लोकसभा चुनाव 2024: यूपी में कांग्रेस के लिए बीएसपी सुप्रीमो मायावती क्यों हैं जरूरी?
बीएसपी के ऊपर साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भगवा पार्टी की 'बी' टीम की भूमिका निभाने का आरोप लगा था. अब चर्चा है कि बीएसपी सुप्रीमों कांग्रेस का साथ देंगी.
बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती यूपी में अपनी पार्टी के आधार को मजबूत करने के लिए जमीनी स्तर पर काम कर रही हैं. 2024 के चुनावों से पहले मायावती अपने खोए हुए वोटरों को लाने की पूरी कोशिश कर रही हैं.
उधर विपक्षी दलों ने बीजेपी के खिलाफ एक मोर्चा तैयार करने की कोशिश में हैं. जिसमें बीएसपी शामिल होने के कयास लगाए जा रहे हैं. चर्चा ये भी है कि 2024 से पहले बीएसपी यूपी में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ सकती है.
बहुजन समाज पार्टी ने पिछले हफ्ते मीडिया को दो पन्नों का नोट जारी किया. इस नोट ने उत्तर प्रदेश में राजनीतिक पुनर्गठन के बारे में अटकलों को जन्म दे दिया है. बीएसपी प्रमुख मायावती के साथ बीएसपी के पदाधिकारियों की बैठक के बाद जारी नोट में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी पर निशाना साधा है. लेकिन कांग्रेस पर कोई टिप्पणी नहीं की .
बीएसपी के ऊपर साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भगवा पार्टी की 'बी' टीम की भूमिका निभाने का आरोप लगा था. अब मायावती का ये रुख सबको हैरान कर रहा है. बीएसपी सूत्रों ने कहा कि उसके नेताओं को भी अपने भाषणों में कांग्रेस के प्रति नरम रुख अपनाने का निर्देश दिया गया है. इन बातों से ये लगने लगा है कि पार्टी ने भविष्य के लिए गठबंधन का विकल्प खुला रखा है.
इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के मुताबिक बीएसपी के एक सांसद ने कहा, 'ऐसा लगता है कि बीएसपी कांग्रेस के प्रति नरम रुख अपना रही है. और इस विकल्प को तलाशा भी जाना चाहिए. कांग्रेस को 2024 में पार्टी के लिए एक अच्छा गठबंधन विकल्प माना जा सकता है.
पार्टी के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष विश्वनाथ पाल ने कहा, 'चूंकि बहनजी (मायावती) ने इस मामले पर कुछ नहीं कहा है, इसलिए मैं टिप्पणी नहीं कर सकता. हम उनके द्वारा दिए गए किसी भी दिशानिर्देश का पालन करेंगे.
बता दें कि पटना विपक्ष की बैठक दूसरा ऐसा बीजेपी विरोधी मंच था जहां से मायावती मौजूद नहीं थी. अगस्त 2017 में बीएसपी ने पटना में आरजेडी की 'बीजेपी भगाओ, देश बचाओ' रैली में भाग नहीं लिया था. उस समय ये तर्क दिया गया था कि जब तक गैर-बीजेपी दलों के बीच गठबंधन की रूपरेखा तय नहीं हो जाती वो पार्टी किसी भी मोर्चे में शामिल नही होगी. इसके बाद साल 2019 में सपा के साथ गठबंधन करने के बाद बीएसपी सुप्रीमो ने मायावती ने कांग्रेस के साथ किसी भी साझेदारी से इनकार कर दिया था. सपा नेता अखिलेश यादव जहां गठबंधन में कांग्रेस को शामिल करने का मन बना चुके थे वहीं मायावती ने कांग्रेस के लिए दरवाजे बंद कर दिए थे.
लेकिन अब उत्तर प्रदेश की सियासत में हालात पूरी तरह से बदल गए हैं. बीजेपी राज्य में एक बड़ी ताकत बन गई है. बाकी पार्टियों वोट बैंक के मामले में काफी पीछे चली गई हैं. कांग्रेस की हालत तो सबसे ज्यादा खराब है. ऐसे में अब कयास लगाए जा रहे हैं कि लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर कांग्रेस और बीएएसपी एक साथ आ सकते हैं क्योंकि दोनों को ही एक दूसरे की जरूरत है.
अल्पसंख्यक मतदाताओं को साधने के लिए
उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियों को कम वोट मिले थे. 12 फीसदी वोट के साथ बीएसपी और 2 फीसदी वोट के साथ कांग्रेस सबसे निचले स्तर पर थे.
