Uddhav Thackeray: महाराष्ट्र की राजनीति में बालासाहेब ठाकरे का लंबे वक्त तक दबदबा रहा था. लेकिन आज उनकी पार्टी शिवसेना दो धड़े में बंट चुकी है. एक तरफ खुद उनके बेटे और पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे  हैं, तो दूसरी ओर कभी बालासाहेब ठाकरे के करीबी रहे और फिलहाल महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे शिवसेना पर अपनी दावेदारी जता रहे हैं.


महाराष्ट्र की सत्ता हाथ से जाने के बाद उद्धव ठाकरे अपनी सियासी जमीन को मजबूत करने के लिए हर दांव-पेंच आजमा रहे हैं. इस बीच बतौर शिवसेना अध्यक्ष उनका कार्यकाल 23 जनवरी तक ही है. ऐसे में ये सवाल उठ रहा है कि क्या उद्धव ठाकरे शिवसेना के अध्यक्ष बने रहेंगे.


पार्टी अध्यक्ष बने रहने पर संकट


यहां पर सबसे बड़ी समस्या ये है कि उद्धव ठाकरे गुट और एकनाथ शिंद गुट के बीच की लड़ाई पर अभी चुनाव आयोग की ओर से कोई फैसला नहीं किया गया है. दोनों ही गुट खुद को असली शिवसेना बता रहे हैं. पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उद्धव ठाकरे के दोबारा अध्यक्ष चुने जाने पर कोई फैसला हो सकता है, लेकिन इसमें पेंच ये फंस रहा है कि चुनाव आयोग से अभी तक उद्धव ठाकरे गुट को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक करने की अनुमति नहीं मिली है. उद्धव ठाकरे गुट ने चुनाव आयोग से अनुरोध किया था कि उद्धव को अध्यक्ष के रूप में जारी रखने के लिए पार्टी को आंतरिक चुनाव कराने या यथास्थिति बनाए रखने की अनुमति दी जाए. हालांकि, चुनाव आयोग की तरफ से इस पर कुछ भी नहीं कहा गया है. इसी वजह से पार्टी नेता अनिल परब ने भी कहा है कि इस मसले पर चुनाव आयोग से कोई ख़ास निर्देश नहीं मिला है, इसलिए उद्धव ठाकरे इस पद पर बने रहेंगे.


बिना चुनाव के भी बने रहेंगे अध्यक्ष!


उद्धव ठाकरे के प्रति वफादार गुट दावा कर रहा है कि चुनाव आयोग की अनुमति के बिना भी उद्धव शिवसेना के अध्यक्ष बने रने में कोई समस्या नहीं है. शिवसेना नेता संजय राउत ने कहा है कि अध्यक्ष को लेकर पार्टी फैसला करेगी और हमारी पार्टी के लिए अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ही होंगे. उद्धव गुट के बाकी दूसरे नेताओं के सुर भी ऐसे ही हैं. इनमें शिवसेना विधायक भास्कर जाधव और शिवसेना के विधान परिषद के विपक्ष के नेता अंबादास दानवे भी शामिल हैं. इन लोगों का भी कहना है कि उद्धव बिना चुनाव के भी पार्टी अध्यक्ष बने रहेंगे. इन लोगों का कहना है कि पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए किसी अनुमति की जरूरत नहीं है और हमने सिर्फ कानूनी औपचारिकताओं का पालन करने के लिए चुनाव आयोग से अनुमति मांगी थी. उद्धव ठाकरे गुट के नेता ये भी दलील दे रहे हैं कि 2018 में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद से उद्धव ठाकरे के अध्यक्ष पद पर दोबारा चुने जाने को लेकर किसी ने भी आपत्ति नहीं जताई थी.


एकनाथ शिंदे गुट को है आपत्ति


एकनाथ शिंदे गुट का कुछ और ही कहना है. एकनाथ शिंदे की अगुवाई में एक धड़े ने जून 2022 में बगावत कर खुद को असली शिवसेना होने का दावा किया. इसके साथ ही इस गुट ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ शिवसेना के गठबंधन से अलग होकर बीजेपी के साथ मिलकर महाराष्ट्र में नई सरकार बनाई. इस धड़े के नेता एकनाथ शिंदे उद्धव ठाकरे की जगह 30 जून 2022 को महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री बने. उस वक्त से एकनाथ शिंदे गुट का कहना है कि शिवसेना के पार्टी प्रमुख के पद पर उद्धव ठाकरे की नियुक्ति ही अवैध है. इस गुट की दलील रही है कि नवंबर 2012 में  बालासाहेब ठाकरे के निधन के बाद उद्धव ठाकरे ने ग़लत तरीके से शिवसेना की सारी शक्तियां अपने हाथ में ले ली और खुद ही अध्यक्ष बन बैठे. बालासाहेब के निधन के दो महीने बाद 23 जनवरी 2013 को उद्धव ठाकरे पहली बार शिवसेना के अध्यक्ष बने थे. इस गुट का कहना है कि जब बालासाहेब जीवित थे, तो उद्धव ठाकरे शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष थे और उन्होंने गुपचुप तरीके से पार्टी में बदलाव कर दिया, जो पार्टी संविधान के खिलाफ है.


