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IN DEPTH: 'एक जिद्दी और निरंकुश नेता' की छवि वाले केजरीवाल की हार की पूरी कहानी
नई दिल्ली: करीब दो साल पहले की अपनी जीत के सबसे बड़े अरविंद केजरीवाल नायक थे. 2014 लोकसभा चुनाव में 400 से ज्यादा सीटों पर जमानत जब्त करा चुके केजरीवाल ने कुछ ही महीनों के भीतर मोदी नाम की सुनामी के बीच दिल्ली में भूचाल ला दिया था. केजरीवाल को विधानसभा की 70 सीटों में से 67 सीटों पर जीत मिली थी. विधानसभा चुनाव के इतिहास में इतनी बड़ी जीत इससे पहले किसी को नहीं मिली थी.
पहली बार मुख्यमंत्री की शपथ लेते वक्त अरविंद केजरीवाल ने अपनी पार्टी के तमाम कार्यकर्ताओं से कहा था कि हम दूसरों का अहंकार मिटाकर यहां तक आए हैं. कभी अहंकार मत करना, वर्ना जनता तुम्हें मिटा देगी. लेकिन आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा की इस अपील पर ना तो दिल्ली सरकार के मंत्रियों ने और ना ही खुद अरविंद केजरीवाल ने कभी अमल किया. नतीजा सामने है.
विधानसभा में मिली जीत के बाद जब केजरीवाल सामने आए थे तो लोगों ने उन्हें फूल मालाओं से लाद दिया था. एमसीडी चुनाव में मिली करारी हार के बाद केजरीवाल आज जनता के बीच आकर अपना लोकतांत्रिक धर्म निभाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं. वो सामने आकर अपनी हार स्वीकार करने का साहस तक नहीं दिखा पा रहे हैं. उल्टा उनकी पार्टी ने लोकतंत्र पर ही सवाल खड़ा कर दिया है.
जिस केजरीवाल को दो साल पहले दिल्ली की जनता ने देश की राजधानी का सबसे बड़ा नेता बना दिया आज उसी जनता ने अपने उसी नेता को क्यों धरती पर पटक दिया. क्या मोदी के करिश्मे के सामने केजरीवाल बौने साबित हुए? या फिर केजरीवाल की नकारात्मक राजनीति बनी उनकी हार की वजह ?
2015 में दिल्ली की जनता ने एक शानदार दिल्ली बनाने के लिए केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाया था. कुर्सी संभालते ही केजरीवाल ने काम पर ध्यान देने की बजाय प्रधानमंत्री मोदी को निशाने पर लेना शुरू कर दिया.
विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे के समय केजरीवाल ने बिना जांचे परखे उम्मीदवारों को टिकट बांटे थे. केजरीवाल के नाम पर विवादास्पद छवि के उम्मीदवार जीत तो गए लेकिन सरकार बनने के तुरत बाद उनके लिए ये एक नई मुसीबत बन गए. विडंबना देखिये कि केजरीवाल सरकार में जो कानून के पंजे में फंसे वो खुद दिल्ली सरकार के कानून मंत्री जितेंद्र तोमर थे. तोमर को ना सिर्फ फर्जी डिग्री की वजह से कुर्सी छोड़नी पड़ी बल्कि उन्हें जेल भी जाना पड़ा. हैरान की बात ये थी कि आखिरी समय तक केजरीवाल अपने मंत्री के समर्थन में वकालत करते रहे.
कभी केजरीवाल के विधायक बलात्कार के केस में फंसते तो कभी घरेलू हिंसा के आरोप में. देखते ही देखते एक के बाद एक केजरीवाल के दर्जन भर विधायक कानून के घेरे में आ गए. जिस पार्टी का जन्म भ्रष्टाचार के आंदोलन से हुआ उस पार्टी की सरकार के मंत्री पर बिल्डर से 6 लाख रुपये का घूस लेने का आरोप लगा. आगबबूला मुख्यमंत्री ने आरोप लगने पर 24 घंटे के भीतर कार्रवाई करते हुए अपने कैबिनेट मंत्री आसिम अहमद को उनके पद से बर्खास्त तो कर दिया लेकिन इससे पार्टी की बदनामी कम नहीं हुई.
केजरीवाल को ऐसे विवादास्पद लोगों से जिन नेताओं ने दूर रहने की सलाह दी उन्हीं नेताओं को खुद से दूर कर दिया. प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव जैसे नेताओं को केजरीवाल ने धक्के मार कर पार्टी से निकाल फेंका. केजरीवाल की छवि एक जिद्दी, मनमाने तरीके से चलने वाले निरंकुश नेता की बन चुकी थी.
आए दिन केजरीवाल और दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर के बीच विवाद होने लगा. केजरीवाल नियम के खिलाफ जाकर फैसला लेते जिसे दिल्ली के उप राज्यपाल खारिज कर देते. इस खिंचातानी में कामकाज कम और राजनीति ज्यादा होती रही.
एक साल के भीतर केजरीवाल सरकार में एमसीडी के सफाईकर्मी 4 बार हड़ताल पर गए. दिल्ली के लोगों को बार-बार गंदगियों के बीच रहने को मजबूर होना पड़ा. एमसीडी के कर्मचारियों का आरोप लगाते रहे कि केजरीवाल सरकार उनका बकाया पैसा नहीं देती है जिसकी वजह से उनका वेतन रुक जाता है. जबकि केजरीवाल सरकार दावा करती कि उन्होंने एमसीडी को वेतन के मद का सारा पैसा दे दिया है.
इसी दौरान दिल्ली डेंगू और चिकनगुनिया जैसी बीमारियों की चपेट में आई. जब दिल्ली वाले डेंगू से जूझ रहे थे तब दिल्ली सरकार के मंत्री राजधानी से नदारत थे. सीएम बनने के कुछ महीनों बाद ही केजरीवाल ने गोवा और पंजाब के विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी. केजरीवाल पंजाब की लगातार यात्राओं पर रहते. केजरीवाल पर आरोप लगा कि वो दिल्ली पर ध्यान देने की बजाय अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं. केजरीवाल पंजाब में अपनी पार्टी की जीत को लेकर आश्वस्त थे लेकिन ना सिर्फ उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा बल्कि गोवा में भी पार्टी को भारी हार का सामना करना पड़ा.
अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी की हार की एक ही वजह ईवीएम को बताते हैं. जाहिर है आप प्रमुख हार की असली वजहों को स्वीकार करने को तैयार के मूड में नहीं हैं. ऐसे में पार्टी अपनी गलतियों से क्या सीख लेगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.
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प्रशांत कुमार मिश्र, राजनीतिक विश्लेषक
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