दोस्ती का दिखावा कर कैसे किसी को धोखा दिया जा सकता है इसकी बेहतरीन मिसाल भारत का पड़ोसी देश चीन है. बार-बार वो कहता रहा है कि भारत के साथ संबंधों को मजबूत करने के लिए वो हमेशा तैयार रहा है और उसकी कोशिशें जारी हैं, लेकिन वास्तव में जमीनी तौर पर उसका ये दावा हमेशा हवाई ही साबित हुआ है.
एक बार फिर चीन ने कहा है कि वो दोनों देशों के बीच रिश्तों की मजबूती और स्थिरता के लिए काम करने के लिए सहमत है. ऐसे में सवाल ये उठता है कि धोखेबाज चीन के इस दावे पर यकीन कैसे किया जाए जो दिसंबर के दूसरे हफ्ते में ही तवांग को लेकर अपनी नापाक मंशा जाहिर कर चुका है. भारत शायद उस पर भरोसा करने से पहले हिंदी-चीनी भाई-भाई का वो दौर याद रखेगा.
चीनी विदेश मंत्री ने फिर किया दिखावा
चीन के विदेश मंत्री का 25 दिसंबर को ही भारत और चीन के संबंधों को लेकर एक बयान आया है. चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने कहा, "हम चीन और भारत के रिश्तों को स्थायी और मजबूत करने के लिए भारत के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं और इस ओर दोनों देशों ने कूटनीतिक और सैन्य माध्यमों से बातचीत जारी रखी है. चीन सीमावर्ती इलाकों में स्थिरता के लिए प्रतिबद्ध हैं."
ये बयान तब आया है जब भारत के अरुणाचल प्रदेश के तवांग में भारतीय जवानों और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के सैनिकों के बीच झड़प हुए महज कुछ दिन बीते हैं. शायद चीन ने वैश्विक कूटनीति को ध्यान में रखकर दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों को लेकर बयान दिया है. चीन इतना भोला भी नहीं है कि वो इस मामले पर खुद से ही बयान जारी कर डाले.
दरअसल ये बयान चीन और भारत के 20 दिसंबर को 17 वीं कमांडर लेवल की बातचीत और पश्चिमी इलाके में सुरक्षा और स्थिरता बनाने की सहमति के बाद आया है. उधर भारतीय विदेश मंत्रालय का कहना है कि तवांग के साथ ही अब लद्दाख पर भी भारत और चीन के बीच हाई लेवल की कमांडर बैठक चुशुल मोल्डो हुई. दोनों तरफ से पश्चिमी इलाके में अमन-चैन कायम रखने की सहमति बनी.
हालांकि ये कहना अभी जल्दबाजी होगा कि चीन इस पर कितना अमल कर पाता है क्योंकि जून 2020 में लद्दाख की गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों बीच भयंकर मुठभेड़ हुई थी और उसके बाद भी ऐसे ही दावे किए गए थे, लेकिन ढाई साल ही बीता होगा कि चीन फिर 9 दिसंबर को तवांग में वादाखिलाफी पर उतर आया.
दो साल पहले का ड्रैगन का नापाक इरादा
पूर्वी लद्दाख का इलाके में 12 इलाके ऐसे हैं जिन पर चीन और भारत में विवाद बना रहता है. इस इलाके में 2020 का स्टैंड-ऑफ यानी गतिरोध चीन से भारत के लिए एक इशारा था कि अगर वो "विवादित इलाके" में बुनियादी ढांचे के निर्माण को जारी रखना चाहता है तो हालात कैसे बदल सकते हैं. दरअसल पूर्वी लद्दाख का पैंगोंग झील का इलाका दोनों देशों के बीच तनाव की असली वजह है.
ये झील हिमालय में करीब 14 हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर है. मसला इस झील के इलाके को लेकर है. पैंगोंग झील का 45 किलोमीटर का इलाका भारत में पड़ता है तो 90 किलोमीटर का इलाका चीन के दायरे में आता है और वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) इस झील के बीच से होकर गुजरती है. दोनों देश एलएसी को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित करते हैं. चीन हमेशा से ही अपनी तरफ से सड़क और पुल बनाने में लगा रहता है और भारत इसकी मुखालफत करता रहा है.
हालांकि भारत भी अपनी तरफ के इलाके में निर्माण के काम करता रहता है. इस झील के पास पड़ने वाला चुशलू इलाका रणनीतिक अहमियत रखता है. इसका इस्तेमाल युद्ध के हालातों में लॉन्च पैड की तरह किया जा सकता है. भारत- चीन के 1962 की जंग में चुशूल के रेजांग दर्रे में ही दोनों देशों की सेनाओं के बीच मुकाबला हुआ था.
