नौकरशाह परिवार से ताल्लुक रखने वाले विदेश मंत्री एस जयशंकर के पिता के सुब्रमण्यम एक बार फिर से खबरों में हैं. वजह है विदेश मंत्री एस जयशंकर का एक इंटरव्यू. इस इंटरव्यू में जयशंकर ने कहा कि मेरे पिता के सुब्रह्मण्यम को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने केंद्रीय सचिव के पद से हटा दिया था.
विदेश मंत्री ने खुद इस बात का जिक्र न्यूज एजेंसी एएनआई को दिए एक इंटरव्यू में किया है. एस जयशंकर ने इंटरव्यू में ये भी कहा कि राजीव गांधी के कार्यकाल में उन्हें बाहर रखा गया.
विदेश मंत्री के पिता, के सुब्रमण्यम एक आईएएस अधिकारी थे. के सुब्रमण्यम को भारत के सबसे प्रतिष्ठित रणनीतिक विचारकों में से एक माना जाता है. के सुब्रमण्यम पर उस दौर के सभी प्रधानमंत्रियों ने विश्वास जताया था.
इंदिरा गांधी पर क्या बोले एस जयशंकर
एएनआई को दिए अपने इंटरव्यू में जय शंकर ने कहा कि "मैं सर्वश्रेष्ठ विदेश सेवा अधिकारी बनना चाहता था. मेरे पिता जो एक नौकरशाह थे वो सचिव बन गए. हांलाकि बाद में मेरे पिता को सचिव के पद से हटा दिया गया. साल 1979 में जनता सरकार थी मेरे पिता उस समय के सबसे कम उम्र के सचिव बने थे. भारतीय विदेश सेवा (Indian foreign service) से राजनीति तक के अपने सफर पर बात करते हुए जयशंकर ने कहा कि वह हमेशा सर्वश्रेष्ठ अधिकारी बनने और विदेश सचिव के पद पर पहुंचने के इच्छुक थे.
राजीव गांधी ने की थी के सुब्रह्मण्यम की अनदेखी
जयशंकर ने कहा कि साल 1980 में पिता डॉ. के सुब्रह्मण्यम को तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने रक्षा उत्पादन सचिव पद से हटा दिया था . राजीव गांधी के प्रधानमंत्री के तौर पर कार्यकाल के दौरान उनके पिता की अनदेखी की गई, और किसी जूनियर को कैबिनेट सेक्रेटरी बना दिया गया था. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि उनके पिता बहुत ईमानदार व्यक्ति थे और हो सकता है कि इसी वजह से परेशानी हुई हो. आइये जानते हैं के सुब्रह्मण्यम के सफर और एक नौकरशाह के रूप में सुब्रह्मण्यम के रोल बारे में.
के सुब्रह्मण्यम के एक लेक्चर की वजह से मचा था हंगामा
सन 1960 का दशक का था. लंदन के इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटेजिक स्टडीज में एक सेमिनार के दौरान भारत का एक युवा विजिटिंग स्कॉलर खड़ा होता है, और अपना लेक्चर शुरू करता है. टॉपिक था हिरोशिमा से वियतनाम तक पश्चिमी देशों की भागीदारी. लेक्चर शुरू हुआ और खत्म होते-होते हंगामा भी शुरू हो गया. इस लेक्चर के बाद उस यंग विजिटिंग स्कॉलर को दोबारा इन्वाइट नहीं किया गया. यह स्कॉलर था के सुब्रह्मण्यम.
आगे चल कर यही नौजवान आईडीएसए के निदेशक बने
लगभग दो दशक बाद की बात है साल था 1984. अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक प्रोफेसर केनेथ वाल्ट्ज ने परमाणु कार्यक्रम के लिए भारत के अधिकार का समर्थन करने के लिए रक्षा अध्ययन और विश्लेषण संस्थान (आईडीएसए) का दौरा किया. जिस लड़के ने उनकी मेजबानी की वो लंदन में अपने लेक्चर के बाद दोबारा कभी इन्विटेशन नहीं पाने वाला नौजवान लड़का था. जो अब आईडीएसए के निदेशक थे.
