पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने बीते 17 मार्च को अपने कालीघाट स्थित आवास पर तृणमूल कांग्रेस पार्टी के सभी शीर्ष नेताओं के साथ एक बैठक की. कहा जा रहा है कि इस बैठक में पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुसंख्यक जिले उत्तर दिनाजपुर के इस्लामपुर विधानसभा से 11 बार विधायक रहे अब्दुल करीम चौधरी शामिल नहीं हुए थे. उनके बैठक में शामिल न होने पर अटकलें लगाई जा रही है कि अब्दुल करीम चौधरी ने ममता बनर्जी का साथ छोड़ने का फैसला ले लिया है.
कभी टीएमसी के लिए मुस्लिम चेहरा रहे अब्दुल करीम चौधरी का पार्टी से अलग होने के फैसले से सत्तारूढ़ दल के नेता मुस्लिम वोटर्स को लेकर चिंतित है. साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले इतने बड़े चेहरे का पार्टी के खिलाफ जाना मुस्लिम वोट पर सेंध लगा सकती है.
अलग होने की अटकलें लगाने का क्या है कारण
दरअसल हाल ही में अब्दुल करीम चौधरी ने इस बैठक में शामिल होने के सवालों को लेकर कहा था कि बैठक में पार्टी आलाकमान निर्देश देगा. जिस बैठक में मेरे कुछ भी कहने की गुंजाइश नहीं है मैं वहां शामिल होकर क्या ही करूंगा.
पहले वोटर्स गए अब नेता बागी
इसी महीने की शुरुआत में पश्चिम बंगाल में सागरदिघी विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव के परिणाम में कांग्रेस को जीत मिली थी. इस जीत पर कांग्रेस सांसद अधीर रंजन चौधरी ने प्रतिक्रिया देते हुए राज्य की सत्ता पर काबिज तृणमूल कांग्रेस और सीएम ममता बनर्जी पर जमकर निशाना साधा था.
उन्होंने कहा कि पार्टी ने राज्य के मुसलमानों के साथ गद्दारी की है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या राज्य के मुसलमान सच में ममता बनर्जी की पार्टी से दूरी बना रहे है? अगर हां तो इसका लोकसभा चुनाव पर क्या असर होगा.
शुक्रवार को हुई बैठक का प्रमुख मुद्दा रहा अल्पसंख्यक क्षेत्र
पार्टी से मिली जानकारी के अनुसार शुक्रवार को हुए ममता बनर्जी की बैठक का सबसे मुख्य मुद्दा मुर्शिदाबाद जिले के सागरदिघी विधानसभा में हार पर चर्चा रही. मार्च में आए उपचुनाव परिणाम में कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस को 23,000 से ज्यादा वोटों के अंतर से हराया था. सागरदिघी में टीएमसी की हार को मुस्लिम वोटर की ममता बनर्जी से दूरी से जोड़कर इसलिए देखा जा रहा है.
1. सागरदिघी एक अल्पसंख्यक बाहुल्य क्षेत्र है और यहां मुसलमानों की आबादी 66.28 प्रतिशत है. यानी इस सीट पर मुस्लिम वोटरों का दबदबा है.
2. यह क्षेत्र पिछले 13 सालों से तृणमूल कांग्रेस का गढ़ रहा है. लोकसभा में भले कांग्रेस जीतती रही, लेकिन विधानसभा में टीएमसी को ही जीत मिलती थी.
ऐसे में पार्टी का इतने ज्यादा वोट से हार जाना टीएमसी के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है. साल 2011 के बाद पहली बार सागरदिघी में हार और अब पार्टी का मुस्लिम चेहरा अब्दुल करीम चौधरी का ममता की बैठक में नहीं शामिल होना मुस्लिम मतदाताओं के सत्तारूढ़ दल से दूर जाने के संकेत के रूप में देखा जा रहा है.
अब्दुल करीम चौधरी क्यों है टीएमसी के लिए जरूरी?
पश्चिम बंगाल में 11 बार विधायक रह चुके अब्दुल करीम चौधरी बंगाल की राजनीति में अहम माने जाते रहे हैं. वह तृणमूल कांग्रेस के जाने माने मुस्लिम नेता हैं. अब्दुल पहली बार साल 1967 से उत्तर दिनाजपुर जिले के इस्लामपुर विधानसभा क्षेत्र विधायक चुने गए थे. शुक्रवार से पहले उन्हें दिनाजपुर जिला कोर कमेटी की बैठक में भी बुलाया गया था जहां वह शामिल नहीं हुए थे. दिनाजपुर जिले में बैठक जिला अध्यक्ष कन्हैयालाल अग्रवाल ने बुलाया था.
