भारत में दूध की औसत खुदरा कीमत पिछले एक साल के मुकाबले 12 प्रतिशत बढ़कर 57.15 रुपये प्रति लीटर हो गई है. बढ़े हुए दूध की कीमतों के पीछे अनाज की कीमतों में इजाफा, कम डेयरी पैदावार, मवेशियों के चारे के लगातार बढ़ते दाम हैं.
इंडियन डेयरी एसोसिएशन के अध्यक्ष आरएस सोढ़ी ने एक अंग्रेजी अखबार को बताया कि 'दूध की बढ़ती कीमतों से इसकी खपत पर सीधा प्रभाव पड़ता है. कीमतों की वजह से मांग-आपूर्ति के बीच भारी अंतर देखा जा रहा है.
सोढ़ी के मुताबिक कीमतों में उछाल से कपंनियों को दूध की खरीद में ज्यादा लागत लगानी पड़ रही है. इससे डेयरी कंपनियों की बैलेंस शीट दबाव में आ सकती है.
उन्होंने अखबार को बताया कि दूध की कीमतों में उछाल की एक वजह अनाज और चावल की भूसी की कीमतों में बढ़ोत्तरी होना है. बढ़ती कीमतों की वजह से किसान अपने जानवरों को पर्याप्त रूप से नहीं खिला पा रहे हैं.
सोढ़ी के मुताबिक किसानों को जानवरों को खिलाने के लिए ज्यादा पैसे भी खर्च करने पड़ रहे हैं, जिसका सीधा असर दूध की कीमतों में बढ़ोत्तरी है. बता दें कि सर्दियां खत्म होते ही दूध की कीमतों में 12-15% का इजाफा हुआ है. बेमौसम बारिश और हीटवेब ने भी फ़ीड की कीमतों के उछाल में योगदान दिया है. मार्च में अनाज की महंगाई दर 15.27% रही.
कोरोना के बाद कैसे बदली तस्वीर
कोरोनोवायरस महामारी ने दस्तक दी और भारत दुनिया के सबसे सख्त लॉकडाउन वाले देश में शुमार हो गया. लाॉकडाउन के दौरान कई रेस्तरां और मिठाई की दुकानों के बंद हो जाने से दूध और दूध उत्पादों की मांग में गिरावट आई.
दुनिया की दूध की आपूर्ति का लगभग एक चौथाई हिस्सा भारत में है. पूरे देश में दस लाख से ज्यादा किसान छोटे पैमाने पर दूध उत्पादन करते हैं. ये किसान पशुओं को पालते भी है. कोरोना में दूध के मांग में गिरावट आने से इन किसानों के पशुधन पर सीधा असर पड़ा.
भारत की सबसे बड़ी डेयरी सहकारी गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन महासंघ के प्रमुख जयन मेहता के मुताबिक कोरोना वायरस के बाद दूध की मांग बढ़ी है, लेकिन भूसे और अनाज की कीमतें आसमान छू रही हैं. भारत में वित्त वर्ष 2021-22 में करीब 39.1 करोड़ डॉलर के डेयरी उत्पादों का निर्यात किया, जबकि इससे पहले के साल में यह 32.1 करोड़ डॉलर था.
एमके ग्लोबल की अर्थशास्त्री माधवी अरोड़ा ने इस महीने एक रिपोर्ट में लिखा कि इस साल दूध की मांग लागातर बढ़ेगी. दूध का उत्पादन कम होने से इसकी कीमतों में बेताहाशा बढ़ोत्तरी होगी. गर्मी के बढ़ने से साथ आइसक्रीम और दही की मांग में भी उछाल होगा. अरोड़ा ने लिखा कि
केंद्र सरकार लगभग 800 मिलियन भारतीयों को हर महीने चावल और गेहूं राशन मुफ्त देती है. वहीं दूसरी तरफ रसोई की दूसरी चीजों में भारी उछाल नागरिकों के लिए परेशानी का सबब है.
