नई दिल्ली: एक ऐसे ख़ास शख़्स से मुलाक़ात हुई जिसके बारे में अनुमान था कि ये घोर राजनीतिक बातें करेगा और ज़ाहिर है तौर तरीक़े भी नेताओं वाले ही होंगे. दिल्ली में होने के नाते इस पंजाबी गबरू से पहले कभी मुलाक़ात नहीं हुई थी. पंजाब भवन में इस शख़्स का थोड़ा इंतज़ार करना पड़ा. मालूम था कि बंदा इंग्लैंड से वकालत की पढ़ाई कर चुका है. बचपन दून स्कूल और जवानी का एक हिस्सा दिल्ली के सेंट स्टीफेन्स कालेज में गुजरा है. उम्मीद ग़लत नहीं थी कि आदमी ठेठ पंजाबीa होते हुए भी ऊपरी तौर पर हो, या भीतरी तौर से ही, पर होगा तो अंग्रेज़ी दां ही.


थोड़ी देर में मेहमानों को विदा करने और हमें रिसीव करने बाहर आया. देरी के लिए माफ़ी मांगते हुए बड़े ही आदर के साथ भीतर ले गया और अर्दली को चाय और ‘बढ़िया सैंडविच’ का ऑर्डर दे दिया. हमनें खाने को मना कर दिया. बहरहाल जब चाय आई तो उठ कर अपने हाथ से चाय ढाल कर हमें पकड़ाया. हम कर्टसी में खड़े ही हो चुके थे.


साक्षात्कार समाप्त होने पर भले मानुस ने गहराई से ये भी कहा कि कोई सेवा कभी भी हो तो ज़रूर बताइएगा. मैं काम आ सका तो मुझे अच्छा लगेगा. मैंने कहा ज़रूरत पर साक्षात्कार दे दीजिएगा, यही सब कुछ है. फिर मैंने कहा कि साहब ये बताइए कि आप इतने बड़े राजनीतिक घराने से हैं, ख़ुद पंजाबी भाषी जनता से घिरे रहते हैं, तो ये इतनी सच्ची-अच्छी उर्दू कहां से सीखी ! और वक़्त पर मौजूं शेर जो आपने साक्षात्कार में धड़ा-धड़ सुनाए, वो क्या था और कहां से !


इस प्रश्न ने पगड़ीधारी लहीम-शहीम बंदे को भीतर से जैसे छू लिया. बोले दरअसल मुझे आठ साल की उम्र में ही दून स्कूल भेज दिया गया. मैं घर से दूर, अकेला हो गया. उधर जब आज़ादी के बाद हम पंजाब आए तो मेरे पिता को उर्दू के अलावा कोई भी दूसरी भाषा आती नहीं थी. ऐसे में मेरे लिए समस्या थी कि मैं अपने पिता से संवाद कैसे करूं, क्योंकि मुझे पंजाबी, अंग्रेज़ी और हिंदी आती थी लेकिन उर्दू नहीं आती थी. और मेरे पास पिता से संवाद की ज़रूरत बहुत ज़्यादा थी, इमोशनल भी और अपने ख़र्चों के लिए भी. तो मैंने उनसे संवाद के लिए सबसे पहले उर्दू में अपनी ज़रूरतें और शिकायतें लिखनी सीखीं. कुछ जुमले मैंने सीखे और उन्हें उर्दू में लिखने लगा- “तुमने वादा किया था. पैसे नहीं आए. क्यों” फिर बंदे ने कई सूफ़ी संतों के शेर सुनाए.


मुझे अच्छा लगा कि पंजाब के वित्त मंत्री मनप्रीत सिंह बादल को अच्छी उर्दू भी आती है और उन्होंने मोस्ट कर्टियस होने का ख़िताब अपने व्यवहार में छुपा के रखा है. उन्होंने यह भी कहा कि आज़ादी से पहले पंजाब में राजभाषा उर्दू ही थी लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि आज़ादी के बाद पंजाब सरकार का पहला फ़ैसला था- एबलूशन ऑफ़ उर्दू !


कहने लगे कि, चुनांचे ये हुआ कि उर्दू नहीं तो फिर बच्चे क्या पढ़ेंगे क्योंकि ज़्यादातर तो उर्दू भाषी हैं. तब आवाज़ें उठनी शुरू हुईं, कुछ ने कहा भई हमारे बच्चे पंजाबी में पढ़ेंगे कुछ ने कहा हिंदी पढ़ेंगे. नतीजा आज हरियाणे वाले हिस्से में हिंदी और बाक़ी में पंजाबी पढ़ाई जाने लगी. फिर भाषा ही विभाजन का बड़ा आधार बन गई. आज अगर हम एक होते, यानी पंजाब, हिमाचल और हरियाणा एक होते तो लोकसभा में हमारी सीटें तेरह, चार, दस नहीं बल्कि पचास होतीं. हम इतने बड़े राज्य होते कि दिल्ली पर एक दबाव बना पाते.