राम और काम के मंझधार में फंसे उद्धव ठाकरे अब रामलला के दरबार में
अयोध्या आने के पीछे उद्धव ठाकरे की सोची समझी रणनीति है. वे अपने कैडर और वोटर को समझाना चाहते हैं. उद्धव ठाकरे बताना चाहते हैं कि हम नहीं बदले हैं, न ही बदलेंगे.
नई दिल्ली: उद्धव ठाकरे तीसरी बार अयोध्या आ रहे हैं. इस बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में वे रामलला के दर्शन करेंगे. वे उस गठबंधन के सीएम हैं, जिसमें एनसीपी और कांग्रेस भी है. शिवसेना की लाईन तो शुरू से ही हिंदुत्व की रही है. लेकिन कांग्रेस और एनसीपी के नेता तो अयोध्या से दूरी बना कर रखते हैं. अब उद्धव धर्म संकट में हैं. वे राम भक्त भी दिखना चाहते हैं. साथ ही सेक्युलर भी. ऊपर से बेमेल गठबंधन वाली सरकार की ज़िम्मेदारी. अब तो भगवान ही उन्हें बचा सकते हैं. इसीलिए तो उद्धव को रामलला की याद आई है.
शायद ही किसी ने सोचा होगा कि कांग्रेस और एनसीपी के साथ शिवसेना सरकार बना लेगी. लेकिन ऐसा ही हुआ. ठाकरे परिवार ने अपने नैचुरल सहयोगी बीजेपी का साथ छोड़ दिया. यही राजनीति है. जहां चमत्कार नहीं होता. सत्ता का नफ़ा नुक़सान चलता है. मोदी है तो मुमकिन है का नारा फेल हुआ. पवार है तो पावर है का फ़ार्मूला चल गया. शरद पवार, उद्धव ठाकरे और सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र में नया राजनीतिक समीकरण खड़ा कर दिया. बनने को तो ये फ़ार्मूला बन गया लेकिन आख़िर चलेगा तब तक. गठबंधन के तीनों पार्टनर इसी बात से परेशान हैं. लेकिन सबसे अधिक मुसीबत तो उद्धव ठाकरे की है.पहली बार ठाकरे परिवार चुनावी राजनीति में आया. आदित्य ठाकरे चुनाव लड़े और उनके पिता उद्धव सीएम बने. किंग मेकर अब खुद किंग बन गए. अयोध्या आने के पीछे उद्धव की सोची समझी रणनीति है. वे अपने कैडर और वोटर को समझाना चाहते हैं. बताना चाहते हैं कि हम नहीं बदले हैं, न ही बदलेंगे. अयोध्या और रामलला के दर्शन के पीछे ठाकरे परिवार का यही राजनैतिक दर्शन है.
नीति और रणनीति में तालमेल बिठाना इतना आसान नहीं है. उद्धव ठाकरे इस बात को बखूबी जानते हैं. उनके पिता और शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे कभी अयोध्या नहीं जा पाए. लेकिन पिछले डेढ़ सालों में उद्धव का ये तीसरा अयोध्या दौरा है. पहली बार उन्होंने 24 नवंबर 2018 को रामलला के दर्शन किए थे. लोकसभा चुनाव में शिवसेना का प्रदर्शन शानदार रहा.
जीत के बाद उद्धव अयोध्या पहुंचे और रामलला की पूजा की. उस दौरे में शिव सैनिकों ने नया नारा दिया. पहले मंदिर फिर सरकार. ये दबाव की रणनीति थी. कोशिश ये भी कि बीजेपी के मुक़ाबले शिव सेना बड़ी हिंदूवादी पार्टी दिखे. अब यही छवि उद्धव के लिए सबसे बड़ी मुसीबत है. हिंदुत्व के साथ साथ महाराष्ट्र में साझा सरकार चलाने की चुनौती है.
बड़ी मुश्किल से तो सरकार बनी है. अधिकतर मुद्दों पर शिवसेना का स्टैंड एनसीपी और कांग्रेस से बिल्कुल अलग है. नागरिकता क़ानून से लेकर एनपीआर और एनआरसी का मसला है. बीच बीच में सावरकर का मुद्दा भी उठता रहता है. हाल में ही एनसीपी ने शैक्षणिक संस्थानों में मुसलमानों के लिए आरक्षण के मुद्दे को हवा दे दी.
उधर उद्धव के कट्टर विरोधी और रिश्ते में भाई राज ठाकरे भी हिंदुत्व को धार देने की जुगाड़ में हैं. तो अब उद्धव के पास अब राम का नाम ही बचा है. इसीलिए तो शिवसेना के सांसद और पार्टी के चाणक्य संजय राउत राहुल गांधी और ममता बनर्जी से भी रामलला का दर्शन करने की अपील कर रहे हैं
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