जानकारों का मानना है कि दोनों इस तथ्य से भी अवगत हैं कि अल्पसंख्यक मतदाता ही दोनों की सबसे बड़ी ताकत हैं और समुदाय दोनों का समर्थन तभी करेगा जब उन्हें विश्वास हो जाएगा कि उनके पास बीजेपी को चुनौती देने की क्षमता है.'
मायावती चुनावों में बड़ी संख्या में मुस्लिम मतदाताओं को टिकट देकर उन्हें लुभाने की कोशिश करती रही हैं, लेकिन यह कदम अल्पसंख्यक वोटों को विभाजित करने और बीजेपी की मदद करने में सक्षम रहा है. अगर कांग्रेस, जो अभी भी राष्ट्रीय चुनावों में मुसलमानों के एक हिस्से की पसंदीदा पार्टी है, बीएसपी के साथ हाथ मिलाती है, तो मायावती दलित वोट बैंक के साथ मुसलमानों को एकजुट करने की अपनी योजना में सफल हो सकती हैं.
जानकारों का ये भी कहना है कि इस गठबंधन से कांग्रेस को जो फायदा होगा, वह यूपी से आगे भी जाएगा. दोनों पार्टियों के बीच मतभेद के बावजूद अगर कोई गठबंधन होता है तो न केवल उत्तर प्रदेश में बल्कि अन्य राज्यों में भी कांग्रेस के लिए अच्छा होगा. खासकर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जहां जल्द ही चुनाव होने वाले हैं. इस गठबंधन से कांग्रेस को फायदा मिलेगा. मायावती तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र, बिहार, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में भी एक फैक्टर हो सकती हैं. मायावती कांग्रेस को पूरे भारत में लंबे समय तक फायदा पहुंचा सकती हैं.
दोनों के बीच मौजूदा स्थिति क्या है?
टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर की मानें तो प्रियंका गांधी और टीम आकाश (मायावती के भतीजे) से बातचीत चल रही है. सब कुछ ठीक रहा तो बातचीत में सोनिया गांधी और मायावती भी शामिल हो सकती हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर के मुताबिक कांग्रेस के सूत्रों के हवाले से लिखा है कि देश का सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस 'बहनजी के साथ एक समझ विकसित करने में गंभीरता से रुचि रखती है.
दलितों को साधना जरूरी
कांग्रेस को यूपी में जीतने के लिए दलित वोटरों में फिर से पैठ बनानी होगी. बीएसपी भी अपने कोर वोटर को साथ लाना चाह रही है. 1980 के दशक के मध्य में बसपा ने दलितों को एकजुट करने के लिए अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की थी. दलित वोट बैंक के आधार पर ही मायावती की राजनीति आगे बढ़ी. 2017 से पहले तक बीएसपी के लगभग हर निर्वाचन क्षेत्र में 25,000 से 27,000 दलित वोट थे.
साल 2022 के विधानसभा चुनावों में भी न सिर्फ ओबीसी और यादव वोट बीजेपी का खाते में आया था. बल्कि बीएसपी से जाटव और गैर-जाटव वोटों को वोट भी बीजेपी के खाते में आया था. उत्तर प्रदेश में बीएसपी की सीटों की संख्या घटकर महज 2 रह गई हैं. विधानसभा चुनाव में पार्टी को सिर्फ एक सीट पर जीत नसीब हुई थी.
मायावती की दलित पहचान का फायदा उठाना चाह रही कांग्रेस
आजादी के बाद दशकों तक कांग्रेस ने दलितों का प्रतिनिधित्व किया, लेकिन कांशीराम ने 1984 में बहुजन सामवादी पार्टी का गठन किया और दलितों को साधना शुरू किया. उन्होंने पहली बार 1972 में बामसेफ (अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ) के तहत दलितों और निचली जाति के कर्मचारियों का एक नेटवर्क बनाया और 1984 में राजनीतिक पार्टी बहुजन सामवादी पार्टी का गठन हुआ.
बहुजन समाज मिशन के संस्थापक अध्यक्ष कांशीराम पंजाब से थे, लेकिन उनकी सहयोगी मायावती दिल्ली के पटपड़गंज इलाके से उत्तर प्रदेश आईं और बिजनौर से अपना पहला उपचुनाव लड़ा. उन्होंने चुनाव जीतने के लिए कई फॉर्मूलों के लिए यूपी को अपनी प्रयोगशाला बनाया.
हिंदुस्तान टाइम्स में छपी खबर के मुताबिक राजनीतिक विश्लेषक बद्री नारायण बताते हैं, "पंजाब में दलितों की दो उप-जातियां – 17 प्रतिशत जाटव और 14 प्रतिशत भंगी – के बीच हमेशा से टकराव रहा है, जबकि यूपी जाटवों में वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा दिशाहीन था. बसपा नेताओं ने खासतौर से मायावती ने यूपी में जाट वोटरों को साधना शुरू किया.