शिवसेना के संविधान में नहीं है पद


शिवसेना अध्यक्ष पद को लेकर एक बड़ा ही दिलचस्प पहलू है, जिसका दोनों ही गुट अपने-अपने हिसाब से इस्तेमाल कर रहे हैं. शिवसेना के मूल संविधान में मुख्य नेता (Chief Leader) पद के लिए कोई प्रावधान नहीं है. इसी बात पर उद्धव ठाकरे गुट का कहना है कि एकनाथ शिंदे का खुद से ही इस पद के लिए चुन लिया जाना पार्टी के संविधान के खिलाफ है. यहीं दलील एकनाथ शिंदे गुट भी उद्धव ठाकरे के खिलाफ देता है.


चुनाव चिह्न पर नहीं हुआ है फैसला


फिलहाल उद्धव ठाकरे गुट को शिवसेना (यूबीटी) के नाम से जाना जाता है, इस गुट को अभी चुनाव आयोग से मशाल चुनाव चिह्न मिला हुआ है.  वहीं एकनाथ शिंदे गुट को 'बालासाहेबांची शिवसेना' के नाम से जाना जा रहा है और फिलहाल चुनाव आयोग से इस गुट को  'दो तलवार और ढाल' का चुनाव चिह्न मिला हुआ है. उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे दोनों ही धड़े पार्टी के पुराने चुनाव चिह्न 'धनुष और तीर' पर अपना-अपना दावा जता रहे हैं. चुनाव आयोग से इस बारे में फैसला होना बाकी है. दोनों ही धड़े निर्वाचन आयोग के सामने अपना पक्ष रख चुके हैं. आयोग ने दोनों ही गुटों को लिखित में अपनी दलीलें देने के लिए 30 जनवरी तक का मोहलत दिया है. ऐसे में उम्मीद है कि फरवरी में ये साफ हो जाएगा कि शिवसेना और पुराने चुनाव चिन्ह पर किसकी दावेदारी बनती है. उद्धव ठाकरे के भरोसेमंद संजय राउत ने भरोसा जताया है कि चुनाव आयोग के फैसले के बाद सिर्फ एक शिवसेना होगी, असली शिवसेना, जिसका नेतृत्व उद्धव ठाकरे करेंगे.


दोनों ही गुट दे रहे हैं दलील


शिवसेना के एकनाथशिंदे गुट ने चुनाव आयोग के सामने 1971 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया है. इस फैसले में कोर्ट ने चुनाव आयोग के पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले एक समूह को मूल कांग्रेस के रूप में मान्यता देने के फैसले को सही ठहराया था. इसी फैसले के आधार पर एकनाथ शिंदे गुट खुद को बालासाहेब ठाकरे के द्वारा बनाई गई पार्टी का उत्तरधिकारी बताती है. शिंदे गुट ने चुनाव आयोग के सामने सादिक अली जजमेंट का हवाला दिया है. सुप्रीम कोर्ट का सादिक अली का जजमेंट 1969 के राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार की हार को सुनिश्चित करने के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रयासों के बाद कांग्रेस में विभाजन से जुड़े मामले से संबंधित है. इस जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राजनीतिक दल के चुनाव चिह्न पर कोई भी फैसला लेने का अधिकार चुनाव आयोग के पास ही है. एकनाथ शिंदे गुट का कहना है कि उसके पास बहुमत है और यही असली परीक्षा है. शिंदे गुट ने आयोग के पास दलील दी है कि उसके पास शिवसेना के 56 में से 40 विधायकों का समर्थन है. इसके साथ ही लोकसभा के 18 पार्टी सांसदों में से 13 भी उसके साथ हैं.


'पार्टी का विभाजन हुआ ही नहीं'


इसके विपरीत उद्धव ठाकरे गुट की दलील है कि पार्टी सिर्फ सांसद और विधायकों से नहीं बनती. इसमें राष्ट्रीय कार्यकारिणी और पार्टी संगठन भी शामिल होते हैं और इस मामले में उद्धव गुट का दावा है कि उसके पास बहुमत है. उद्धव गुट अपनी दावेदारी को मजबूत बताते हुए कहता है कि शिंदे गुट ने जिस सादिक अली जजमेंट का हवाला दिया है, वो यहां लागू ही नहीं होता. इस गुट ने चुनाव आयोग से कहा है कि जब पार्टी में समान विभाजन होता है तभी निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या पर विचार किया जाता है. उद्धव गुट चुनाव आयोग के सामने दावा कर रहा है कि शिवसेना के मामले में कोई विभाजन नहीं हुआ है. कुछ सदस्यों ने दल-बदल किया है और पार्टी संगठन पूरी तरह से उद्धव ठाकरे के साथ खड़ा है.


