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महात्मा गांधी पुण्यतिथि विशेष: 'हिंदू होने का गर्व है लेकिन मेरा धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी'

महात्मा गांधी के धर्म को लेकर विचार को देखें तो 8 मई 1925 में 'नवजीवन' में उन्होंने लिखा, '' धर्म को बनाए रखना न ब्राह्मणों के हाथ में है और न पुरुषों के, उसे बचाए रखना स्त्रियों के हाथ में है. समाज का आधार स्तंभ घर है और धर्म का विकास घर से होता है.''

नई दिल्लीः 30 जनवरी 1948, यह वही दिन था जब शाम पांच बजकर पंद्रह मिनट पर महात्मा गांधी बिरला हाउस के प्रार्थना स्थल की तरफ़ बढ़ रहे थे, तभी ठीक दो मिनट बाद नाथूराम गोडसे ने अपनी बेरेटा पिस्टल की तीन गोलियां महात्मा गांधी के शरीर में उतार दी. उन तीन गोलियों ने महात्मा गांधी के शरीर को तो खत्म कर दिया लेकिन न तो गोलियां अंहिसा के विचार को मार पाई और न सत्य के उस राह को खत्म कर पाई जिसे बापू सबको दिखा गए थे. इसका मतलब बापू के बाद भी उनके विचार जिंदा रहे, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद से ही उनके खिलाफ कई तरह के एकपक्षीय विवरण प्रस्तुत कर उन्हें भारत विभाजन के लिए जिम्मेवार साबित करने की कोशिश हुई. साथ ही उन्हें हिन्दुओं से ज्यादा मुसलमानों के पक्ष में होने की भ्रांति भी सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से फैलाई गई. ऐसे में आज उनकी पुण्यतिथि पर यह जानना बेहद जरूरी हो जाता है कि महात्मा गांधी 'धर्म' और खासकर हिन्दू धर्म के बारे में क्या सोचते थे. क्या उनके विचार वाकयी हिन्दुओं के खिलाफ थे जिसकी वजह से इसी धर्म से ताल्लुक रखने वाले एक शख्स ने उन्हें गोली मार दी.

महात्मा गांधी का विश्वास था कि, ''सब धर्मों का लक्ष्य एक ही है.''. एक बार उनसे हिन्दू धर्म की परिभाषा पूछी गई. बापू ने कहा,''मैं एक सनातनी हिन्दू हूं लेकिन मैं हिन्दू धर्म की व्याख्या नहीं कर सकता. हां एक समान्य मनुष्य की तरह मैं कह सकता हूं कि हिन्दू धर्म सभी धर्मों को, सब तरह से आदर पात्र समझता है.''

धर्म को लेकर महात्मा गांधी के विचार

सस्ता साहित्य मण्डल, जिसकी स्थापना सन् 1925 में महात्मा गांधी की प्रेरणा से हुई. उस प्रकाशक संस्था की किताब ''गांधी संस्मरण और विचार'' में लिखा है कि 1928 में गांधी जी ने ''अन्तराष्ट्रीय बंधुत्व संघ'' के सामने भाषण देते हुए कहा था कि लंबे अध्यन और अनुभव के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं-

1- सभी धर्म सच्चे हैं. 2- सब धर्मों में कोई न कोई खराबी है. 3- सभी धर्म मुझे उतना ही प्रिय है जितना हिन्दू धर्म.

महात्मा गांधी ने कहा, '' मैं अन्य मतों का भी उतना ही आदर करता हूं जितना अपने मत का. मेरा हिन्दू धर्म मुझे वह सबकुछ प्रदान करता है जो मेरे उत्थान के लिए जरूरी है. मैं चाहता हूं दूसरे धर्म के लोग भी अपने धर्म में उन्नती करें. एक ईसाई एक अच्छा ईसाई बन सके और एक मुसलमान एक अच्छा मुसलमान.''

''गांधी संस्मरण और विचार'' नामक पुस्तक में आगे 26 जनवरी 1948 के प्राथना प्रवचन का जिक्र है. इस दौरान महात्मा गांधी ने कहा,''मैने बचपन से हिन्दू धर्म का अभ्यास किया. जब मैं छोटा था तब भूत-प्रेतों के डर से बचने के लिए मेरी दाई मुझे राम नाम लेने को कहती थी. बाद में मैं ईसाईयों, मुसलमानों और दूसरे धर्म के मानने वालों के संपर्क में आया और उनके ग्रंथों को पढ़ा, लेकिन इन सबके बावजूद मैं हिन्दू धर्म अपनाए रहा. मेरा विश्वास अपने धर्म में आज भी उतना ही प्रबल है. जितना मेरे बचपन में था.''

