आज देश 74वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है. इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले पर तिरंगा फहराया. प्रधानमंत्री जनता को संबोधित कर रहे हैं. पीएम ने कहा कि गुलामी का कोई कालखंड ऐसा नहीं था जब हिंदुस्तान में किसी कोने में आजादी के लिए प्रयास नहीं हुआ हो, प्राण-अर्पण नहीं हुआ हो अपने संबोधन में उन्होंने सर अरविन्द घोष का नाम लिया. तो आइए जानते हैं अरविन्द घोष के बारे में....


स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए छोड़ दिया  सिविल सेवा में जाने का सपना


क्रांतिकारी महर्षि अरविन्द घोष का जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता में हुआ था. अरविंद के पिता का नाम केडी घोष और माता का नाम स्वमलता था. अरविन्द घोष ने दार्जिलिंग के लोरेटो कान्वेंट स्कूल से अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की. दो साल के बाद 1879 में अरविन्द घोष उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए. लंदन के सेंट पॉल उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की. उसके बाद उन्होंने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में प्रवेश ले लिया. इस दौरान उन्होंने आईसीएस के लिए तैयारी की और  सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण की. हालांकि उन्होंने घुड़सवारी की परीक्षा देने से इनकार कर दिया औक इसी काऱण वो सिविल सेवा में नहीं आ सके.


ब्रिटिश कानून के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की और कई लेख लिखे


सिविल सर्विस की शिक्षा के बाद वो भारत आ गए और कई सिविल सर्विस से संबंधित काम किए. इसके बाद उन्होंने राजनीति में कदम रखा. इस दौरान उन्होंने ब्रिटिश कानून के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की और कई लेख लिखे. इस विरोध के लिए उन्हें जेल तक जाना पड़ा पर उन्होंने अपना काम जारी रखा. हालांकि बाद में वो रिहा कर दिए गए.


देश की आध्यात्मिक क्रां‍ति की पहली चिंगारी थे अरविन्द घोष


अरविन्द घोष एक प्रभावशाली वंश से ताल्लुक रखते थे. बचपन से ही दिल में देश को रखने वाले घोष ने युवा अवस्था में स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारी के रूप में भाग लिया. बंगाल के महान क्रांतिकारियों में से एक महर्षि अरविन्द देश की आध्यात्मिक क्रां‍ति की पहली चिंगारी थे. उन्हीं के आह्वान पर हजारों बंगाली युवकों ने देश की स्वतंत्रता के लिए हंसते-हंसते जान दे दी थी. सशस्त्र क्रांति के लिए उनकी प्रेरणा को आज भी याद किया जाता है.


1902 में अहमदाबाद के कांग्रेस सत्र में अरविन्द की मुलाकात बाल गंगाधऱ तिलक से हुई. उनके अद्भुत और क्रांतिकारी व्यक्तित्व से प्रभावित अरविन्द ने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ने की ठान ली. 1916 में उन्होंने दोबारा कांग्रेस का रुख किया और ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये लाला लाजपत राय और बिपिन चन्द्र पाल के साथ जुड़ गए.


अपने कारावास के समय उन्होंने पांडिचेरी में एक आश्रम स्थापित किया और वेद, उपनिषद ग्रन्थों आदि पर टीकाएं लिखीं. वो श्री अरविन्द आश्रम ऑरोविले के संस्थापक थे वो योगी और महर्षि भी कहलाए. उनके लिखे लेखों ने लोगों को स्वराज, विदेशी सामानों के बहिष्कार और स्वतंत्रता पाने के तरीके तक सुझाए. पुडुचेरी में 1950 में 5 दिसंबर को उनका निधन हो गया.


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