15 जून 2020 में पूर्वी लद्दाख में गलवान घाटी के नजदीक दोनों देशों की सेनाओं में हिंसक झड़प हुई..तब भारतीय सैन्य अधिकारी समेत 20 जवान शहीद हुए थे. चीन के भी बहुत सैनिक मारे गए थे. ये झड़प बीते 6 दशक में दोनों देशों के बीच सीमा पर सबसे बड़ी झड़पों में एक मानी गई. इस इलाके में तनातनी कम करने के लिए चीन-भारत 15 दौर की बातचीत कर चुके हैं, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा है.
अब भी मसला पूरी तरह शांत नहीं हुआ है. मौके की नजाकत को देखते हुए एलएसी पर अभी भी दोनों देशों के 50 से 60 हजार सैनिक मौजूद हैं. गलवान घाटी चीन के दक्षिणी शिनजियांग और भारत के लद्दाख तक फैली है. ये अक्साई चिन में पड़ती है. सैन्य दृष्टि से भारत के लिए अहम है. भारत और चीन के बीच हुई 60 साल पहले की जंग का केंद्र भी यही रहा था.
चीन यहां हमेशा निर्माण करने की कोशिश में रहता है और भारत इसे इसलिए अवैध मानता है क्योंकि दोनों देशों के बीच एलएसी के नजदीक निर्माण कार्य न किए जाने को लेकर करार हुआ है. दिसंबर 2022 की शुरुआत में अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर में यांग्त्से क्षेत्र में भारतीय सेना और चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के सैनिकों के बीच हाल ही में हुई झड़प भी गलवान झड़प से मेल खाती है.
चीन का भारत के साथ ये सीमा विवाद आज का नहीं बल्कि भारत की आजादी के बाद से ही चला आ रहा है. विशेषज्ञों का मानना है कि यही वजह है कि चीन वैश्विक मंच पर भारत को जगह देने की राह में रोड़े अटकाता रहा है और वो ये जारी रखेगा.
चीन ने किया शिमला समझौते को मानने से इनकार
भारत में अंग्रेजों के शासन के वक्त भारत और तिब्बत के बीच कोई हद तय नहीं थी, लेकिन 1906 ब्रिटिश सरकार ने भारत और तिब्बत सीमा को बताने वाला नक्शा बनाया और साल 1914 भारत और तिब्बत के बीच सीमा रेखा को लेकर शिमला समझौते पर साइन हुए. हालांकि चीन ने इस पर साइन नहीं किए और इसे मानने से इनकार कर दिया वो तिब्बत को अपना हिस्सा मानता था.
ब्रिटिश सरकार ने 1929 में नोट लगाकर शिमला समझौते को वैध करार दिया. साल 1935 में अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारी ओलफ केरो के कहने पर ब्रिटिश सरकार ने आधिकारिक तौर पर 1937 में मैकमोहन लाइन को दिखाता हुआ नक्शा जारी किया. उसने 1938 में चीन को शिमला समझौते को लागू करने को कहा. चीन ने इसे मानने से मना कर दिया.
1947 में आजादी मिलने पर भारत ने मैकमोहन रेखा पर अपनी सीमा तय कर तवांग इलाके (1950-51) पर अपना आधिकारिक दावा किया था. साल 1947 में तिब्बती सरकार ने मैकमोहन रेखा के दक्षिण में तिब्बती जिलों पर दावा किया और भारत सरकार को आधिकारिक नोट लिखा, लेकिन इसी वक्त चीन में 1949 में सत्ता पर काबिज हुई कम्युनिस्ट पार्टी ने तिब्बत को आजाद कराने की घोषणा की थी. गौरतलब है कि गैर साम्यवादी देशों में भारत ही एक ऐसा देश था जिसने चीन की इस नई सरकार को मान्यता दी थी. बावजूद इसके चीन भारत का कभी अपना नहीं हो पाया.
चीन के पहले प्रधानमंत्री झ़ोउ एनलाई जून 1954 में भारत के दौरे पर आए थे. इसके बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी चीन के दौरे पर गए थे. इसी साल दोनों के बीच शांतिपूर्ण सह अस्तित्व पंचशील सिद्धांत पर समझौता हुआ. इसी में भारत ने तिब्बत पर चीन के हक को आधिकारिक मान्यता दी थी. इसके बाद 'हिंदी चीनी भाई- भाई' का नारा गूंजा था और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी इस नारे का मान किया.
तब भारत-चीन के अच्छे रिश्तों को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने चीन के सामने इस समझौता को लेकर एक शर्त भी रखी थी. इसके तहत चीन के सीमा विवाद को बढ़ावा देने पर उससे किसी भी तरह की बातचीत नहीं की जाने की बात कही गई थी.
