नई दिल्ली: रोहिंग्या का शुमार दुनिया के सबसे ज्यादा सताए हुए अल्पसंख्यक समुदाय में होता है. ये जातीय (एथनिक) समूह है जो बौद्ध बहुसंख्यक म्यांमार में आबाद है. म्यांमार में इनकी सबसे ज्यादा आबादी रखाइन प्रांत में है. हालांकि, रखाइन के अलावा अन्य 7 इलाकों में भी रोहिंग्या मुसलमान आबाद हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत ही कम है. म्यांमार में इस वक़्त करीब 10 लाख रोहिंग्या मुसलमान हैं. बीते 70 साल से रोहिंग्या मुसलमान अपने ही वतन में जुल्म-व-सितम सहने के साथ ही अजनबी की तरह जीने को मजबूर हैं, क्योंकि उनके पास नागरिकता नहीं है. इसकी वजह ये है कि इनका शुमार म्यांमार के 135 आधिकारिक जातीय समूह में नहीं होता है.


क्यों नागरिकता नहीं है?


म्यांमार में 12वीं सदी से मुसलमान आबाद हैं, लेकिन रोहिंग्या का इतिहास शुरू होता है 190 साल पहले. 1824-1948 के बीच करीब 125 साल म्यांमार में ब्रिटिश हुकूमत रही. इस दौरान बड़ी संख्या में आज के भारत और बांग्लादेश से म्यांमार में मजदूर बुलाए गए. तब इस पलायन को अंदरूनी पलायन कहा गया, क्योंकि तब ब्रिटिश हुकूमत म्यांमार को भारत का एक हिस्सा मानती थी, हालांकि, इस पलायन से म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी नाराज़ थी.


जब 1948 में म्यांमार को आजादी मिली तो रोहिंग्या के लिए ये आज़ादी जुल्म की दास्तान के आगाज़ की शुरुआत बनी. आज़ादी के बाद म्यांमार की सरकार ने ब्रिटिश दौर के पलायन को गैर कानूनी माना और इस तरह रोहिंग्या को नागरिकता देने से इनकार कर दिया. आज़ादी के बाद म्यांमार ने यूनियन सिटिजनशिप एक्ट लाया, जिसमें उन जातीय समूहों की फेहरिस्त दी जिसे नागरिकता मिलेगी, लेकिन उसमें रोहिंग्या को शामिल नहीं किया गया. हालांकि, उस कानून के तहत जो परिवार बीते दो पीढ़ियों से म्यांमार में रह रहे थे, है उसे पहचान पत्र दिया गया. शुरू में उन्हें पहचान पत्र या नागरिकता भी मिली, संसद में भी चुने गए.


लेकिन 1982 से इनकी नागरिकता पूरी तरह से छीन ली गई है, जिसके बाद अब ये किसी देश के नागरिक नहीं हैं.


लेकिन 1982 में पूरी तरह से नागरिकता छीने जाने से पहले 1962 में म्यांमार में सैन्य तख्तापलट हुआ. तभी रोहिंग्या के लिए ज्यादा मुश्किलों की शुरुआत हुई. सभी नागरिकों के लिए नेशनल रजिस्ट्रेशन कार्ड लाजमी किया गया. तब रोहिंग्या को विदेशी पहचान पत्र दिया गया, शिक्षा और नौकरी के दरवाज़ करीब-करीब बंद कर दिए गए.


क्या था 1982 का सिटिजनशिप एक्ट?


इस एक्ट में एक बार फिर 135 जातीय समूहों में रोहिंग्या को जगह नहीं दी गई. सिटिजनशिप के तीन स्तर रखे गए, लेकिन सबसे कमतर स्तर के सिटिजनशिप में भी रोहिंग्या के लिए जगह बनानी मुश्किल रही. रोहिंग्या के लिए पढ़ना, नौकरी, आवाजाही, शादी, मनचाहा धर्म को मानना और स्वास्थ्य सेवाएं सीमित हो गईं.


रोहिंग्या का पलायन?


1948 में म्यांमार की आजादी मिलने के बाद भी रोहिंग्या अपने देश में आबाद रहे. उनके पलायन की शुरुआत 1970 के दशक में हुई. रखाइन में रोहिंग्या के खिलाफ कार्रवाई हुई, जिसके बाद बीते 40 साल से ज्यादा वक़्त में 10 लाख रोहिंग्या पलायन कर गए. तब रोहिंग्या पड़ोसी बांग्लादेश, मलेशिया और थाईलैंड की तरफ भागे.


जब म्यांमार से भाग रहे थे तो महिलाओं का रेप हुआ, अत्याचार हुए, घरों में आगज़नी हुई और कत्ल किए गए. 2012 से अब तक 1.68 लाख रोहिंग्या म्यांमार से भाग निकले हैं(ताज़ा पलायन छोड़कर). 2012-2015 के बीच 1.2 लाख रोहिंग्या जान हथेली पर रखकर नावों से बंगाल की खाड़ी और अंडमान द्वीपसमूह पार कर मलेशिया पहुंचे. सिर्फ इस साल के 25 अगस्त से अब तक म्यांमार से 4.10 लाख रोहिंग्या पलायन को मजबूर हुए हैं. भगाने के दौरान नाफ नदी में 46 लोगों की मौत हो गई. अब तक पलायन के दौरान 1000 जानें जा चुकी हैं.


1970 से कहां-कहां पलायन हुआ?


1970 से अब तक 10 लाख रोहिंग्या मुसलमानों का पलायन हुआ. बांग्लादेश में 6.25 लाख, पाकिस्तान में 3.5 लाख, सउदी अरब में 2 लाख, मलेशिया में 1.5 लाख, भारत में 40 हज़ार, यूएई में 10 हज़ार, थाईलैंड में 5 हज़ार और इंडोनेशिया में 1 हज़ार लोगों का पलायन हुआ.


दुनिया की क्या प्रतिक्रिया है?


दक्षिण अफ्रीकी समाजसेवी, केप टाउन के आर्चबिशप और नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित डेसमंड टूटू ने आन सान सू ची को चिट्ठी लिखी. मलाला यूसुफज़ई ने भी सू ची से जुल्म के खिलाफ खड़े होने की अपील की. एरीजोना के सीनेटर जॉन मैककाइन ने शांति की अपील की.


भारत में कितने हैं रोहिंग्या?


भारत में 40 हज़ार रोहिंग्या मुसलमान हैं. जिनमें 14 हज़ार रोहिंग्या UNHCR के कार्ड धारक हैं. भारत सरकार ने उन्हें वापस भेजने की बात कही है. अभी मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.