Mahua Moitra Case: भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सांसद निशिकांत दुबे ने तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सांसद महुआ मोइत्रा पर सदन में प्रश्न पूछने के लिए एक बिजनेसमैन से रिश्वत लेने का आरोप लगाया. बीजेपी सांसद ने इसकी शिकायत लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला से पत्र लिखकर की. इसके बाद ओम बिरला ने इस शिकायत को सदन की आचार समिति के पास भेज दिया जिस पर पैनल कार्रवाई में शामिल होने के लिए तैयार हो गया.


निशिकांत दुबे की ओर से लगाए गए आरोपों का जवाब देते हुए महुआ मोइत्रा ने कहा कि लोकसभा अध्यक्ष को उनके खिलाफ कोई भी प्रस्ताव लाने से पहले निशिकांत दुबे और बीजेपी के दूसरे नेताओं के खिलाफ लंबित विशेषाधिकारों के उल्लंघनों की जांच करनी चाहिए.


समिति के सदस्यों में कौन-कौन?


इस समिति के सदस्यों की नियुक्ति एक साल के लिए होती है और वर्तमान में इसके अध्यक्ष बीजेपी के विनोद कुमार सोनकर हैं. इसके सदस्यों की अगर बात की जाए तो इसमें बीजेपी के विष्णु दत्त शर्मा, सुमेधानंद सरस्वती, अपराजिता सारंगी, डॉ. राजदीप रॉय, सुनीता दुग्गल और सुभाष भामरे के अलावा कांग्रेस के वी वैथिलिंगम, एन उत्तम कुमार रेड्डी, बालाशोवरी वल्लभनेनी और परनीत कौर, शिवसेना के हेमंत गोडसे, जेडीयू के गिरिधारी यादव, सीपीआईम के पीआर नटराजन और बीएसपी के दानिश अली हैं.


संसद की वेबसाइट के मुताबिक, दो दशक पहले अस्तित्व में आने वाली समिति की आखिरी बैठक 27 जुलाई, 2021 को हुई थी. समिति ने अब तक कई शिकायतें सुनीं लेकिन ये बेहद हल्के मामलों की रही हैं. अधिक गंभीर शिकायतें या तो विशेषाधिकार समिति या विशेष रूप से सदन की गठित समिति ने सुनी हैं.


कैश फॉर क्वेरी मामले में 11 सांसद हो गए थे निलंबित


साल 2005 में पी के बंसल समिति की रिपोर्ट के आधार पर कैश-फॉर-क्वेरी घोटाले में 11 सांसदों को निष्कासित कर दिया गया था जिसमें 10 लोकसभा से और एक राज्यसभा सदस्य शामिल थे. बंसल कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद थे. उस वक्त बीजेपी ने सांसदों को निष्कासित करने के लोकसभा के फैसले का विरोध करते हुए मांग की कि बंसल समिति की रिपोर्ट विशेषाधिकार समिति को भेजी जाए ताकि सांसद अपना बचाव कर सकें.


पूर्व लोकसभा महासचिव पी डी टी आचार्य ने कहा कि 2005 के मामले में "बहुत सारे सबूत" थे. ये एक स्टिंग ऑपरेशन पर आधारित था. यहां चुनौती पश्चिम बंगाल के सांसद की ओर से पूछे गए सवालों को पैसे के लेन-देन से जोड़ने की होगी.  


साल 1996 में एथिक्स पैनल पर किया गया विचार


दिल्ली में साल 1996 में पीठासीन अधिकारियों के एक सम्मेलन के दौरान पहली बार संसद के दोनों सदनों के लिए एथिक्स पैनल के आइडिया पर विचार किया गया. उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति के आर नारायणन ने 4 मार्च, 1997 को उच्च सदन की आचार समिति का गठन किया. दो महीने बाद मई के महीने में सदस्यों के मोरल और एथिक आचरण की जांच करने और कदाचार के मामलों की जांच करने के लिए इसका आधिकारिक उद्घाटन किया गया. विशेषाधिकार समिति पर लागू नियम नैतिकता पैनल पर भी लागू होते हैं.


लोकसभा आचार समिति की उत्पत्ति कैसे हुई?


लोकसभा आचार समिति की उत्पत्ति अलग है. लोकसभा की विशेषाधिकार समिति के एक अध्ययन समूह ने विधायकों के आचरण और नैतिकता से संबंधित प्रथाओं को देखने के लिए साल 1997 में ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका का दौरा किया. इसने एक आचार समिति के गठन के लिए एक रिपोर्ट का मसौदा तैयार किया लेकिन रिपोर्ट को पटल पर रखे जाने से पहले ही लोकसभा भंग कर दी गई.


इसे 12वीं लोकसभा में पेश किया गया था लेकिन इससे पहले कि विशेषाधिकार समिति इस पर कोई विचार कर पाती, लोकसभा फिर से भंग कर दी गई. 13वीं लोकसभा के दौरान विशेषाधिकार समिति ने आखिरकार एक आचार समिति के गठन की सिफारिश की. दिवंगत अध्यक्ष जी एम सी बालयोगी ने 2000 में एक तदर्थ आचार समिति का गठन किया और यह 2015 में सदन का स्थायी हिस्सा बन गई.


आज की स्थिति के अनुसार, कोई भी व्यक्ति किसी सदस्य के खिलाफ किसी अन्य लोकसभा सांसद के माध्यम से कदाचार के सभी सबूतों और एक हलफनामे के साथ शिकायत कर सकता है. एक सदस्य भी किसी अन्य सदस्य के खिलाफ बिना किसी शपथ पत्र के सबूत के साथ शिकायत कर सकता है.


समिति केवल मीडिया रिपोर्टों या न्यायाधीन मामलों पर आधारित शिकायतों पर विचार नहीं करती है. अध्यक्ष किसी सांसद के खिलाफ कोई भी शिकायत समिति को भेज सकते हैं. समिति किसी शिकायत की जांच करने का निर्णय लेने से पहले प्रथम दृष्टया जांच करती है और शिकायत के मूल्यांकन के बाद अपनी सिफारिशें करती है. समिति की रिपोर्ट अध्यक्ष के सामने पेश की जाती है जो सदन से पूछता है कि क्या रिपोर्ट पर विचार किया जाना चाहिए? रिपोर्ट पर आधे घंटे की चर्चा का भी प्रावधान है.


विशेषाधिकार समिति से किस तरह से अलग है?


इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, आचार्य ने कहा कि आचार समिति और विशेषाधिकार समिति का काम अक्सर ओवरलैप होता है. किसी सांसद के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप किसी भी निकाय को भेजा जा सकता है क्योंकि इसमें विशेषाधिकार के गंभीर उल्लंघन और सदन की अवमानना ​​का आरोप शामिल है.


विशेषाधिकार समिति का कार्य "संसद की स्वतंत्रता, अधिकार और गरिमा" की रक्षा करना है. जबकि सांसदों पर भ्रष्टाचार के आरोपों पर विशेषाधिकार के उल्लंघन की जांच की जा सकती है, एक व्यक्ति जो सांसद नहीं है, उस पर भी सदन के अधिकार और गरिमा पर हमला करने वाले कार्यों के लिए विशेषाधिकार के उल्लंघन का आरोप लगाया जा सकता है. हालांकि, आचार समिति के मामले में, कदाचार के लिए केवल एक सांसद की जांच की जा सकती है.


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