5 चुनाव हारने के बाद मायावती ने बदली रणनीति; नई सोशल इंजीनियरिंग में ब्राह्मणों की जगह मुसलमान क्यों?
2007 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने ब्राह्मणों को टिकट दिया तो उनकी सोशल इंजीनियरिंग हिट रही. इससे पार्टी की छवि बदली और कुछ हद बहुजनों की बजाय सर्वजन की पार्टी के रूप में पेश होने सफल भी रही .
उत्तर प्रदेश में आने वाले 4 और 11 मई को निकाय चुनाव के लिए मतदान होने वाला है. 13 मई को नतीजे भी आ जाएंगे. इस निकाय चुनाव के प्रचार के दौरान एक तरफ जहां भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) पूरी कोशिश कर रही है कि वह ज्यादा से ज्यादा शहरों में जीत हासिल कर सके. वहीं दूसरी तरफ विपक्षी पार्टियां जैसे, सपा और बीएसपी ने भी जनता को लुभाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी है.
इसी क्रम में भारतीय जनता पार्टी के साथ ही समाजवादी पार्टी (सपा) और मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने भी अपने उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया है. मायावती के नेतृत्व वाली बहुजान समाजवादी पार्टी ने मेयर पद के लिए कुल 17 उम्मीदवारों के नाम का ऐलान किया है. जिसमें से 11 मुस्लिम चेहरे हैं.
बहुजन समाजवादी पार्टी कर रही है नए-नए प्रयोग
उत्तर प्रदेश में साल 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद बहुजन समाजवादी पार्टी को बहुत नुकसान उठाना पड़ा था. यही कारण है कि मायावती अब निकाय चुनाव और साल 2024 में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले नए-नए प्रयोग कर रही हैं. मेयर पद के लिए उम्मीदवारों की लिस्ट देख कर ये साफ समझ आ रहा है कि मायावती की पार्टी बीएसपी ने निकाय चुनाव के दौरान मुस्लिमों को साधने के लिए नया दांव चला है.
बहुजन समाजवादी पार्टी ने आरक्षित सीटों पर ओबीसी के लिए भी मुस्लिम चेहरों को चुनावी मैदान में उतारा है. उतारे गए 17 उम्मीदवारों में 11 उम्मीदवारे मुस्लिम है और अन्य जो 6 हिंदू उम्मीदवार है, उनमें से तीन अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी हैं और तो वही दो उम्मीदवार अनुसूचित जाति यानी एससी हैं.
बीएसपी की नई सोशल इंजीनियरिंग
बहुजन समाजवादी पार्टी ने चुनाव के दौरान सबसे पहला प्रयोग साल 2007 में किया था. इससे पहले बीएसपी डी-4 के सहारे राजनीति करती थी. इसका नारा था 'ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-4'. लेकिन 2007 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने जब ब्राह्मणों को टिकट दिया था. तो उनकी सोशल इंजीनियरिंग हिट रही.
इस प्रयोग ने पार्टी की इमेज बदली और कुछ हद तक वह बहुजनों की बजाय सर्वजन की पार्टी के रूप में पेश होने सफल भी रही थीं. उस साल हुए विधानसभा चुनाव में बहुजन समाजवादी पार्टी ने पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई लेकिन साल 2012 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर इस पार्टी का ग्राफ तेजी से गिरता चला गया. आज इस पार्टी की हालत ये है कि यूपी में यह सिर्फ एक विधायक वाली पार्टी बनकर रह गई है.
2022 तक चला बीएसपी का प्रयोग, पार्टी में कई बड़े नेता थे ब्राह्मण
पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान बीएसपी के चुनावी अभियान की बागडोर एक तरह से सतीश मिश्र के हाथ में थी. बीएसपी के चुनाव प्रचार करने के लिए सतीश मिश्र का पूरा परिवार मैदान में उतरा हुआ था लेकिन परिणाम उम्मीदों के मुताबिक नहीं रहा. पिछले विधानसभा चुनाव में मायावती की बीएसपी को सिर्फ एक सीट पर ही जीत मिल सकी. मायावती ने इसके बाद से ब्राह्मण नेताओं से दूरी बनानी शुरू कर दी थी.