जून 2022 से चल रही है लड़ाई


जून 2022 से एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे गुट के बीच असली शिवसेना होने की लड़ाई चल रही है. चुनाव आयोग ने अक्टूबर 2022 में अंतरिम आदेश के तहत दोनों ही गुटों की ओर से शिवसेना के पुराने चुनाव चिन्ह 'तीर और धनुष' के इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी. इसके बाद दोनों ही गुटों को फौरी तौर पर अलग-अलग नाम और चुनाव चिन्ह इस्तेमाल करने को कहा गया था. चुनाव आयोग ने अंतिम फैसला आने तक दोनों ही गुटों से इसे मानने को कहा था.


चुनाव आयोग के फैसले का इंतजार


भले ही उद्धव ठाकरे का अध्यक्ष पद पर कार्यकाल सैद्धांतिक तौर से 23 जनवरी तक ही था, लेकिन उनके गुट के लिए पार्टी प्रमुख तो वे बने ही रहेंगे. अब सबकुछ चुनाव आयोग के फैसले पर निर्भर करता है. अगर उद्धव ठाकरे के पक्ष में आयोग का फैसला आता है, तो उसके बाद उनके लिए फिर से शिवसेना का अध्यक्ष बनना आसान हो जाएगा. लेकिन जिस तरह से एकनाथ शिंदे के पास विधायकों और सांसदों का ज्यादा समर्थन है, इतना आसान नहीं है कि आयोग का फैसला उद्धव ठाकरे के पक्ष में जाए. इसके साथ ही पार्टी के 16 बागी विधायकों की अयोग्यता का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. उद्धव ठाकरे गुट चाहता है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद ही चुनाव आयोग चुनाव चिह्न पर कोई फैसला करे.  


सियासी ज़मीन मजबूत करने की चुनौती


उद्धव ठाकरे के सामने अध्यक्ष पद से भी ज्यादा बड़ी चुनौती उनकी अगुवाई वाले गुट की सियासी जमीन को महाराष्ट्र में मजबूत करने की है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि एकनाथ शिंदे के बगावत के बाद उद्धव की अगुवाई वाली शिवसेना कमजोर हो गई है. इस गुट के समाने पहचान की संकट के साथ ही भविष्य में चुनावी जीत हासिल करने की भी चुनौती है. फिलहाल कांग्रेस और एनसीपी के साथ उद्धव ठाकरे का महा विकास अघाड़ी गठबंधन बरकरार है, लेकिन उन्हें अच्छे से अंदाजा है कि भविष्य में ये दोनों ही पार्टियों उनसे किनारा कर सकती है. ऐसे भी एकनाथ शिंदे भी एनीसपी नेता शरद पवार पर डोरे डाल रहे हैं. इसी वजह से हाल फिलहाल में कई ऐसे मौके आए जब एकनाथ शिंदे ने शरद पवार की खुलकर तारीफ की.


नए समीकरण बनाने पर ज़ोर


उद्धव ठाकरे नए समीकरणों पर ध्यान दे रहे हैं. इसी कड़ी में बालासाहेब की जयंती के मौके पर सोमवार (23 जनवरी) को शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) ने प्रकाश अंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी (VBA) के साथ गठबंधन का ऐलान किया. वैचारिक मतभेदों के बावजूद ये गठजोड़ देखने को मिला है. इससे जाहिर है कि दोनों ही पक्ष खुद को मजबूत करने के लिए एक-दूसरे का सहारा बनना चाहते हैं. मुंबई में गठबंधन का ऐलान करते हुए उद्धव ठाकरे भावनात्मक लाभ लेने की कोशिश में दिखे. उन्होंने कहा कि मेरे दादा और प्रकाश अंबेडकर के दादा सहकर्मी थे. उन्होंने प्रकाश अंबेडकर का समर्थन करने वाले समुदाय को ये संदेश देने की कोशिश की कि शिवसेना का जुड़ाव इस समुदाय से पहले से रहा है और आने वाले वक्त में ये और भी मजबूत होगा. वहीं प्रकाश अंबेडकर ने इसे नई राजनीति की शुरुआत बताया.