सिविल सेवा एग्जाम में फर्स्ट रैंक लाने वाले सुब्रह्मण्यम
तमिलनाडु के रहने वाले कृष्णास्वामी सुब्रह्मण्यम तिरुचिरापल्ली और मद्रास में पले-बढ़े थे. अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय से रसायन विज्ञान में बीएससी और एमएससी किया. 1951 में, के सुब्रह्मण्यम भारतीय सिविल सेवा परीक्षा में बैठे, और पहली रैंक हासिल की. के सुब्रह्मण्यम को भारतीय प्रशासनिक सेवा में नियुक्त किया गया. वह केंद्र सरकार में कई संवेदनशील पदों पर रहे, जिनमें संयुक्त खुफिया समिति का अध्यक्ष पद भी शामिल है.
उन्होंने इमरजेंसी के दौरान तमिलनाडु के गृह सचिव के रूप में भी अपनी सेवाएं दी. ये वो समय था जब सरकार कई नौकरशाहों को उनके पद से निलंबित कर रही थी. के सुब्रह्मण्यम ने पूरी ईमानदारी के साथ पूरे 15 साल तक शानदार सेवा दी. उन्हें 1996 में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में रणनीतिक अध्ययन में रॉकफेलर फेलो नियुक्त किया गया था.
पद्म भूषण सम्मान को लेने से किया मना
साल 1999 में अटल जी की सरकार के वक्त सुब्रमण्यम को पद्म भूषण के सम्मान से सम्मानित करने का ऐलान किया गया. तब उन्होंने इस सम्मान को यह कहकर लेने से मना कर दिया कि नौकरशाहों और जर्नलिस्ट को सरकारी अवॉर्ड्स नहीं लेने चाहिए. तब सुब्रमण्यम खूब चर्चा में आए थे.
हालांकि, के सुब्रह्मण्यम को भारत के पहले और सबसे महत्वपूर्ण रक्षा नीति थिंक टैंक, इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस यानी आईडीएसए के निर्माण के लिए याद किया जाता है.
सभी प्रधानमंत्री सुब्रह्मण्यम के काम के कायल थे
1966 में के सुब्रह्मण्यम को आईडीएसए का निदेशक नियुक्त किया गया. उन्होंने 1966 से 1975 तक और फिर 1980 से 1989 तक इस पद को संभाला. सुब्रह्मण्यम ने संस्थान को भारत के प्रमुख थिंक-टैंक के रूप में उभरने में मदद की.
इस दौरान, सुब्रह्मण्यम ने न केवल भारत के सभी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ मिलकर काम किया, साथ ही होमी भाभा, राजा रमन्ना, विक्रम साराभाई और भारत के परमाणु और मिसाइल कार्यक्रम के सभी अग्रदूतों के साथ भी काम किया.
भारत-पाक युद्ध में सुब्रह्मण्यमने की थी कई जांच आयोगों की अध्यक्षता
सुब्रह्मण्यम ने कई सरकारी समितियों और जांच आयोगों की अध्यक्षता की. जिनमें से एक 1971 के भारत-पाक युद्ध पर था. उन्होंने 'वैश्विक रणनीतिक विकास' (Global Strategic Developments) पर एक टास्क फोर्स की भी अध्यक्षता की, जिसने बाद भारत-अमेरिका सिविल परमाणु के लिए रणनीतिक ढांचा तैयार किया गया.
भारत की विदेश और सुरक्षा नीतियों को पूरी दुनिया के सामने लाने वाले सुब्रह्मण्यम
सुब्रह्मण्यम सिर्फ एक विचारक, एक शोधकर्ता और एक दूरदर्शी नहीं थे, उन्होंने ही इंडियन स्ट्रेटेजिक पॉलिसी की नींव गहरी की. इस तरह सुब्रह्मण्यम ने ताकतवर देशों से घिरी दुनिया में भारत की विदेश और सुरक्षा नीतियों को सबके सामने रखा.
भारत का परमाणु सिद्धांत मसौदा सुब्रह्मण्यम की ही देन
1974 और 1986 के बीच, सुब्रह्मण्यम ने कई संयुक्त राष्ट्र समितियों और अंतरराष्ट्रीय अध्ययन समूहों में काम किया. इसी दौरान सुब्रह्मण्यम ने हिंद महासागर में क्षेत्रीय सहयोग, परमाणु के इस्तेमाल और वैश्विक सुरक्षा खतरों जैसे मुद्दों काम किया. बता दें कि ये वो दौर जब परमाणु हथियार जैसा मुद्दा भारत के लिए सबसे गंभीर था. सुब्रह्मण्यम की देखरेख और उनकी एक्सपरटीज की बदौलत ही बोर्ड ने भारत के परमाणु सिद्धांत का मसौदा तैयार किया था. नो फर्स्ट यूज पॉलिसी के सुब्रह्मण्यम की ही देन है. जो अब भी देश के परमाणु शस्त्रागार के इस्तेमाल और तैनाती से जुड़ी सभी नीतिगत पहलुओं को नियंत्रित करता है.
