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थप्पड़ कांड, सरकारें गिरीं..., जानिए उन राज्यपालों के बारे में जिनकी वजह से आया राजनीतिक भूचाल

उद्धव और शिंदे विवाद में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं. भारत की सियासत में भूचाल लाने वाले राज्यपालों की कहानी...

शिवसेना और महाराष्ट्र में राजनीतिक संकट पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने राज्यपाल की भूमिका पर सख्त टिप्पणी की है. बुधवार को सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस (सीजीआई) डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि राज्यपाल को किसी भी क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिए, जो सरकार के पतन का कारण बनता है. 

सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की भूमिका पर भी सवाल उठाया है. कोर्ट ने कहा कि यह दुखद तमाशा जैसा है. सीजेआई ने सुनवाई के दौरान कहा कि राज्यपाल ने शिवसेना के आंतरिक विवाद को कैसे सरकार के खिलाफ अविश्वास मान लिया? राज्यपाल का पक्ष रख रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि ये उनकी संवैधानिक जिम्मेदारी थी. 

उद्धव और शिंदे विवाद में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं. ऐसे में आइए जानते हैं उन राज्यपालों की कहानी, जिनकी वजह से सियासी भूचाल आ गया.

पहले जानिए सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान किसने क्या हुआ?
उद्धव के वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि राज्यपाल की भूमिका भी सरकार गिराने में है. राज्यपाल जानते थे कि एकनाथ शिंदे पर दलबदल का मामला लंबित है. इसके बावजूद उन्हें सरकार बनाने का आमंत्रण दे दिया और मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी.

शिंदे के वकील महेश जेठमलानी- दलबदल की बुराई से ज्यादा लोकतंत्र में बहुमत का शासन सर्वोपरी है. शिवसेना के अधिकांश विधायकों का समर्थन एकनाथ शिंदे के साथ था, इसलिए शिंदे विधायक दल के नेता चुने गए.

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता- 47 विधायकों ने राज्यपाल को पत्र लिखकर खुद की सुरक्षा का खतरा बताया. 34 विधायकों ने एकनाथ शिंदे का समर्थन कर दिया और फिर विपक्ष ने पत्र लिखकर बहुमत साबित करने की मांग की. ऐसे में राज्यपाल के पास कोई ऑप्शन नहीं था.

प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़- क्या राज्यपाल केवल एक पार्टी में आंतरिक विद्रोह के आधार पर विश्वास मत के लिए बुला सकते हैं? सरकार में तीन दल शामिल थे, जिनमें कोई विभाजन नहीं हुआ था. फिर शिवसेना के आंतरिक बगावत से राज्यपाल को कैसे लगा कि सरकार खतरे में है?

महाराष्ट्र में राज्यपाल के किस फैसले पर सवाल उठ रहे?
20 जून को शिवसेना के विधायकों के साथ एकनाथ शिंदे पहले गुजरात और फिर गुवाहाटी चले जाते हैं. शिंदे के विधायकों को उद्धव ठाकरे पहले मनाने की कोशिश करते हैं. इसी बीच डिप्टी स्पीकर इन विधायकों को दल-बदल का नोटिस भेजते हैं. 

एकनाथ शिंदे इस नोटिस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रूख करते हैं. कोर्ट शिंदे गुट के विधायकों को अंतरिम राहत प्रदान करती है. इधर, बीजेपी राज्यपाल के पास जाती है और उद्धव सरकार को अल्पमत में बताकर एक पत्र सौंपती है.

बीजेपी से पत्र मिलने के बाद तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी उद्धव ठाकरे को बहुमत साबित करने के लिए कहते हैं. उद्धव बहुमत साबित करने से पहले इस्तीफा दे देते हैं. कोश्यारी इसके बाद एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवाते हैं.

शिवसेना राज्यपाल के इसी फैसले पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है. शिवेसना के सुभाष देसाई ने यह याचिका दाखिल की है, जिस पर संवैधानिक बेंच सुनवाई कर रही है. 