यहां तक की मायावती ने अपने सबसे करीबी नेता सतीश चंद्र मिश्रा के सबसे करीबी पूर्व मंत्री नकुल दुबे को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था. जिसके बाद नकुल कांग्रेस में शामिल हो गए.
इसके बाद मई में उत्तर प्रदेश की दो लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के लिए बीएसपी ने 40 स्टार प्रचारकों की लिस्ट जारी की, लेकिन उस लिस्ट में सतीश चंद्र मिश्र को जगह नहीं दी गई थी. सतीश चंद्र मिश्र गुजरात चुनाव और दिल्ली एमसीडी से भी दूर ही नजर आए. इससे बहुत हद तक ये तो साफ है कि मायावती किस रणनीति पर काम कर रहीं हैं.'
क्यों खास रहे हैं सतीश मिश्र?
दरअसल, सतीश चंद्र मिश्र न सिर्फ मायावती के करीबी में बल्कि वह उनके पुराने सहयोगी भी रहे हैं. सतीश चंद्र मिश्र ने मुश्किल दौर में भी मायावती का साथ नहीं छोड़ा. पहली बार सतीश मिश्र साल 2002 में बीजेपी के सहयोग से बनी बसपा सरकार में एडवोकेट जनरल बने थे. उसके बाद साल 2003 में सरकार गिर गई लेकिन सतीश मिश्र मायावती के साथ बने रहें. पहले वह मायावती को मुकदमों में सलाह देते थे लेकिन धीरे धीरे दोनों के रिश्ते बेहतर होते गए और वह पार्टी में रणनीतिकार बन गए.
साल 2007 में जब उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत के साथ बीएसपी की सरकार बनी तो सतीश चंद्र मिश्र का कद पार्टी के अंदर और बढ़ गया. पार्टी को मिली इस जीत का श्रेय सतीश चंद्र मिश्र और उनके सोशल इंजीनियरिंग को दिया गया.
साल 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में बीएसपी को हार मिली लेकिन सतीश चंद्र बीएसपी सुप्रीमो मायावती के खास सलाहकार बने रहे. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव 2022 में भी सतीश मिश्र को ही उनके सोशल इंजीनियरिंग को दोहराने का जिम्मा दिया गया लेकिन इस चुनाव में पार्टी एक सीट में सिमट कर रह गई.
सतीश मिश्रा ने चुनाव के प्रचार के दौरान साल 2021 के अगस्त महीने ब्राह्मण सम्मेलन करने शुरू कर दिए. हालांकि, इस चुनाव के नतीजे बीएसपा के पक्ष में नहीं रहे. इसके बाद से मायावती और बसपा ने सतीश चंद्र मिश्र से दूरी बनानी शुरू कर दी.
सामान्य वर्ग को एक केवल एक टिकट
निकाय चुनाव के लिए उतारे गए उम्मीदवारों में मायावती की पार्टी बीएसपी ने इस बार सामान्य वर्ग के सिर्फ एक उम्मीदवार को टिकट दिया है. गोरखपुर से नवल किशोर नथानी को उम्मीदवार बनाया है जो अग्रवाल (बनिया) बिरादरी से आते हैं.
इसके अलावा अनुसूचित जाति की महिला के लिए आरक्षित आगरा नगर निगम और आरक्षित सीट झांसी नगर निगम से पार्टी ने दो दलित चेहरे को उतारा है. आगरा में जहां लता मैदान में उतरी हैं तो वहीं झांसी में भगवान दास फुले हैं.
महापौर चुनाव में मुस्लिम कैंडिडेट सबसे अधिक
बीएसपी ने अयोध्या से राममूर्ति यादव, कानपुर से ओबीसी नेता अर्चना निषाद, वाराणसी से सुभाष चंद्र मांझी को उम्मीदवार बनाया है. वहीं चार मेयर सीट जो ओबीसी के लिए आरक्षित हैं उसपर बसपा ने मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है. इनमें मेरठ से हसमत अली, सहारनपुर से खदीजा मसूद, शाहजहांपुर से शगुफ्ता अंजुम और फिरोजाबाद से रुखसाना बेगम के नाम शामिल हैं.
इसके अलावा पार्टी ने महिलाओं के लिए आरक्षित तीन मेयर पदों में से दो मेयर पदों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारा है. बीएसपी ने लखनऊ में शाहीन बानो को उम्मीदवार बनाया है तो वहीं गाजियाबाद में निसारा खान को मैदान में उतारा है.
