2019 में 20 दलों के साथ मिलकर सत्ता में वापसी करने वाली बीजेपी को पिछले 4 सालों में बड़ा झटका लगा है. इन सालों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चा (एनडीए) से 3 बड़े दल बाहर हो चुके हैं. शिवसेना और लोक जनशक्ति पार्टी यानी लोजपा में भी टूट हो चुकी है. इसी बीच तमिलनाडु में भी बीजेपी को सहयोगी एआईएडीएमके झटका दे सकती है.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक लोकल पॉलिटिक्स में बीजेपी और एआईएडीएमके कार्यकर्ताओं के बीच कई जिलों में आपसी तनातनी की खबरें सामने आई है. एआईडीएमके तमिलनाडु की मुख्य विपक्षी पार्टी है. राज्य में लोकसभा की कुल 39 सीटें हैं, जो यूपी, महाराष्ट्र, बंगाल और बिहार के बाद सबसे ज्यादा है.
2019 में बीजेपी ने एआईएडीएमके के साथ मिलकर राज्य में 5 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. हालांकि, पार्टी को कोई फायदा नहीं मिला. एआईएडीएमके भी कोई करामात नहीं दिखा पाई थी.
विवाद कैसे और क्यों शुरू हुआ?
एआईएडीएमके में पिछले दिनों बगावत हुई और पार्टी की कमान ई. पलानीस्वामी को मिली. हाल में ईरोड पूर्व में हुए उपचुनाव में एआईएडीएमके को करारी हार मिली. इसके बाद पलानीस्वामी ने नया दांव खेला और बीजेपी के कुछ नेताओं को पार्टी में शामिल करा लिया.
राज्य बीजेपी के आईटी सेल प्रमुख सीटी रविकुमार के नेतृत्व में 13 नेताओं ने एआईएडीएमके का दामन थाम लिया. बीजेपी ने इसे गठबंधन धर्म का उल्लंघन बताया और पलानीस्वामी पर निशाना साधा. बीजेपी ने कहा कि एआईएडीएमके बीजेपी के हो रहे विस्तार से घबरा गई है.
विवाद इतना अधिक बढ़ गया कि कोलिवपट्टी में बीजेपी समर्थकों ने पलानीस्वामी के पोस्टर फाड़ दिए. एआईएडीएमके के सूत्रों ने एनडीटीवी से कहा कि विवाद के बाद अब पलानीस्वामी बीजेपी को अपने ऊपर 'भार' के रूप में देख रहे हैं.
4 साल में 3 सहयोगी लेफ्ट और 2 में टूट
4 साल में एनडीए से शिअद, जदयू और आरएलपी बाहर निकल गए हैं. इनमें जदयू और एजीपी कांग्रेस के समर्थन वाली महागठबंधन में शामिल हो चुकी है, जबकि शिअद ने हाल ही में बसपा से गठबंधन किया है. आइए तीनों दलों के बाहर निकलने की वजह को विस्तार से समझते हैं...
1. जनता दल यूनाइटेड- जुलाई 2022 में नीतीश कुमार की पार्टी जदयू एनडीए से अलग हो गई. नीतीश कुमार ने आरोप लगाया कि बीजेपी हमारे साथ साजिश करने में जुटी है. बीजेपी हाईकमान सहयोगी दलों के मुद्दे को नहीं सुनती है.
जदयू का आरोप है कि बिहार में 2020 के चुनाव में बीजेपी ने उसके साथ धोखा किया, जिस वजह से उसकी पार्टी को सिर्फ 43 सीटें ही मिल पाई. जदयू का कहना है कि बीजेपी ने अपने लोगों को चिराग की पार्टी से जदयू के खिलाफ उतार दिए.
यही वजह है कि 30 से अधिक सीटों पर जदयू के उम्मीदवार हार गए. बीजेपी से गठबंधन तोड़ने के बाद जदयू ने राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर बिहार में सरकार में बनाई.
नीतीश कुमार बीजेपी के सबसे पुराने सहयोगियों में से एक थे. 2019 में जदयू और बीजेपी गठबंधन ने लोकसभा की कुल 40 में से 39 सीटों पर जीत दर्ज की थी. 17 सीटों पर लड़ने वाली बीजेपी को इन चुनावों में सभी सीटों पर जीत मिली थी.
