पंचायत चुनाव में ममता को मिली भारी जीत, लेकिन क्या इसकी सियासी कीमत चुकानी पड़ सकती है?
बंगाल में 70 हजार से ज़्यादा सीटों पर पंचायत चुनाव हुए. चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा देखने को मिली. क्या इसका खामियाजा ममता बनर्जी को 2024 लोकसभा चुनाव में भुगतना पड़ सकता है?
ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने पश्चिम बंगाल पंचायत चुनावों में भारी जीत दर्ज की. लगभग 80 प्रतिशत ग्राम पंचायतें, 90 प्रतिशत से ज्यादा पंचायत समितियां और सभी जिला परिषद में दीदी की पार्टी ने जीत हासिल की है.
हालांकि, चुनाव में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और ममता सरकार को बहुत सारी आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है. चुनाव 15 दिनों तक चला. इस दौरान 50 लोगों की जान चली गई और बड़े पैमाने पर हिंसा देखी गई.
सत्ता में पार्टी का मुखिया होने और सरकार में गृह विभाग भी संभालने के कारण ममता की आलोचना होना लाजमी है . वहीं राज्य चुनाव आयोग ने हिंसा को रोकने में विफल रहने के लिए बंगाल पुलिस और प्रशासन को दोषी ठहराया है.
विपक्षी दलों द्वारा मतदान और मतगणना के दिनों में कथित कदाचार के वीडियो फुटेज और अन्य दस्तावेज जमा करने के साथ, मामले की सुनवाई कर रहे कलकत्ता हाई कोर्ट ने कहा है कि परिणामों की घोषणा कोर्ट अंतिम आदेशों के अधीन होगी.
आने वाले लोकसभा चुनावों में हिंसा और कथित चुनावी कदाचार ममता के लिए एक बड़ी चिंता का विषय हो सकता है. टीएमसी लगातार केंद्र की बीजेपी सरकार पर लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन करने, देश की संस्थाओं को कमजोर करने और केंद्रीय जांच एजेंसियों का दुरुपयोग करने का आरोप लगाती रही हैं. अब बीजेपी बंगाल में हुई हिंसा के बाद टीएमसी को घेरने की कोशिश कर रही है.
बंगाल में ग्यारह हजार लोगों को निवारक हिरासत (Preventive Custody) में लिया गया, 8,000 से ज्यादा गैर-जमानती वारंट (एनबीडब्ल्यू) एक्ज़ीक्यूट किए गए और 20,000 से अधिक लाइसेंसी हथियार जब्त किए गए. यह सारे कदम पश्चिम बंगाल में इसलिए उठाए गए थे ताकि राज्य में 8 जुलाई को होने वाले पंचायत चुनाव के दौरान किसी भी प्रकार की राजनीतिक हिंसा से बचा जा सके, जैसा कि स्थानीय निकाय चुनावों में देखा गया था.
बीजेपी ने भी बंगाल चुनाव हिंसा को मुद्दा बनाने में तेजी दिखाई, और मतगणना शुरू होने के एक दिन बाद चार सांसदों के नेतृत्व में टीम भी भेजी. दल का नेतृत्व कर रहे बीजेपी नेता रविशंकर प्रसाद पीड़ित परिवारों से बात करने के लिए संकटग्रस्त क्षेत्रों का दौरा कर रहे हैं.
मीडिया से बातचीत करते हुए प्रसाद ने कहा कि बंगाल की स्थिति ने संविधान के अनुच्छेद 355 को लागू करने की मांग को उचित बना दिया है.
भाजपा ने राज्य निर्वाचन आयुक्त (एसईसी) राजीव सिन्हा पर स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से चुनाव कराने में विफल रहने का भी आरोप लगाया है. विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने मांग की कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जाए. उन्होंने कहा, 'राज्य प्रशासन के तहत स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव बहुत जरूरी है. यह तभी संभव है जब चुनाव राष्ट्रपति शासन या अनुच्छेद 355 के तहत हों.
