Maharashtra-Karnataka Border Dispute: जैसे ही ठंड का मौसम शुरू होता है, भारत के दो राज्य कर्नाटक और महाराष्ट्र के नेता आपस में भिड़ जाते हैं. तीखी राजनीतिक बयानबाजी होती है. लोग भड़कते हैं और फिर हिंसा हो जाती है, जिसे रोकने के लिए दोनों ही राज्यों की पुलिस को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ता है. साल 2007 से यह सिलसिला चला आ रहा है, जिसकी शुरुआत कर्नाटक ने की थी, लेकिन इन दोनों राज्यों और इनके लोगों की भिडंत का इतिहास करीब 66 साल पुराना है.


इसकी जड़ में करीब 100 वर्ग किमी का एक इलाका है, जिस पर कर्नाटक और महाराष्ट्र दोनों ही दावे करते हैं. आखिर ये विवाद है क्या, क्यों इस इलाके के लिए दोनों ही राज्य एक दूसरे से भिड़ते रहते हैं और क्यों हर साल जाड़े में इन दोनों राज्यों का विवाद और भी गहरा हो जाता है.


भाषा के आधार पर बने राज्य


साल था 1949. भारत को आजाद हुए तकरीबन दो साल बीत चुके थे. तब समुद्र से लगते भारत के पश्चिमी हिस्से को बॉम्बे प्रेसिडेंसी कहा जाता था. उस वक्त तक भारत का अपना संविधान लागू नहीं हुआ था और देश में राज्यों के पुनर्गठन की मांग जोर पकड़ने लगी थी. हालांकि तब तक राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के बनाए गए श्याम कृष्ण धर कमीशन ने भाषा के आधार पर राज्यों के बंटवारे को गलत करार दे दिया था. 



कहा था कि प्रशासनिक लिहाज से ही राज्यों का बंटवारा होना चाहिए ताकि शासन चलाने में सुविधा हो सके. इस बीच देश के दूसरे राज्यों और खास तौर से दक्षिण भारत में भी भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन को लेकर आंदोलन शुरू हो चुका था, जिसकी अगुवाई की थी मद्रास स्टेट के पोट्टी श्रीमूलू ने. मद्रास से अलग तेलगू भाषा के आधार पर अलग आंध्र प्रदेश की मांग को लेकर पोट्टी श्रीमूलू ने भूख हड़ताल की और इसमें उनकी मौत हो गई. इसके बाद 1953 में मद्रास से अलग आंध्र प्रदेश अलग राज्य के तौर पर अस्तित्व में आया. इसने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग को और भी बढ़ा दिया. 


भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग को स्वीकार किया


नतीजा ये हुआ कि दिसंबर 1953 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जस्टिस फजल अली की अध्यक्षता में राज्य पुनर्गठन आयोग बना दिया. इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में भाषाई आधार पर कई राज्यों के पुनर्गठन की मांग को स्वीकार कर लिया. फिर 1956 में केरला, मध्य प्रदेश, मद्रास, मैसूर, पंजाब और राजस्थान नए राज्य बने. इसके अलावा बॉम्बे प्रेसिडेंसी के इलाके में भी बदलाव हुआ और तब बॉम्बे प्रेसिडेंसी में शामिल रहे बीजापुर, धारवाड़, कनारा या करावली और बेलगाम जिले को बॉम्बे प्रेसिडेंसी से बाहर कर दिया गया. 


क्या है विवाद का केंद्र?


इन सबको नए बने राज्य मैसूर के साथ जोड़ दिया गया. इसके अलावा निप्पणी, कारावार, खानापुर और नंदगाड जैसे मराठी भाषी बहुल इलाके भी मैसूर का ही हिस्सा रहे. इन सबमें बॉम्बे प्रेसिडेंसी से अलग होकर मैसूर के साथ जुड़े इस बेलगाम का नाम याद रखिएगा, क्योंकि पूरी कहानी का केंद्र बिंदू यही बेलगाम है. अब हुआ ये कि राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश पर कुछ नए राज्य तो बन गए. कुछ राज्यों की सीमाओं में भी बदलाव किया गया, लेकिन बॉम्बे प्रेसिडेंसी को दो अलग-अलग राज्यों में बांटने की मांग इस आयोग ने पूरी नहीं की. आयोग ने कहा था कि बॉम्बे प्रेसिडेंसी की भाषा के आधार पर बंटवारे की कोई जरूरत नहीं है तो बॉम्बे प्रेसिडेंसी बनी रही. 


गुजरात कैसे बना?


आयोग की सिफारिश थी कि बॉम्बे प्रेसिडेंसी राज्य के उत्तर के लोग गुजराती और दक्षिण के लोग मराठी बोलते हैं तो दोनों ही भाषाओं के साथ ये एक राज्य हो सकता है, लेकिन भाषा के आधार पर राज्यों का बंटवारा करने की मांग पर अड़े नेताओं ने दोनों भाषाओं के लिए अलग-अलग आंदोलन चलाया. एक आंदोलन गुजराती भाषी लोगों का था, जिसमें वो गुजराती भाषा के आधार पर बॉम्बे प्रेसिडेंसी से अलग गुजरात राज्य की मांग कर रहे थे और इस राज्य में बंबई और डांग को शामिल करवाने की जिद पर अड़े थे. इस आंदोलन को नाम दिया गया था महागुजरात आंदोलन. 