अबकहानी उन राज्यपालों की जिनकी वजह से आया सियासी भूचाल

1. राज्यपाल ने सरकार गिराई बदले में थप्पड़ भी खाया
जनता पार्टी में टूट के बाद 1980 में इंदिरा गांधी फिर सत्ता में वापसी की. केंद्र में सरकार बनने के बाद कई राज्यों में राज्यपाल बदले गए. इस दौरान हरियाणा, आंध्र प्रदेश समेत कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी दल की सरकार थी.

कांग्रेस उन राज्यों में सरकार बदलने के लिए मिशन की शुरुआत की. पहला नंबर हरियाणा का लगा. साल था 1982 और राज्यपाल बनाए गए गणपत राव देवजी तापसे. हरियाणा के मुख्यमंत्री थे चौधरी देवीलाल. कांग्रेस के भजनलाल ने उनकी पार्टी के कई विधायकों को मना लिया.

देवीलाल को इसकी भनक लगी तो वे विधायकों की परेड कराने राजभवन पहुंचे. कहा जाता है कि देवीलाल के साथ यहीं पर खेल हो गया. उनके समर्थन के अधिकांश विधायक राजभवन के पिछले दरवाजे से निकल गए.

चौधरी देवीलाल को जब इस बात की जानकारी मिली, तो वे गवर्नर के चैंबर में गए और राज्यपाल से बहस करने लगे. देवीलाल के समर्थकों का कहना है कि उन्होंने गुस्से में तापसे को थप्पड़ जड़ दिया. हालांकि, उनकी सरकार गिर गई.

2. इलाज कराने गए मुख्यमंत्री तो राज्यपाल ने सरकार गिरा दी
हरियाणा के बाद आंध्र प्रदेश में सरकार गिराने की मिशन पर काम शुरू हुआ. 1983 में ठाकुर रामलाल को आंध्र प्रदेश का गवर्नर नियुक्त किया गया. तेलगु देशम पार्टी के एनटी रामाराव राज्य के मुख्यमंत्री थे.

रामाराव बहुमत साबित करने के बाद इलाज कराने के लिए अमेरिका गए. इसी बीच ठाकुर रामलाल ने उनकी सरकार भंग कर दी. रामाराव सरकार में वित्त मंत्री एन भास्कर राव को मुख्यमंत्री बना दिया गया. 

राज्यपाल के इस फैसले पर हैदराबाद से लेकर दिल्ली तक काफी बवाल मचा. केंद्र ने आनन-फानन में ठाकुर रामलाल की जगह पर शंकर दयाल शर्मा को राज्यपाल बनाकर आंध्र प्रदेश भेजा.

शंकर दयाल शर्मा ने डैमेज कंट्रोल करते हुए फिर से एनटी रामाराव को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवाई. भास्कर राव कैबिनेट से बाहर हो गए.

3. बोम्मई सरकार गिरी, ऐतिहासिक फैसला आया
साल था 1988 और कर्नाटक में सरकार थी एसआर बोम्मई की. केंद्र की राजीव गांधी सरकार ने पी वेंकेटसुबैया को गवर्नर की कमान सौंपी. 

वेंकेटसुबैया ने बोम्मई की सरकार को यह कहते हुए गिरा दिया कि उनके पास बहुमत नहीं है. बोम्मई ने राज्यपाल के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी.

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की लंबी सुनवाई की और कहा कि बहुमत का फैसला सिर्फ और सिर्फ सदन में होगा. अगर राज्यपाल को लगता है कि सरकार के पास बहुमत नहीं है, तो मुख्यमंत्री को सदन में बहुमत साबित करने का निर्देश दे सकती है.

4. राज्यपाल ने पहले सीएम बनाया, दिल्ली का फरमान गया तो हटा दिया
साल 2005 में झारखंड विधानसभा का रिजल्ट आया. 81 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी 30 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बन गई. जेएमएम को 17 और उसके सहयोगी कांग्रेस को 9 सीटें मिली. राज्य के राज्यपाल थे सैयत सिब्ते रजी. 

राज्यपाल ने बीजेपी को छोड़ जेएमएम के शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी. राज्यपाल ने सोरेन को बहुमत साबित करने का वक्त भी दे दिया. राज्यपाल के इस फैसले की सभी ओर आलोचना होने लगी. 