बीएमसी चुनाव के लिहाज से अहम


जल्द होने वाले बीएमसी चुनाव के लिहाज ये जुगलबंदी काफी मायने रखती है. एकनाथ शिंदे गुट के अलग होने  के बाद उद्धव ठाकरे की पहली बड़ी परीक्षा बीएमसी चुनाव में ही होने वाली है.  उद्धव ठाकरे और प्रकाश अंबेडकर ने बीएमसी चुनाव (बृहन्मुंबई नगर निगम) मिलकर लड़ने का फैसला किया है. इन दोनों के गठबंधन की चर्चा काफी दिनों से हो रही थी. इससे पहले फरवरी 2017 में बीएमसी का चुनाव हुआ था. उस वक्त शिवसेना ने बीएमसी की 227 में 84 सीटों पर जीत दर्ज कर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. वहीं 82 सीट के साथ बीजेपी दूसरे नंबर पर रही थी. लेकिन मार्च में संभावित चुनाव में उद्धव ठाकरे के गुट के लिए पिछली बार से बिल्कुल बदले हालात हैं. इस बार बीएमसी में वार्ड की संख्या बढ़कर 236 हो गई है. इनमें 127 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं. वहीं अनुसूचित जाति के लिए 15 सीटें और एसटी के लिए 2 सीटें आरक्षित हैं. पिछली बार बीजेपी और शिवसेना मिलकर बीएमसी चुनाव लड़ी थी. इस बार शिवसेना के शिंदे गुट के साथ बीजेपी है.


महाराष्ट्र में ताकत बढ़ाने की कोशिश


जैसा कि हम सब जानते है कि पिछले विधानसभा चुनाव में शिवसेना को 56 सीटों पर जीत मिली थी, लेकिन अब उनमें से 40 विधायक एकनाथ शिंदे के गुट में चले गए हैं. इससे उद्धव ठाकरे के सामने महाराष्ट्र में  खुद को साबित करने की चुनौती है. अगले साल लोकसभा और विधानसभा चुनाव भी होना है. उसके लिए जमीन तैयार करने से पहले बीएमसी चुनाव में उद्धव ठाकरे अपनी ताकत दिखाना चाह रहे हैं और इसी दांव के तहत उन्होंने भीम राव अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर के साथ गठजोड़ किया है.


प्रकाश अंबेडकर कितनी बड़ी ताकत?


अकोला से दो बार लोकसभा सांसद और एक बार राज्यसभा सांसद रह चुके प्रकाश अंबेडकर ने मार्च 2018 में अपनी पार्टी 'वंचित बहुजन अघाड़ी' का गठन किया था. महाराष्ट्र के कई संगठन इस अघाड़ी को अपना समर्थन देते हैं. प्रकाश अंबेडकर की पार्टी ने 2019 में असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम के साथ गठबंधन कर  लोकसभा चुनाव लड़ा था.  वंचित बहुजन अघाड़ी ने 48 में से 47 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे और एक सीट औरंगाबाद पर ओवैसी की पार्टी चुनाव लड़ी थी.  इस सीट पर ओवैसी की पार्टी जीत गई, लेकिन प्रकाश अंबेडकर की पार्टी कोई भी सीट जीतने में कामयाब नहीं रही. इसके बावजूद उसे करीब 7 प्रतिशत वोट मिल गए थे. हालांकि अक्टूबर 2019 में विधानसभा चुनाव से पहले ही प्रकाश अंबेडकर और ओवैसी की पार्टियों का गठबंधन टूट गया. विधानसभा चुनाव में भी प्रकाश अंबेडकर की पार्टी कोई सीट नहीं जीत पाई, लेकिन सभी 288 सीटों पर चुनाव लड़कर साढ़े चार फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करने में कामयाब रही. महाराष्ट्र की आबादी में करीब 12 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग हैं और इनके बीच प्रकाश अंबेडकर की पार्टी का जनाधार अच्छा माना जाता है. इसके अलावा उनकी पार्टी को मुस्लिमों का भी वोट मिलते रहा है. उद्धव ठाकरे की नज़र प्रकाश अंबेडकर के जरिए इसी वोट बैंक पर है.


टूट के बाद खड़े होने की कोशिश


प्रकाश अंबेडकर से हाथ मिलाकर उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के दलित, मराठा, मुस्लिम और ओबीसी के बीच पकड़ बढ़ाना चाह रहे हैं. इसके साथ ही आगामी चुनावों में कांग्रेस और एनसीपी के साथ नई ताकत को जोड़ कर वे बीजेपी-शिंदे गठबंधन की काट भी खोज रहे हैं. हालांकि कांग्रेस के साथ प्रकाश अंबेडकर का 36 का आंकड़ा रहा है. वहीं शरद पवार के प्रति प्रकाश अंबेडकर का झुकाव रहा है. लेकिन शरद पवार कह चुके हैं कि वे गठबंधन से जुड़े विषय में पड़ना नहीं चाहते हैं. उधर मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे उद्धव ठाकरे और प्रकाश अंबेडकर के गठबंधन को कमजोर करने के लिए लगातार दलित नेताओं के साथ बैठक कर रहे हैं.  


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