शुभेंदु अधिकारी के नेतृत्व में भाजपा का एक प्रतिनिधिमंडल विभिन्न चुनावी गड़बड़ियों के लिए तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने के लिए एसईसी कार्यालय भी पहुंचा. हालांकि, अधिकारी सिन्हा से नहीं मिल सके, क्योंकि उनके चैंबर की ओर जाने वाले गेट पर ताला लगा हुआ था.
इससे नाराज अधिकारी ने अपना विरोध जताने के लिए कार्यालय से बाहर आने के बाद उसके गेट पर ताला लगा दिया. उन्होंने कई बूथों पर पुनर्मतदान की मांग की. उन्होंने राज्य निर्वाचन आयोग से यह सुनिश्चित करने को भी कहा कि स्ट्रांग रूम की उचित तरीके से वीडियोग्राफी की जाए.
साफ है लोकसभा चुनावों से पहले बीजेपी ने टीएमसी को कटघरे में लाने की पूरी कोशिश शुरू कर दी है. इसके अलावा वाम दलों और कांग्रेस भी टीएमसी पर आने वाले समय में हमलावर हो सकती है. हालांकि चुनाव परिणामों के बाद अपने पहले संवाददाता सम्मेलन में ममता ने कांग्रेस और वाम दलों को गठबंधन धर्म के बारे में याद दिलाया है और लोकसभा चुनावों के लिए विपक्षी दलों को एकजुट करने के राष्ट्रीय प्रयासों का भी जिक्र किया है.
विपक्ष के वोट शेयरों में इजाफा बन सकता है दीदी के लिए सिर दर्द
बता दें कि वाम और कांग्रेस के वोट शेयरों 2021-22 में उपचुनावों की तुलना में इस पंचायत चुनाव में वृद्धि आई है. जो टीएमसी के लिए चिंता का विषय है. विपक्षी वोटों में वृद्धि सत्ता विरोधी लहर का संकेत देती है, जिसे सत्तारूढ़ पार्टी को आम चुनावों के करीब आने पर ध्यान में रखना होगा.
दूसरी तरफ अगर टीएमसी, कांग्रेस और लेफ्ट राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी एकजुट विपक्षी मंच का हिस्सा बनते हैं, तो अकेले बीजेपी को बंगाल में सत्ता विरोधी लहर से फायदा होगा.
ममता को सता सकती है अल्पसंख्यक वोट बैंक की चिंता
इसके अलावा, ममता अपने अल्पसंख्यक वोट बैंक के बारे में चिंतित हो सकती हैं. दक्षिण 24 परगना, मुर्शिदाबाद और मालदा की मुस्लिम बहुल पंचायतों में चुनाव संबंधी कथित अत्याचारों के खिलाफ आम लोगों ने विरोध किया है. जान गंवाने वालों में कई अल्पसंख्यक समुदाय से हैं. जबकि ममता ने मौतों पर शोक व्यक्त किया है और मुआवजे का वादा किया है. ममता ने 50 लोगों की मौत की संख्या को खारिज कर दिया और कहा कि केवल 19 लोगों ने अपनी जान गंवाई है, और ज्यादातर उनकी पार्टी से हैं.
दक्षिण 24 परगना की भांगर पंचायत में तृणमूल का गढ़ होने के बावजूद बड़े पैमाने पर इंडियन सेक्युलर फ्रंट को वोट दिया. यहां पर मतगणना की रात तीन लोगों की मौत हुई. मौत का जिम्मेदार पुलिस की फायरिंग को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है.
जानकार ये कहते हैं कि बंगाल में लेफ्ट पार्टियों के शासन के दौरान पुलिस की गोलीबारी के कारण लोगों की मौतें हुई हैं. चाहे वह 1993 में राज्य मुख्यालय को घेरने वाले युवा कांग्रेस कार्यकर्ताओं के दौरान हुआ हादसा हो या 2007 का नंदीग्राम भूमि आंदोलन में हुआ हादसा हो.
ये एक भावनात्मक मुद्दा रहा है, जिसके आसपास ममता ने जन आंदोलनों का निर्माण किया और आकर्षण हासिल किया. यह विडंबना ही है कि उनके अपने प्रशासन को अब पुलिस के इसी तरह के आरोपों का सामना करना पड़ रहा है और केन्द्र की बीजेपी सरकार इसका फायदा उठाने की कोशिश में लग गई हैं.
