. 3 दशक तक ये खूब चला, लेकिन अब ये लग रहा था कि एक पार्टी का राज चाहते हैं. लेकिन इससे भी
जो गलतियां शुरू हुईं, उससे लग रहा है कि गठबंधन ही मुल्क का मूल चरित्र है. गठबंधन की राजनीति ही देश में चलेगी."


विपक्ष का नेता रहते हुए हेमंत सोरेन ने रघुवर दास की सरकार के खिलाफ कई मोर्चों पर लड़ाई लड़ी. झारखंड मुक्ति मोर्चा को नए जमाने की पार्टी बनाया. राजनीति और पार्टी दोनों उन्हें विरासत में अपने पिता शिबू सोरेन से मिली, लेकिन जेएमएम पुराने तौर तरीकों की पार्टी थी. हेमंत सोरेन ने सोशल मीडिया पर भी पार्टी को सक्रिया किया. पार्टी के मीडिया से दूरी बनाए रखने की धारणा को भी तोड़ा. हेमंत सोरेन ने धुआंधार सभाएं कीं और अपने गठबंधन को जीत दिलाई.