Sedition Law: 'अधिक सख्त कानून का इस्तेमाल गलत', लॉ कमीशन ने की राजद्रोह कानून बनाए रखने की सिफारिश, दिए ये सुझाव
Sedition Law News: लॉ कमीशन ने राजद्रोह कानून के तहक दी जाने वाली सजा को 3 साल से बढ़ाकर 7 साल तक करने की सिफारिश भी की है.
Law Commission On Sedition Law: लॉ कमीशन ने आईपीसी की धारा 124A बनाए रखने की सिफारिश की है. राजद्रोह से जुड़े इस कानून के दुरुपयोग को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल इसे निष्प्रभावी बना दिया था.
अब केंद्र सरकार को सौंपी रिपोर्ट में लॉ कमीशन ने कहा है कि भारत की जमीनी हकीकत को देखते हुए धारा 124A को खत्म नहीं किया जाना चाहिए. इसके साथ ही कमीशन ने कानून का दुरुपयोग रोकने के लिए कुछ उपाय अपनाए जाने की सिफारिश की है.
'हिंसात्मक विद्रोह से निपटने के लिए ज़रूरी'
कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल को दी गई रिपोर्ट लॉ कमीशन ने कहा है कि लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार को उग्र और हिंसात्मक विद्रोह से बचाने के लिए इस कानून का अस्तित्व बनाए रखना चाहिए. भारत में लगभग सभी आपराधिक कानून ब्रिटिश काल से चले आ रहे हैं. इसलिए, सिर्फ धारा 124A को औपनिवेशिक विरासत बता कर नकारना सही नहीं होगा. यह सही है कि ब्रिटिश हुकूमत में स्वतंत्रता सेनानियों पर यह धारा लगाई जाती थी. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अब इसका इस्तेमाल करने की ज़रूरत नहीं. इस कानून को रद्द करने का असर देश की सुरक्षा और अखंड़ता पर पड़ सकता है.
'अधिक सख्त कानून का इस्तेमाल गलत होगा'
आयोग ने बताया है कि धारा 124A के न होने पर सरकार के खिलाफ हिंसा भड़काने वाले भाषण या लेख के लिए UAPA या दूसरे सख्त कानून के तहत मुकदमा चलाना पड़ सकता है, जो कि गलत होगा. ऐसे में आयोग ने सिफारिश की है कि धारा 124A को निरस्त करने की जगह उसका दुरुपयोग रोकने पर ध्यान दिया जाना चाहिए.
'प्राथमिक जांच के बाद हो FIR'
कर्नाटक हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस ऋतु राज अवस्थी की अध्यक्षता वाले 22वें लॉ कमीशन ने प्राथमिक जांच के बाद ही राजद्रोह का मुकदमा दर्ज करने का सुझाव दिया है. आयोग ने कहा है कि इंस्पेक्टर या उससे ऊपर रैंक के अधिकारी राजद्रोह की शिकायत की प्राथमिक जांच करें. अगर इस जांच के बाद आरोप पुख्ता नज़र आ रहे हों, तब राज्य सरकार या केंद्र सरकार की मंजूरी के बाद मुकदमा दर्ज किया जाए. आयोग ने राजद्रोह के लिए दी जाने वाली सज़ा को 3 साल से बढ़ा कर 7 साल तक करने की सिफारिश भी की है.
सुप्रीम कोर्ट में लंबित है मामला
धारा 124A को 10 से ज्यादा याचिकाओं के जरिए सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. इन याचिकाओं में इस कानून को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के खिलाफ बताया गया है. याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि छोटे-छोटे मामलों में भी इस कानून के तहत मुकदमा दर्ज किया जा रहा है. देश भर की राज्य सरकारें अपने राजनीतिक विरोधियों के दमन के लिए इस कानून का इस्तेमाल कर रही हैं.
सुप्रीम कोर्ट का आदेश
पिछले साल 11 मई को सुप्रीम कोर्ट ने मामले को सुनते हुए आईपीसी की धारा 124A को अंतरिम तौर पर निष्प्रभावी बना दिया था. कोर्ट ने कहा था कि इस कानून के तहत नए मुकदमे दर्ज न हों और जो मुकदमे पहले से लंबित हैं, उनमें भी अदालती कार्यवाही रोक दी जाए. कोर्ट ने केंद्र सरकार को कानून की समीक्षा करने की अनुमति दी थी. साथ ही कहा था कि जब तक सरकार कानून की समीक्षा नहीं कर लेती, तब तक यह अंतरिम व्यवस्था लागू रहेगी.
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