इस्तीफे की धमकी दे चुके हैं
सूत्रों के अनुसार अब्दुल करीम चौधरी ने हाल ही में धमकी दी थी कि वह पार्टी विधायक पद से इस्तीफा दे देंगे. हालांकि उन्होंने पार्टी छोड़ने के बारे में कोई बयान नहीं दिया. अब्दुल तृणमूल कांग्रेस में बने रहेंगे, लेकिन बागी विधायक के तौर पर.
इसके अलावा अब्दुल ने कुछ दिनों पहले ही टीएमसी से दिनाजपुर जिले में बैठक जिला अध्यक्ष कन्हैयालाल अग्रवाल को पार्टी के जिलाध्यक्ष के पद से हटा की मांग की थी. उनका तर्क था कि जिले में पार्टी के भीतर अंतर्कलह को हवा देने में कन्हैयालाल की मुख्य भूमिका थी.
बंगाल में मुस्लिम आबादी कितनी है
2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की जनसंख्या में मुसलमानों की संख्या 27.01 प्रतिशत है. ये आबादी राज्य के कुल 23 जिलों में से छह जिले में केंद्रित हैं, हालांकि पूर्वी बर्दवान और हावड़ा जिलों में भी अच्छी खासी मुस्लिम आबादी है.
पश्चिम बंगाल की कुल मुस्लिम आबादी का 61 फीसदी यानी 2.46 करोड़ मुस्लिम आबादी में से 1.5 करोड़ आबादी राज्य की इन छह जिलों से रहती है. ये 6 जिले हैं मुर्शिदाबाद, मालदा, दक्षिण 24-परगना, उत्तर 24-परगना, बीरभूम और उत्तर दिनाजपुर. यही कारण है कि ये 6 जिले पश्चिम बंगाल में होने वाले लोकसभा या विधानसभा चुनाव परिणामों के पीछे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.
मुस्लिम से ममता की दूरी का 2024 में कितने सीटों पर होगा असर?
- मालदा उत्तर
- मालदा दक्षिण
- उत्तर दिनाजपुर
- मुर्शिदाबाद
- बीरभूम
- बशीरहाट
- बारासात
- कोलकाता दक्षिण
ममता बनर्जी के शासन में कितनी बदली मुसलमानों की स्थिति?
बीबीसी की एक खबर में बताया गया कि अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार जीतने वाले अमर्त्य सेन की संस्था प्रतिची इंस्टीट्यूट से जुड़े शब्बीर अहमद ने पश्चिम बंगाल के मुसलमानों की स्थिति पर सरकारी आंकड़ों और आरटीआई से प्राप्त जानकारी के आधार पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है.
जिसके अनुसार पश्चिम बंगाल की औसत साक्षरता दर 76.3 फीसदी है, वहीं मुसलमान समुदाय में यह दर 69.7% है. ग्रामीण इलाकों की बात करें तो यहां रहने वाले दस मुसलमान परिवारों में से लगभग आठ मुसलमान परिवारों मासिक आय पांच हजार या उससे कम है.
राज्य के शहरों में रह रहे लगभग एक-चौथाई मुसलमान परिवार ऐसे हैं जो एक महीने में ढाई हज़ार के क़रीब कमाते हैं, गांव में रह रहे ज्यादातर मुसलमान जहां खेती- मजदूरी कर अपना जीवन यापन करते हैं वहीं शहरों में रहने वाले मुसलमानों की बड़ी आबादी छोटे-मोटे काम धंधे करती है.
इसी रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार आने के बाद से पुलिस में मुसलमानों की भागीदारी बढ़ी है. साल 2008 की तुलना में इस वक्त यानी साल 2021 में यह वृद्धि दो प्रतिशत है. पश्चिम बंगाल में पुलिस में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 11.14 प्रतिशत है जो राज्य में उनकी आबादी के आधे से भी कम है. इनमें से ज़्यादातर लोग पुलिस सिपाही या कॉन्स्टेबल हैं.
ममता बनर्जी की सरकार में शिक्षा के क्षेत्र में क्या हुआ?
