Lateral Entry Scheme: लेटरल एंट्री से कैसे होती है नियुक्ति, क्यों मोदी सरकार की इस पॉलिसी का हो रहा विरोध? यहां समझिए
Lateral Entry Controversy: लेटरल एंट्री को लेकर विपक्ष का कहना है कि इसके जरिए लोगों को आरक्षण से वंचित किया जा रहा है. इस मुद्दे को लेकर काफी ज्यादा हंगामा भी मचा हुआ है.
Lateral Entry News: कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सोमवार (19 अगस्त) को कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार लेटरल एंट्री के जरिए बहुजनों का आरक्षण छीनने की कोशिश कर रही है. उन्होंने ये भी आरोप लगाया कि लेटरल एंट्री दलित, ओबीसी और आदिवासी समाज पर हमला है. संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के जरिए विभिन्न मंत्रालयों में 45 पदों पर लेटरल एंट्री से नियुक्ति का विज्ञापन निकालने के बाद से ही विपक्षी दलों ने सरकार पर निशाना साधा है.
यूपीएसपी ज्वाइंट सेक्रेटरी, डायरेक्टर्स/डिप्टी सेक्रेटरी के कुल मिलाकर 45 पदों पर लेटरल एंट्री से भर्ती करना चाहता है. इन पदों पर नियुक्ति कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर होगी और प्राइवेट सेक्टर के लोगों के पास भी सरकार के साथ काम करने का मौका होगा. हालांकि, कांग्रेस, बीएसपी और समाजवादी पार्टी जैसे दलों ने इस स्कीम पर सवाल उठाया है. अब ऐसे में ये समझने की कोशिश करते हैं आखिर लेटरल एंट्री को लेकर विवाद क्यों हो रहा है और इसकी शुरुआत कैसे हुई थी.
कैसे हुई लेटरल एंट्री की शुरुआत?
पीटीआई के मुताबिक, 1966 में मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में देश में पहले 'प्रशासनिक सुधार आयोग' का गठन किया गया. इसने प्रशासनिक सेवाओं में सुधार की वकालत की. मोरारजी देसाई ने इस बात पर जोर दिया कि सिविल सेवाओं में विशेष स्किल वाले लोगों की जरूरत है. वह मार्च 1977 और जुलाई 1979 के बीच देश के प्रधानमंत्री भी रहे थे. हालांकि, जब मोरारजी ने स्किल वाले लोगों की जरूरत पर जोर दिया था, उस समय लेटरल एंट्री जैसी कोई बात नहीं कही गई थी.
हालांकि, फिर चार दशक बाद कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए की सरकार में लेटरल एंट्री की अवधारणा पहली बार लाई गई. 2005 में यूपीए सरकार ने दूसरे 'प्रशासिक सुधार आयोग' का गठन किया. वरिष्ठ कांग्रेस नेता वीरप्पा मोइली को इसका अध्यक्ष बनाया गया. उन्होंने लेटरल एंट्री स्कीम का जोरदार तरीके से समर्थन भी किया. शुरुआत में लेटरल एंट्री स्कीम के जरिए सिर्फ मुख्य आर्थिक सलाहकार जैसे पद पर नियुक्ति की गई.
लेटरल एंट्री से कैसे होती है नियुक्ति?
अगर आसान भाषा में समझें तो लेटरल एंट्री का मतलब प्राइवेट सेक्टर के लोगों की सीधी सरकारी पदों पर भर्ती से है. यूपीएससी की तरफ से जिन 45 पदों पर नियुक्ति के लिए विज्ञापन जारी किया गया है, उनके जैसे पदों पर ही प्राइवेट सेक्टर के लोगों की भर्ती की जाती है. यानी कि सरकार अलग-अलग मंत्रालयों में ज्वाइंट सेक्रेटरी, डायरेक्टर/डिप्टी सेक्रेटरी जैसे पदों पर प्राइवेट सेक्टर के लोगों को कॉन्ट्रैक्ट के तहत काम करने का मौका देती है.
लेटरल एंट्री स्कीम के जरिए 15 सालों तक प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले लोगों को नौकरशाही में शामिल किया जा सकता है. हालांकि, इन लोगों न्यूनतम उम्र 45 वर्ष होनी चाहिए. साथ ही उम्मीदवार के पास किसी भी यूनिवर्सिटी से प्राप्त ग्रेजुएशन की डिग्री होनी चाहिए. आमतौर पर जिन पदों पर नियुक्ति के लिए विज्ञापन निकाला गया है, उन पर भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस), भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) और भारतीय वन सेवा (आईएफओएस) और अन्य 'ग्रुप ए' सर्विस के अधिकारी तैनात होते हैं.