धर्म और स्त्री को लेकर महात्मा गांधी के विचार

इससे काफी पहले भी महात्मा गांधी के धर्म को लेकर विचार को देखें तो 8 मई 1925 में 'नवजीवन' में उन्होंने लिखा, ''धर्म को बनाए रखना न ब्राह्मणों के हाथ में है और न पुरुषों के, उसे बचाए रखना स्त्रियों के हाथ में है. समाज का आधार स्तंभ घर है और धर्म का विकास घर से होता है.''

वहीं अमृत बाजार पत्रिका में 20 मई 1934 में गांधी जी के एक लेख में अस्पृश्यता को लेकर लिखा है, ''मेरा विश्वास है कि हरिजनों को भी मंदिरों में पूजा करने का अवसर मिले. यह उनका भी उतना ही अधिकार है जितना अन्य हिन्दुओं का.'' यानी महात्मा गांधी उस हिन्दुत्व में विश्वास रखते थे जो बराबरी की बात करता है.

गांधी जी को अपने हिन्दू धर्म पर गर्व था और जब तक जीवित रहे रहा भी, लेकिन वह इस धर्म को मानने वालों के द्वारा खुद को देश में सबसे शक्तिशाली बताने वालों के वह सख्त खिलाफ थे. हरिजन में गांधी जी ने लिखा, ''देश जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों, यहूदियों, हिंदुस्तानी ईसाइयों, मुसलमानों और दूसरे गैर-हिंदुओं का भी है. आज़ाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा, और वह किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा."

महात्मा गांधी का साफ मानना था कि "धर्म एक निजी विषय है, जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए. लेकिन सांप्रदायिकता का उन्माद जगाकर सत्ता की राजनीति का खेल तब शुरू हुआ और देश का विभाजन हो गया.

वीर सावरकर हो या मुस्लिम लीग, शायर इक़बाल हो या मोहम्मद अली जिन्ना सबने द्विराष्ट्र सिद्धांत का बीज बोया. कांग्रेस के कई नेताओं ने भी इस आग में घी डालने का काम किया लेकिन महात्मा गांधी अपनी अंतिम सांस तक इससे असहमत रहे.

जब महात्मा गांधी ने कहा था मुझे हिंदू होने पर गर्व है

'पूर्णाहुति' नामक किताब जो मूल अंग्रेजी किताब 'लास्ट फेज'का अनुवाद है, इस किताब में गांधी जी का ने कहा है, "मुझे हिंदू होने का गर्व अवश्य है लेकिन मेरा हिंदू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी. हिंदू धर्म की विशिष्टता, जैसा मैंने उसे समझा है, यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है."

इसका साफ मतलब है कि महात्मा गांधी एक ऐसे हिन्दुत्व में विश्वास रखते थे जो बराबरी की बात करता है, जो प्रेम की बात करता है, जो समानता की बात करता है. उनका हिन्दुत्व असहिष्णु और बहिष्कारवादी नहीं था.

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महात्मा गांधी को गोली मारकर खत्म कर दिया गया. खत्म करने वाले वही लोग थे जो उनसे असहमत थे. बापू ने सारी उम्र दूसरों के असहमति को स्वीकार किया लेकिन कभी हिंसा का मार्ग नहीं चुना. इसलिए आज भी महात्मा गांधी के विचार देश के युवाओं को आपसी भाईचारा, प्रेम और अहिंसा का पाठ पढ़ाते हैं.

बापू पर गोली चलाने को लेकर लाल क़िले में चले मुक़दमे में न्यायाधीश आत्मचरण की अदालत ने नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी की सज़ा सुनाई. इन दोनों के अलावा पांच अन्य आरोपी विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किस्तैया, गोपाल गोडसे और दत्तारिह परचुरे को उम्रकैद की सज़ा मिली. बाद में हाईकोर्ट ने किस्तैया और परचुरे को बरी कर दिया.

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