सामान्य श्रेणी की सीटों पर मैदान में उतरे अन्य मुस्लिम उम्मीदवारों में अलीगढ़ से सलमान शाहिद को उतारा गया है. जबकि बरेली से यूसुफ खान मैदान में हैं, मथुरा से रजा मोहतासिम अहमद चुनाव लड़ेंगे, प्रयागराज से सईद अहमद और मुरादाबाद से मोहम्मद यामीन के नाम शामिल हैं.
बीएसपी कर रही है ये दावा
दरअसल बीएसपी नेताओं ने दावा किया है कि इस बार दलित-मुस्लिम गठजोड़ से पार्टी को फायदा मिलेगा. पार्टी के नेताओं का कहना है कि दलित-मुस्लिम नेताओं का ये प्रयोग समाजवादी पार्टी के मुस्लिम-यादव के भी ज्यादा मजबूत हैं.
क्या है मायावती की रणनीति
हाल ही में बीएसपी की जो लिस्ट जारी की गई है उसे देखकर ये तो साफ हो गया है कि अब बीएसपी सुप्रीमो मायावती सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति छोड़ कर नई रणनीति पर काम कर रही है. साल 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में मुसलमान वोटर्स एकजुट हो गए थे और समाजवादी पार्टी को वोट किया था. जिसके कारण बीएसपी को काफी सीटों का नुकसान उठाना पड़ गया.
यही वजह है मायावती अब दलित-मुसलमान गठजोड़ बनाने की कोशिश में जुटी हैं. उन्होंने लगातार कई बयान दिए हैं जिसमें मुसलमान वोटर्स को अपने साथ आने को कहा है. वहीं उत्तर प्रदेश में साल 2022 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद माना जा रहा है कि राज्य के मुस्लिम वोटर्स भी समाजवादी पार्टी से नाराज हैं. ऐसे में मायावती इस नाराजगी का फायदा उठाना चाहती हैं. इसके जरिए साल 2024 लोकसभा चुनाव फतह करने की तैयारी है.
इमरान, शाइस्ता और गुड्डू जमाली की बीएसपी में एंट्री
मुसलमानों को साधने के लिए 2022 के बाद मायावती सक्रिय हो गईं. उन्होंने 2022 के बाद से इमरान मसूद, गुड्डू जमाली और अतीक अहमद की पत्नी शाइस्ता परवीन जैसे नेताओं को बीएसपी में एंट्री दी. शाइस्ता की एंट्री पर सवाल भी उठे.
गुड्डू जमाली 2022 में आजमगढ़ उपचुनाव में बीएसपी के टिकट पर मैदान में भी थे. सपा को यहां हार मिली और इसकी वजह गुड्डू जमाली ही बताए गए. मायावती ने इमरान मसूद को पश्चिमी यूपी का काम सौंपा है. पहले उनकी पत्नी को टिकट देने की भी घोषणा की गई थी, लेकिन समीकरण बदल जाने की वजह से यह संभव नहीं हो सका.
सोशल मीडिया पर भी जोरशोर से उठाती हैं मुसलमानों का मुद्दा
मायावती सोशल मीडिया पर भी मुसलमानों का मुद्दा जोरशोर से उठाती हैं. इतना ही नहीं, सपा के आजम खान को लेकर भी मायावती खूब मुखर हुई थीं.
मायावती ने बीजेपी पर निशाना साधते हुए ट्वीट किया था, 'यूपी सरकार अपने विरोधियों पर लगातार द्वेषपूर्ण व आतंकित कार्यवाही कर रही है. वरिष्ठ नेता आजम खान करीब सवा दो साल से जेल में बंद हैं. यह लोगों की नजरों में न्याय का गला घोटना नहीं तो क्या है.'
इसके अलावा, अतीक अहमद की पुलिस कस्टडी में हत्या पर भी मायावती ने यूपी सरकार को घेरा. मायावती ने इस हत्या की जांच सुप्रीम कोर्ट से कराए जाने की मांग की.
मुसलमानों को साधने के लिए मायावती ने मुनकाद अली, समसुद्दीन राइन और नौशाद अली जैसे मुस्लिम नेताओं को मोर्चे पर तैनात किया है.