मायावती के रूप में दलितों को पहली बार अपनी जाति के नेतृत्व वाली पार्टी मिली. मायावती ने भी अपनी दलित पहचान को उजागर करने का कोई मौका नहीं गंवाया. अपने सभी भाषणों में उन्होंने खुद को 'दलित की बेटी' बताया. कांशीराम ने निचली जाति को एकजुट करने के लिए जातिगत सम्मेलनों का आयोजन किया. अब कांग्रेस मायावती की इसी पहचान का फायदा उठाना चाहती है. यूपी की कुल आबादी में 21 फीसदी दलित हैं.
चार बार यूपी की मुख्यमंत्री रह चुकीं बीएसपी प्रमुख मायावती दलितों के लिए आदर्श नेता हैं. देखा जाए तो शीर्ष पद के दावेदारों में मायावती सबसे अनुभवी नेता हैं. कांग्रेस यूपी में प्रियंका गांधी के बाद मायावती को एक मजबूत चेहरे के रूप में देख रही हैं.
दूसरी पार्टियों को साथ लाने में भी मायावती की जरूरत
2019 के लोकसभा चुनाव के पहले प्रियंका गांधी ने दलित नेता चंद्रशेखर आजाद से संपर्क साधा था. कांग्रेस के इस कदम से मायावती नाराज हो गईं. यही वजह थी कि मायावती ने सपा के साथ गठबंधन में कांग्रेस के शामिल होने पर रोड़े अटका दिए थे.
2019 के लोकसभा चुनाव के समय से ही टीम प्रियंका गांधी यूपी में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 17 सीटों पर पैठ बढ़ाने की कोशिश करती रही हैं. इससे भी मायावती नाराज हुई थीं. अब कांग्रेस को इस बात का अंदाजा लग चुका है कि/यूपी में अनुसूचित जाति और दूसरी पार्टियों के साथ संपर्क बनाने में मायावती अहम भूमिका निभा सकती हैं. जो लंबे समय तक के लिए कांग्रेस को फायदा पहुंचाएगा.
यूपी में दलित फैक्टर कितना अहम
उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी करीब 21 फीसदी है और चुनावों में इनकी भूमिका अहम होती है. उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 17 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. इनमें से बीजेपी ने 2019 के आम चुनाव में 14 सीटें जीतीं थीं. बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने दो और अपना दल ने एक सीट जीती थी.
बीएसपी को क्या फायदा होगा
बीसपा का ध्यान चुनावी गणित पर ज्यादा है. गठबंधन करने वाले दलों जदयू, आप, राकांपा और तृणमूल कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में कोई वोट शेयर नहीं है.
वहीं बसपा का दस राज्यों में 2 प्रतिशत से 13 प्रतिशत से ज्यादा वोट शेयर है. यूपी में इसकी हिस्सेदारी करीब 13 फीसदी है. टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक खबर के मुताबिक पार्टी के एक नेता ने कहा, 'एकजुट विपक्ष को समझना चाहिए कि बीजेपी को हराने के लिए हमें उसके वोट बैंक में सेंध लगानी होगी.
पत्रकार आर राजगोपालन का कहना है कि मायावती को पिछले चुनावों में बीजेपी की वजह से अपनी सीटें गंवानी पड़ी थी. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में बीएसपी को आरक्षित सीटों पर मायूसी हाथ लगी थी. ये साफ है कि योगी आदित्यनाथ के सत्ता में आने के बाद से अनुसूचित जातियों के बीच बीजेपी का दबदबा बढ़ा है. मायावती का कांग्रेस में जाना कांग्रेस को फायदा पहुंचा सकता है लेकिन मायावती को इससे कोई फायदा नहीं मिलने वाला है.
दलित वोट अब बीजेपी के पास है, जिस तरह से पसमांदा मुस्लिमों को बीजेपी खुल कर सपोर्ट कर रही है उससे दूसरी पार्टियां डर गई हैं. वो हाथ पांव मार रही हैं, लेकिन पिछले दो चुनावों को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि इसका नतीजा विरक्षी पार्टियों के पक्ष में पूरी तरह से नहीं जाएगा.
दिलचस्प बात यह है कि दोनों दलों के लिए ये कदम कोई नया नहीं होगा. कांग्रेस और बसपा ने 1996 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन किया था. आंतरिक कलह के कारण कुछ सालों के भीतर ही ये गठबंधन टूट गया. मौजूदा गठबंधन की अटकलों से ये सवाल भी पैदा होता है कि क्या दोनों पार्टियां अपने मतभेदों को दूर कर पाएगी, या फिर अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए वो मजबूरी में साथ आना पसंद करेगी.