वहीं गुजराती भाषी लोगों से अलग मराठी भाषी लोगों के लिए जिस अलग राज्य की मांग हो रही थी, उस आंदोलन को नाम दिया गया था संयुक्त महाराष्ट्र मूवमेंट. इस आंदोलन की अगुवाई करने वाले नेताओं ने बंबई और डांग के साथ ही बेलगाम, निप्पणी, कारावार, खानापुर और नंदगाड को भी अपने में मिलाने की मांग की थी. लेकिन 1956 में बने राज्य पुनर्गठन आयोग की वजह से ये सारे इलाके मैसूर के ही पास थे.


1 मई, 1960 को जब बॉम्बे प्रेसिडेंसी का भी बंटवारा हो गया और महाराष्ट्र के साथ ही गुजरात भी एक नया राज्य बना तो बेलगाम, निप्पणी, कारावार, खानापुर और नंदगाड पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वो मैसूर का ही हिस्सा बने रहे. लेकिन महाराष्ट्र ने इन इलाकों पर अपना दावा नहीं छोड़ा. और इसके लिए महाराष्ट्र के कुछ नेताओं ने मिलकर महाराष्ट्र एकीकरण समिति का गठन किया, जिसका मकसद बेलगाम के साथ ही निप्पणी, कारावार, खानापुर और नंदगाड को महराष्ट्र में शामिल करना था. अपनी मांगों को मनवाने के लिए 22 मई, 1966 को सेनापति बापट और उनके साथियों ने महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक के आवास के बाहर भूख हड़ताल शुरू कर दी.


कहां से विवाद शुरू हुआ? 


इस हड़ताल को खत्म करवाने और विवाद को सुलझाने के लिए तब की प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस जस्टिस मेहर चंद महाजन के नेतृत्व में एक आयोग का गठन कर दिया. साल 1966 में बने इस आयोग ने साल 1967 में ही अपनी सिफारिशें भेज दी. इस आयोग ने कहा कि मैसूर में शामिल निप्पणी, खानापुर और नांदगाड सहित 262 गांव महाराष्ट्र को दे दिए जाएं, जबकि महाराष्ट्र में शामिल दक्षिण सोलापुर और अक्कलकोट समेत महाराष्ट्र के 246 गांवों को कर्नाटक को दे दिया जाए, लेकिन महाराष्ट्र तो बेलगाम सहित कुल 814 गांवों की मांग पहले से ही कर रहा था. लिहाजा महाराष्ट्र ने आयोग की सिफारिशों को मानने से ही इंकार  कर दिया.


तब से दोनों ही राज्यों के बीच इन इलाकों को लेकर विवाद चलता ही रहता है. इस बीच 1 नवंबर 1973 को मैसूर का नाम बदलकर कर्नाटक कर दिया गया. तब से ये विवाद महाराष्ट्र बनाम कर्नाटक के रूप में जाना जाता है. महाराष्ट्र के कुछ इलाकों को कर्नाटक अपना बताता है तो कर्नाटक के कुछ इलाकों को महाराष्ट्र अपना और ऐसे में ये विवाद सुलझ ही नहीं पाता है. चाहे सरकार किसी की भी हो. 


सुप्रीम कोर्ट तक गया मामला


अब सबसे ज्यादा दिक्कत महाराष्ट्र को ही है तो उसने विवाद को सुलझाने के लिए साल 2004 में सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. इस बात को 18 साल बीत गए हैं. तब से ये मामला सुप्रीम कोर्ट में ही लंबित है, जहां सुनवाई के दौरान हर बार कर्नाटक के प्रतिनिधि गैर हाजिर रहते हैं और नतीजा ये होता है कि हमेशा ही इस मुद्दे पर तारीख पर तारीख पड़ती जाती है.


ठंड में क्यों बढ़ता है विवाद


कर्नाटक ने एक और भी काम किया है, जिसने इस विवाद को और हवा दे रखी है. और वो है जाड़े के मौसम में विधानसभा के सत्र का बेलगाम में आयोजित होना. दरअसल कर्नाटक ने बेलगाम पर अपने दावे को और मजबूत करने के लिए साल 2007 में बेलगाम में विधानसभा भवन बनाने का फैसला किया ताकि विधानसभा का शीतकालीन सत्र बेलगाम में आयोजित हो सके.


साल 2012 से कर्नाटक विधानसभा का शीतकालीन बेलगाम में ही आयोजित होता है. और हर विधानसभा सत्र के दौरान महाराष्ट्र की ओर से इसका विरोध किया जाता है, जिसका नतीजा है कि हर साल ठंड के मौसम में महाराष्ट्र और कर्नाटक के नेताओं के साथ ही आम लोग भी इस मसले पर भिड़ जाते हैं और फिर इसकी तपिश दूसरे राज्यों के सीमावर्ती विवाद पर भी पड़ने लगती है.


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