बिहार में जदयू से गठबंधन टूटने के बाद बीजेपी के सामने कई मुश्किलें पैदा हो गई है. इनमें चेहरा से लेकर घटक दलों का मामला प्रमुख है. बिहार में नीतीश कुमार के रहते बीजेपी किसी भी नेता को बतौर चेहरा प्रोजेक्ट नहीं कर पाई. पार्टी के लिए ये अब मुसीबत बन चुका है.
गठबंधन टूटने के 8 महीने बाद नीतीश कुमार के फिर से बीजेपी के साथ जाने की अटकलें लग रही है. हाल ही में राजनाथ सिंह और अमित शाह ने नीतीश की फोन पर बातचीत हुई है. हालांकि, नीतीश कह चुके हैं कि अब बीजेपी के साथ वापस जाने का फैसला नहीं लिया जाएगा.
2. शिरोमणि अकाली दल- मोगा समझौता के बाद 1997 में बीजेपी और अकाली दल के बीच गठबंधन हुआ था. इसके बाद पंजाब पॉलिटिक्स में बीजेपी छोटे भाई की भूमिका में रहने लगी. मोगा समझौते के तहत पंजाब आइडेंटी, राष्ट्रीय सुरक्षा और सिखों का विकास को मुख्य मुद्दा बनाया गया था.
2020 में अकाली दल ने बीजेपी से गठबंधन तोड़ लिया था. पार्टी ने 3 कृषि कानून को किसान विरोधी बताते हुए गठबंधन तोड़ने का ऐलान किया था. शिअद का कहना था कि सरकार किसानों के खिलाफ जाकर इस कानून को बनाने का काम किया है. शिअद के इस ऐलान को बीजेपी ने लोकल पॉलिटिक्स का प्रभाव बताया था.
हालांकि, किसानों के तीव्र विरोध को देखते हुए केंद्र सरकार ने इस कानून को वापस ले लिया. केंद्र के इस फैसले के बाद माना जा रहा था कि अकाली दल फिर से बीजेपी के साथ गठबंधन में शामिल हो जाएगी.
मगर, 2022 में विधानसभा चुनाव और अब 2024 के चुनाव से पहले अकाली दल ने बीजेपी को झटका दे दिया. अकाली दल ने पंजाब में बसपा से गठबंधन किया है. सिख और दलित को एक साथ लाकर चुनाव जीतने के लिए शिअद ने यह रणनीति तैयार की है.
पंजाब में लोकसभा की कुल 13 सीटें हैं और 2019 में शिअद-बीजेपी गठबंधन ने 4 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि 7 सीटों पर दूसरे नंबर पर थी.
3. राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी- मोदी सरकार के 3 कृषि कानून के खिलाफ राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी ने भी बीजेपी से गठबंधन तोड़ लिया था. 2018 में बनी इस पार्टी का राजस्थान के जाट समुदाय में अच्छी पकड़ मानी जाती है. राजस्थान में करीब 11 फीसदी जाट वोटर्स हैं.
हनुमान बेनीवाल की पार्टी ने 2019 के चुनाव में बीजेपी से गठबंधन कर चुनाव लड़ा था. आरएलपी को समझौते के तहत नागौर सीटें मिली थी, जिस पर पार्टी ने जीत दर्ज की थी. राजस्थान विधानसभा में भी आरएलपी के 3 विधायक हैं.
बेनीवाल की पार्टी आरएलपी का नागौर के अलावा बाड़मेर और जोधपुर में भी दबदबा है. हाल ही में हुए सरदारपुर सीट पर उपचुनाव में आरएलपी कैंडिडेट ने बीजेपी को नुकसान पहुंचाया था. इसके बाद आरएलपी और कांग्रेस के बीच सांठगांठ की बाते उठने लगी थी.
2023 में राजस्थान में विधानभा के चुनाव भी होने हैं. सत्ता में वापसी का सपना संजोए बीजेपी को आरएलपी झटका भी दे सकती है.