यही वो साल था जब भारत ने 1954 में विवादित इलाके का नाम बदलकर नॉर्थ ईस्ट फ़्रण्टियर एजेंसी (नेफा) कर दिया गया था. इसका मतलब भारत के तवांग सहित पूर्वोत्तर सीमांत क्षेत्र और बाहरी तिब्बत के बीच सीमा को मान्यता देना था. तब अरुणाचल प्रदेश अस्तित्व में नहीं आया था और 1972 तक ये नेफा ही कहा जाता था. भारत ने नेफा को 20 जनवरी 1972 को अरुणाचल प्रदेश नाम देकर केंद्र शासित प्रदेश बनाया. 15 साल बाद 1987 इसे पूर्ण राज्य दर्जा दिया गया.
हालांकि भारत और चीन के बीच रिश्तों में खटास 23 मई 1951 में तिब्बत पर कब्जा करने के बाद ही शुरू हो गई थी. चीन के दबाव में आकर तिब्बत ने उसकी बात मान ली थी. चीन तिब्बत को आजाद कराने की बात करता था और भारत उसे आधिकारिक तौर एक आजाद देश का दर्जा देता था. इसी के बाद भारत और चीन के बीच सीमा को लेकर विवाद और 1962 में हुई जंग के बीज पनपे थे.
चीन ने तार-तार किया हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा
साल 1961 में ही चीन के सीमा पर तेवर बदलने लगे थे. चीन की साजिशों का सीमा पर अंत नहीं था. अप्रैल 1962 में एक दिन ऐसा भी आया जब चीन ने भारत से अग्रिम चौकियों से सैनिकों को हटाने का फरमान जारी किया. भारत ने इसका जबरदस्त जवाब दिया और यहां अपनी फौजी टुकड़ियां भेजी. चीन ने अपने नापाक इरादों को अमल में लाना शुरू किया और 10 जुलाई 1962 को 350 चीनी सैनिकों ने भारत की चुशुल चौकी पर कब्जा किया.
19 अक्टूबर 1962 को चीनी सेना ने सुबह-सुबह भारी गोलाबारी की और 20 अक्टूबर को जंग की शुरुआत कर डाली. लद्दाख में चीन की पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी ने में हमला बोल दिया ये चीन ने भारत से दोस्ती की आड़ में ये धोखा किया था. जबकि 1962 के सितंबर महीने में दोनों देश अपनी-अपनी सीमाओं पर 20-20 किलोमीटर वापस लेने के प्रस्ताव पर राजी हुए थे.
चीन ने इसका मान नहीं रखा और दूसरे महीने अक्टूबर में ही नेफा में मैकमोहन लाइन कर डाली. चीनी सेना ने यहां बनी भारतीय सेना की चौकियों को अपना निशाना बनाया. लद्दाख में चीन ने हमला किया था. चीन ने बेशर्मी दिखाते हुए हमले के तुरंत बाद तीन सूत्रीय संघर्ष विराम की पेशकश भारत से की थी, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसे ठुकरा दिया.
साल 1962 नवंबर में चीन फिर से पूर्वी और पश्चिमी इलाके में अपनी नापाक हरकतों पर उतर आया और भारतीय इलाके बोमडिला (अब अरुणाचल प्रदेश ) तक बढ़ आया. इस दौरान अरुणाचल प्रदेश के आधे से भी अधिक हिस्से पर चीनी पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने अस्थायी तौर से कब्जा जमा लिया था.
हालांकि 21 नवंबर 1962 को चीन ने एकतरफा युद्ध विराम का ऐलान किया था, लेकिन एक महीने तक चली इस जंग के लिए भारत तैयार नहीं था. चीन के 80 हजार जवानों के मुकाबले उसके पास केवल 10 से 20 हजार जवान ही थे. भारत को इसमें जान-माल का खासा नुकसान झेलना पड़ा था.
इस दौरान भारत-चीन के बीच के सीमा विवाद को सुलझाने के लिए कुछ एशियाई और अफ्रीकी देशों ने पहल की थी. इनमें श्रीलंका, बर्मा (म्यांमार), कंबोडिया. इंडोनेशिया, घाना और संयुक्त अरब गणराज्य शामिल थे. कोलंबों में 10 से 12 दिसंबर 1962 में कोलंबो सम्मेलन में एक प्रस्ताव दिया. इसे कोलंबो प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है. भारत ने इस प्रस्ताव को माना, लेकिन चीन यहां फिर से धोखे पर उतर आया. उसने इस प्रस्ताव को खारिज करते हुए लद्दाख के इलाके में 7 चीनी सैन्य चौकियां बनाई और सेना का विस्तार जारी रखा.