उस वक्त झारखंड में कांग्रेस प्रभारी थे हरिकेश बहादुर. बहादुर सरकार बनाने के लिए शुरू में खूब जोड़-तोड़ किए, लेकिन जब बहुमत मिलता नहीं दिखा तो उन्होंने दिल्ली में शिकायत लगा दी. दिल्ली से फरमान जाने के बाद राज्यपाल ने शिबू सोरेन से इस्तीफा मांग लिया. इसके बाद बीजेपी के अर्जुन मुंडा को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया. 

हालांकि, मुंडा की सरकार भी ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाई और फिर शिबू सोरेन राज्य के सीएम बनाए गए. 

5. कोर्ट ने पलटा राज्यपाल का फैसला, कु्र्सी भी गई
1998 में कल्याण सिंह की सरकार से कुछ विधायक बगावत कर बैठे. राज्यपाल थे रोमेश भंडारी. उन्होंने रातों-रात कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया. भंडारी ने जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री की शपथ दिलवा दी.

भंडारी के इस फैसले को कल्याण सिंह ने हाईकोर्ट में चुनौती दी. हाईकोर्ट ने सुनवाई के बाद जगदंबिका पाल को हटाकर कल्याण सिंह सरकार को बहाल कर दिया. 

कोर्ट ने साथ ही यह भी आदेश दिया कि किसी भी सरकारी सूची में जगदंबिका पाल को पूर्व मुख्यमंत्री न बताया जाए. कोर्ट के फैसले से राज्यपाल की खूब किरकिरी हुई.

केंद्र ने रोमेश भंडारी पर गाज गिरा दिया. उन्हें यूपी के राज्यपाल पद से हटा दिया गया. उनकी जगह मोहम्मद शफी कुरैशी को यूपी का गवर्नर बनाया गया.

6. पहले बहुमत साबित करने की तारीख दी, फिर सरकार गिरा दी
केंद्र में बीजेपी सरकार आने के बाद 2016 में पहली बार ऑपरेशन लोटस की शुरुआत हुई. चपेट में आया कांग्रेस शासित प्रदेश उत्तराखंड. हरीश रावत सरकार से कांग्रेस के 9 विधायकों ने बगावात कर दी.

तत्कालीन राज्यपाल केके पॉल ने संवैधानिक संकट का हवाला देते हुए हरीश रावत से बहुमत साबित करने के लिए कहा. इसी बीच राज्यपाल ने एक रिपोर्ट केंद्र को भेज दी. केंद्र ने आनन-फानन में एक मीटिंग की और राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर दी.

राष्ट्रपति ने केंद्र की सिफारिश को मानते हुए राष्ट्रपति शासन लगा दिया. हरीश रावत इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गए. कोर्ट में अटॉर्नी जनरल ने दलील दी कि राष्ट्रपति के फैसले की समीक्षा नहीं हो सकती है.

सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सख्त टिप्पणी की. कोर्ट ने कहा कि लोकतंत्र में राष्ट्रपति राजा नहीं होता है. हरीश रावत को बहुमत साबित करने का मौका मिलना चाहिए. राष्ट्रपति शासन को कोर्ट ने हटा दिया. कोर्ट के फैसले के बाद हरीश रावत ने विधानसभा में बहुमत साबित कर दिया. 

7. फैक्स मशीन खराब होने का बहाना और कर दिया विधानसभा भंग
जम्मू-कश्मीर में सियासी उठापटक के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस और पीडीपी ने मिलकर सरकार बनाने का दावा किया. तीनों पार्टियों ने एक लेटर तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मलिक को भेज दिया. इधर, मलिक ने केंद्र से विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी.

तीनों दलों ने विरोध किया तो सत्यपाल मलिक ने कहा कि राजभवन की फैक्स मशीन खराब है और उन्हें लेटर नहीं मिला. राज्यपाल के इस बयान की चारों ओर तीखी आलोचना हुई. इसके बाद जम्मू-कश्मीर का इतिहास और भूगोल बदल गया. 

कश्मीर में पिछले 4 सालों से विधानसभा के चुनाव नहीं हुए हैं. अमूमन विधानसभा भंग होने के 6 महीने के भीतर चुनाव कराए जाते हैं. कश्मीर अब राज्य से केंद्रशासित प्रदेश बन चुका है. 

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