सहयोगी 2 दल, जिसमें हो चुकी है टूट
1. शिवसेना- एक वक्त में महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना बीजेपी से ज्यााद दखल रखती थी. 2019 में शिवसेना और बीजेपी ने मिलकर 48 में से 41 सीटों पर जीत दर्ज की थी. बीजेपी 25 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और 23 पर जीती, जबकि 23 सीटों पर लड़कर शिवसेना ने 18 सीटें हासिल की थी.
2019 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में सियासी खेल हो गया और उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस-एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली. 2022 में उद्धव की पार्टी में टूट हो गई. एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना और बीजेपी की वर्तमान में महाराष्ट्र में सरकार है.
शिवसेना का विवाद वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में है और इस पर सुनवाई चल रही है. उद्धव ठाकरे की पार्टी कांग्रेस-एनसीपी के साथ मिलकर बीजेपी के खिलाफ मोर्चा तैयार करने में जुटी है. सुप्रीम कोर्ट के फैसला आने के बाद ही महाराष्ट्र को लेकर तस्वीरें साफ हो पाएगी.
2. लोक जनशक्ति पार्टी- बिहार की क्षेत्रीय पार्टी लोजपा भी 2019 में बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी, लेकिन 4 साल में लोजपा में बहुत कुछ बदल गया है. लोजपा का विवाद अभी भी चुनाव आयोग में है. राम विलास पासवान के निधन के बाद चिराग ने 2020 में एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ने का फैसला किया.
2020 के चुनाव में चिराग को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद चिराग के चाचा पशुपति पारस ने 5 सांसदों के साथ मिलकर पार्टी में अलग गुट बना लिया. चाचा सांसदों के साथ मिलकर केंद्र में बीजेपी का समर्थन कर दिया, जिसके बाद उन्हें मोदी कैबिनेट में मंत्री भी बनाया गया.
नीतीश कुमार से गठबंधन टूटने के बाद बीजेपी को लोजपा को एकजुट करने के प्रयास में भी जुटी है, लेकिन चिराग के चाचा समझौते के लिए तैयार नहीं हैं. लोजपा 2019 में 6 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिसमें सभी पर पार्टी ने जीत दर्ज की थी.
लोकसभा की 126 सीटों पर सीधा असर
2019 के बाद से एनडीए में मची उथल-पुथल का लोकसभा की 126 सीटों पर सीधा असर होगा. 2019 में इन 126 सीटों में से बीजेपी को 109 सीटें मिली थी. इनमें महाराष्ट्र की 48 में से 41, बिहार की 40 में से 39, राजस्थान की 25 में से 25 और पंजाब की 13 में से 4 सीटें शामिल हैं.
मिशन 2024 में जुटी बीजेपी अगर इन राज्यों में नए समीकरण नहीं मजबूत करती है तो पार्टी को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है. इसके अलावा, बीजेपी के लिए तमिलनाडु की भी 39 सीट अहम है. 2014 में बीजेपी को राज्य की कन्याकुमारी सीट पर जीत मिली थी. 2019 में भी 3 सीटों पर पार्टी दूसरे नंबर पर रही थी. ऐसे में पार्टी कोशिश करेगी कि एआईएडीएमके के साथ गठबंधन बरकरार रहे.
1998 में अटल बिहारी ने किया था गठबंधन
गठबंधन राजनीति के दौर में 1998 में अटल बिहारी के नेतृत्व में एनडीए का गठबंधन किया गया था. उस वक्त 16 दल मिलकर बीजेपी के साथ चुनावी मैदान में उतरा था. लोकसभा की कुल 541 में से 261 सीटों पर तब एनडीए गठबंधन ने जीत दर्ज की थी.
अटल बिहारी की सरकार 13 महीने में ही गिर गई और 1999 में फिर चुनाव हुए. इस बार 24 दल एनडीए के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया. इसका फायदा भी एनडीए को हुआ और 302 सीटों पर जीत दर्ज की.
एनडीए का उस वक्त साझा मेनिफेस्टो जारी हुआ था. सभी दलों से कॉर्डिनेट करने के लिए एक कमेटी बनाई गई थी. हालांकि, 2004 में एनडीए को हार मिली और फिर इसमें बिखराव हो गया. 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए ने 10 साल बाद सत्ता में वापसी की.