लेटरल एंट्री के विरोध की वजह क्या है?
केंद्र सरकार की लेटरल एंट्री की सबसे ज्यादा आलोचना इसलिए की जा रही है, क्योंकि इसके जरिए होने वाली भर्ती में एससी, एसटी और ओबीसी उम्मीदवारों के लिए कोई कोटा यानी आरक्षण नहीं है. सिर्फ इतना ही नहीं, बल्कि ये भी कहा जा रहा है कि इस व्यवस्था की वजह से वर्तमान में काम करने वाले अधिकारी हतोत्साहित हो सकते हैं. ये भी कहा जा रहा कि जिन लोगों को एक्सपर्ट के तौर पर नियुक्त किया जाएगा, उन्हें सरकार की व्यवस्था के साथ तालमेल बैठाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.
हालांकि, ये सब बातें इतनी बड़ी नजर नहीं आती हैं, क्योंकि सबसे बड़ा डर इस बात का है कि सरकार इस व्यवस्था के जरिए अपने समर्थक अधिकारियों को मंत्रालयों में जगह दे सकती है. विपक्षी नेताओं समेत कई लोगों का मानना है कि अगर सरकार समर्थक लोग मंत्रालयों में आ जाते हैं, तो इसका गलत या अनुचित फायदा उठाया जा सकता है. इस बात का भी डर है कि कुछ अधिकारी ऐसे भी हो सकते हैं, जो कुछ बड़े बिजनेस हाउस के अनुकूल नीतियां बना सकते हैं.
लेटरल एंट्री से क्या सच में छीना जा रहा आरक्षण?
केंद्र सरकार की लेटरल एंट्री की सबसे ज्यादा आलोचना इसलिए की जा रही है, क्योंकि इसके जरिए होने वाली भर्ती में एससी, एसटी और ओबीसी उम्मीदवारों के लिए कोई कोटा यानी आरक्षण नहीं है. इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, सरकार के 'कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग' द्वारा 15 मई, 2018 को जारी सर्कुलर में कहा गया, "केंद्र सरकार के पदों और सेवाओं में नियुक्तियों के संबंध में 45 दिनों या उससे अधिक समय की अस्थायी नियुक्तियों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों के लिए आरक्षण होगा."
केंद्रीय गृह मंत्रालय के जरिए 24 सितंबर, 1968 को जारी किए गए एक सर्कुलर में जो बातें कही गई थीं, वही बातें इस वाले सर्कुलर में भी थीं. बस फर्क सिर्फ इतना था कि इसमें ओबीसी समुदाय को भी आरक्षण के दायरे में लाया गया. इसका मतलब ये था कि नौकरशाही में नियुक्ति के लिए आरक्षण दिया जाएगा.
हालांकि, जब 29 नवंबर, 2018 को मोदी सरकार ने लेटरल एंट्री के तहत नियुक्ति की शुरुआत की तो 'कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग' की अतिरिक्त सचिव सुजाता चतुर्वेदी ने यूपीएससी सचिव राकेश गुप्ता को एक चिट्ठी लिखी.
इसमें उन्होंने कहा, "राज्य सरकार, सार्वजनिक क्षेत्र, स्वायत्त निकायों, वैधानिक निकायों, यूनिवर्सिटी से जिन उम्मीदवारों की नियुक्ति की जाएगी, उन्हें उनके ऑरिजनल डिपार्टमेंट से जुड़ा हुआ ही माना जाएगा. बस इस बार उनकी नियुक्ति डेप्यूटेशन (शॉर्ट टर्म कॉन्ट्रैक्ट सहित) के तहत होगी. डेप्यूटेशन पर नियुक्ति के लिए अनिवार्य तौर पर आरक्षण देने का कोई निर्देश नहीं हैं." डेप्यूटेशन का मतलब किसी कर्मचारी का उसके ऑरिजनल डिपार्टमेंट से किसी अन्य डिपार्टमेंट में कुछ वक्त के लिए अस्थायी ट्रांसफर है.
चिट्ठी में आगे कहा गया, "इन पदों को भरने की वर्तमान व्यस्था को डेप्यूटेशन की तरह ही माना जा सकता है, जहां जहां एससी/एसटी/ओबीसी के लिए अनिवार्य आरक्षण जरूरी नहीं है. हालांकि, अगर कोई एससी/एसटी/ओबीसी उम्मीदवार योग्य हैं तो उनकी नियुक्ति पर विचार किया जाना चाहिए. प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करते हुए ऐसे उम्मीदवारों को नियुक्ति में प्राथमिकता भी दी जा सकती है." इस बात को ही आधार बनाकर दावा किया जा रहा है कि ये आरक्षण छीनने वाली व्यवस्था है.
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