सुब्रह्मण्यम ने ही की थी सीडीएस गठन की मांग
1999 में, के सुब्रह्मण्यम को कारगिल समीक्षा पैनल का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. तब के सुब्रह्मण्यम ने भारत के रक्षा, खुफिया और सुरक्षा तंत्र में व्यापक सुधार की सिफारिश की. तभी पाकिस्तान के साथ युद्ध के बाद सरकार ने भारत के रक्षा, और सुरक्षा तंत्र में विस्तार किया.
समिति ने भारतीय खुफिया सेवाओं की संरचना में बदलाव किया. चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) के गठन की सिफारिश की. इसे आखिरकार नरेंद्र मोदी सरकार ने दिसंबर 2019 में अपनाया, जिसमें पूर्व सेना प्रमुख दिवंगत जनरल बिपिन रावत पहले सीडीएस बने.
सुब्रमण्यम ने प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) के पदों के विलय के फैसले की कड़ी आलोचना की थी. तब देश में वाजपेयी सरकार थी. 2004 में मनमोहन सिंह की सरकार ने दोनों पदों को विभाजित कर दिया.
यही वजह है कि एक सिविल सेवक और सामरिक मामलों के विशेषज्ञ के अलावा सुब्रह्मण्यम को कारगिल युद्ध समीक्षा समिति की अध्यक्षता करने और भारत की परमाणु प्रतिरोध नीति के समर्थन के लिए जाना जाता है.
प्रधानमंत्री से लेकर उपराष्ट्रपति तक कर चुके हैं सुब्रह्मण्यम की तारीफ
2011 में सुब्रह्मण्यम के निधन के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि सुब्रह्मण्यम ने भारत की रक्षा, सुरक्षा और विदेश नीतियों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिए हैं. जिन्हें पूरा देश कभी नहीं भूलेगा. तत्कालीन प्रधानमंत्री ने कहा था कि 'सरकार के बाहर आम जनता के बीच उनका काम शायद और भी प्रभावशाली है . तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी भी सुब्रह्मण्यम को "भारत के रणनीतिक मामलों का अग्रदूत" बता चुके हैं.
अखबारों और किताबों के जरिए शेयर किए विचार
सरकारी सेवा से रिटायर होने के बाद, सुब्रमण्यम ने टाइम्स ऑफ इंडिया, ट्रिब्यून और बिजनेस स्टैंडर्ड जैसे कई न्यूजपेपर में रणनीतिक मामलों पर नियमित कॉलम लिखना जारी रखा. दिलचस्प बात यह है कि सुब्रह्मण्यम ने 1998 में जब भारत ने 'शक्ति' परमाणु परीक्षण किया था, तब सुब्रह्मण्यम द टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय बोर्ड में थे और अखबार ने हथियार परीक्षणों की निंदा करते हुए उनकी कुछ आर्टिकल को रोक दिया था. हांलाकि बाद में इसे छापा भी गया.
सुब्रह्मण्यम ने भारतीय रणनीतिक विचारों पर कई किताबें और रिपोर्ट भी लिखीं . उनके सभी विचारों को पढ़ कर यही लगता है कि वो भारत की स्ट्रेटेजिक ऑटोनॉमी को बढ़ाना चाहते थे. उनके लिए गुटनिरपेक्षता एक रणनीति थी, विचारधारा नहीं, और इसका मतलब ये था कि वे भारत के सामने आने वाली अंतरराष्ट्रीय स्थिति में बदलावों का चतुराई से जवाब देना चाहते थे, और वो दूसरे अधिकारियों से भी ऐसी उम्मीद करते थे.
2005 में आईडीएसए की स्थापना की 40 वीं वर्षगांठ पर तत्कालीन प्रधान मंत्री ने सुब्रह्मण्यम की उपलब्धियों की प्रशंसा की . तब तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि "सुब्रमण्यम जैसे रणनीतिकार की जरूरत हमेशा रहेगी. पूरे भारत को सुब्रह्मण्यम जैसे दिग्गज की जरूरत हमेशा -हमेशा रहेगी. 2011 में सुब्रह्मण्यम की मृत्यू कैंसर की वजह से हुई.