प्रतिची ट्रस्ट की रिपोर्ट 'लिविंग रिएलिटी ऑफ़ मुस्लिम इन वेस्ट बंगाल' साल 2016 में आई में थी. जिसके अनुसार पश्चिम बंगाल के गांव के इलाकों की तुलना टीएमसी के प्रभाव वाले इलाके यानी मसलन, हावड़ा और हुगली की करें तो यहां मुसलमानों की स्थिति कुछ बेहतर जरूर हुई है.
बीबीसी की एक खबर में हावड़ा स्थित पंचपारा हाई मदरसा के बड़े इमाम कहते हैं, "हां यह बात बिल्कुल सच है कि ममता बनर्जी की सरकार यानी तृणमूल कांग्रेस आने के बाद से शिक्षा की स्थिति बेहतर हुई है. अब बच्चों को राशन, कपड़ा, किताबें सब कुछ मिलता है. पुरानी सरकार की तुलना में इस सरकार ने बेहतर काम किया है. '
तो अब क्यों हैं मुसलमानों में नाराजगी
हाल ही में सागरदिघी में हुए उपचुनाव के परिणाम को देखते हुए ये बात तो साफ नजर आ रही है कि पहले की तरह अब पश्चिम बंगाल के मुसलमान ममता बनर्जी को सपोर्ट नहीं कर रहे हैं. यहां 64 फीसदी अल्पसंख्यक वोटरों में कांग्रेस को 47.35 फीसदी वोट मिले हैं. अब सवाल उठता है कि आखिर मुसलमान वोटर्स ममता बनर्जी से नाराज क्यों हैं?
मुसलमान वोटर्स नाराज क्यों, एक्सपर्ट से जानिए
पटना यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर वीर सिंह ने एबीपी से बातचीत करते हुए कहा, ' मुस्लिम समाज की ममता से नाराजगी की एक वजह यह मानी जा रही है कि राज्य के मुस्लिम समाज में शिक्षकों की नियुक्ति से लेकर आवास योजना सहित भ्रष्टाचार के विभिन्न मुद्दों ने वर्तमान शासक के प्रति “असंतोष” पैदा कर दिया है.
मुस्लिम समाज की ममता से नाराजगी की एक वजह सीएम ममता बनर्जी की बीजेपी के साथ बढ़ती नजदीकियां भी हो सकती है. कभी पीएम और बीजेपी पर वार करते रहने वाली ममता हाल के दिनों में मोदी पर सीधा हमला करने से बचती रही हैं.
ममता बनर्जी पहले भी कई बार अपने भाषण के दौरान तृणमूल की मुस्लिम वोटों पर ‘निर्भरता’ की बात कह चुकी हैं. लेकिन पिछले कुछ दिनों में उन्होंने सॉफ्ट हिंदुत्व की दो नीति अपनाई है वह अल्पसंख्यकों को रास नहीं आ रहा है. इसे लेकर लगातार कांग्रेस और माकपा मोदी और ममता बनर्जी के बीच दोस्ती का आरोप लगाते रहते हैं.
ममता पर विपक्ष ने कब-कब लगाएं मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप
ममता बनर्जी ने साल 2011 में पश्चिम बंगाल की सत्ता में आने के एक साल बाद से ही इमामों को ढाई हजार रुपए का मासिक भत्ता देने का ऐलान किया था. इस फ़ैसले का विपक्षों ने काफी आलोचना किया था. विपक्षों द्वारा खासकर बीजेपी ने उन पर मुस्लिम तुष्टीकरण के साथ हिंदू विरोधी होने के आरोप भी लगाए.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ से लेकर स्थानीय नेताओं को भी सार्वजनिक मंचों से कहते सुना गया है कि 'ममता को सिर्फ मुसलमानों की परवाह है, वो उनके लिए ही काम करती हैं क्योंकि वही उनके वोटर हैं.'
हाल ही में टीएमसी छोड़कर बीजेपी के साथ जुड़े शुभेंदु अधिकारी ने एक इंटरव्यू में कहा ममता बनर्जी पर तुष्टीकरण का आरोप लगाते हुए कहा था, "ममता चंडी पाठ गलत करती हैं लेकिन कलमा एकदम सटीक बोलती हैं. विष्णु को माता बोलती हैं. ये हिंदू धर्म का अपमान नहीं तो और क्या है?"