चरमपंथी राजनीतिक परंपरा बंगाल की पहचान’
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, पश्चिम बंगाल को पहली बार 1946 में बड़े पैमाने पर हिंसा का सामना करना पड़ा, जब 16 अगस्त को, मुस्लिम लीग ने भारत से अंग्रेजों के बाहर निकलने के बाद एक अलग मुस्लिम मातृभूमि के लिए "सीधी कार्रवाई" शुरू की.
कई हफ्तों तक चले दंगों में हजारों हिंदू मारे गए थे. इस दिन 'द वीक ऑफ द लॉन्ग नाइफ' के नाम से जाना जाता है. इसके बाद लीग के वैचारिक कॉमरेड-इन-आर्म्स, कम्युनिस्टों ने सत्ता संभाली, और लगातार सात बार पद पर रहने के बाद 2011 में सत्ता खोने तक क्रूर परंपरा को जारी रखा.
पश्चिम बंगाल में मौजूदा पंचायत चुनाव 22 जिलों की 73,887 सीटों पर हुए थे. चुनावों में देखी गई हिंसा कोई नई घटना नहीं है. उदाहरण के लिए, 2003 में, जब सीपीआई (एम) ने उभरती ममता बनर्जी से लड़ाई लड़ी, तो 76 लोग मारे गए. अभियान के दौरान बंदूक की लड़ाई, आगजनी, राजनीति से प्रेरित गैंगवार और देसी बम बड़े पैमाने पर शामिल होते थे.
कोलकाता में किसी भी पार्टी के शासन में, हिंसा, प्रतिशोध बेरोकटोक जारी है. 2018 में टीएमसी के सत्ता में रहने के दौरान पूरे बंगाल में 23 लोग मारे गए थे, जिनमें से 12 ने मतदान के दिन हिंसा में अपनी जान गंवा दी थी.
करीब 90 फीसदी सीटों पर विजयी रही तृणमूल कांग्रेस ने इनमें से 34 फीसदी सीटों पर निर्विरोध जीत दर्ज की. हजारों लोगों ने आरोप लगाया कि उन्हें न तो वोट देने दिया गया और न ही चुनाव लड़ने दिया गया.
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक दल एक ऐसी व्यवस्था को संरक्षण दे रहे हैं, जो अपराध और जबरन वसूली के कैडरों से सहारा लेती है. सीपीएम ने सत्ता में रहते हुए (तीन दशकों से अधिक समय तक) हिंसा पर रहने वाले तत्वों की एक बड़ी सेना खड़ी कर दी है.
अब केन्द्र की सरकार पूरे देश में बीजेपी पार्टी को लाने की कोशिशें कर रही है. इस बार वो पंचायत चुनाव में हुए हमले के खिलाफ टीएमसी पर पूरी तरह से हमलवार है. क्योंकि लोकसभा चुनाव नजदीक है.
जानकारों का मानना है कि ये चुनाव ऐसे समय में हुए जब राज्य की सत्ता पर काबिज तृणमूल कांग्रेस भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपनी पार्टी के भीतर चल रही उठापटक को संभालने की कोशिश भी कर रही हैं.
चुनाव के दौरान विपक्षी पार्टियों के अलावा टीएमसी के अंदर भी झड़प की खबरें आई थी. ये विवाद चुनाव में उम्मीदवार कौन होगा को लेकर हुआ था. ऐसे में ये समझने की जरूरत है कि जब पंचायत स्तर पर हो रहे चुनावों में पार्टी के सदस्यों में आपसी समझ नहीं है तो लोकसभा चुनाव में हालात और खराब हो सकते हैं.
जानकारों का कहना है कि तृणमूल कांग्रेस भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही है. पार्टी के कई नेता और मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हैं. ग्रामीण स्तर पर भी टीएमसी के पंचायत सदस्यों के खिलाफ बड़े पैमान पर भ्रष्टाचार के मामले सामने आते रहे हैं. वहीं टीएमसी के अंदर नेताओं में आपसी मतभेद है. पिछले साल ममता बनर्जी औऱ उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी के बीच मतभेद की ख़बरें आई थी.