तो क्या बढ़े हुए दाम बनेंगे चुनावी मुद्दा
राजनीतिक स्तंभकार नीरजा चौधरी ने बताया कि पीएम मोदी अगले साल देश में फिर से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं और भारत में गरीबों की संख्या सबसे ज्यादा है. गरीबी एक ऐसा मुद्दा है जो सीधे तौर पर आम नागरिकों पर असर करता है. गरीबी के बीच दूध जैसे जरूरी प्रोडक्ट में लगातार बढ़ोत्तरी सीधा आम नागिरकों पर असर डाल सकता है.
नीरजा चौधरी आगे कहा कि देश में गरीबी से बड़ा चुनावी मुद्दा कोई नहीं है, चीजों की लागातर बढ़ती कीमतें इसे और बड़ा मुद्दा बना सकती हैं, लेकिन आने वाले चुनाव में चुनावी मुद्दा बनता है या नहीं, यह विपक्ष पर निर्भर करता है .
जानकार ये उम्मीद जताते हैं कि विपक्ष इस समय पूरी तरह से अव्यवस्थित है. ऐसे में पीएम मोदी के जीतने की संभावना ज्यादा है. लेकिन जीतने के बाद भी सरकार को चीजों की कीमतें कम करने की जरूरत है.
कर्नाटक में दूध पर उबल रही है राजनीति
कर्नाटक चुनाव में दूध एक मुद्दा बन गया है. ये हंगामा भारत के सबसे बड़े दूध ब्रांड अमूल के बैंगलुरू में दूध बेचने के प्रस्ताव के बाद खड़ा हुआ है. अमूल के इस प्रयास को कर्नाटक मिल्क फेडेरेशन (केएमएफ) के ब्रांड नंदिनी के क्षेत्र में घुसपैठ के रूप में देखा जा रहा है.
अमूल की तरफ से किए गए ट्वीट के बाद मीडिया और सोशल मीडिया में बहस तेज हुई और इस पूरे मामले का रुख पश्चिमी राज्य गुजरात के ब्रांड के दक्षिणी राज्य कर्नाटक में अपने पैर पसारने की कोशिश की तरफ हो गया. बता दें कि कर्नाटक में अमूल के आइस्क्रीम जैसे प्रोडक्ट पहले से बिकते हैं, लेकिन अब दूध और दही भी बेचे जाएंगे
दूध में कैसे हुई राजनीति की एंट्री
8 अप्रैल को कांग्रेस नेता और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया अमूल मुद्दे को लेकर जनता के बीच पहुंचे थे. सिद्धारमैया ने आम लोगों से अमूल दूध नहीं खरीदने की अपील की. अपने संबोधन में सिद्धरमैया ने 30 दिसंबर को अमित शाह के दिए बयान का जिक्र किया, उन्होंने कहा कि कर्नाटक के सबसे बड़े दूध ब्रांड नंदिनी को BJP सरकार खत्म करना चाहती है.
तीन नेताओं का ट्वीट, बयान और दूध पर बवाल
सिद्धारमैया ने ट्वीट किया कि वो हम कन्नड़ लोगों की सभी संपत्ति को बेच देंगे. हमारे बैंकों को बर्बाद करने के बाद वे अब हमारे किसानों के बनाए नंदिनी दूध ब्रांड को खत्म करना चाहते हैं. बता दें कि कर्नाटक में अमूल की तर्ज पर किसानों का बनाया को-ऑपरेटिव ब्रांड नंदिनी चलता है.
कर्नाटक के कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार ने कहा कि हमारी मिट्टी, पानी और दूध मजबूत है. हम अपने किसानों और दूध को बचाना चाहते हैं. हमारे पास नंदिनी है जो अमूल से अच्छा ब्रांड है. हमें किसी अमूल की जरूरत नहीं है.
JDS नेता व पूर्व CM एचडी कुमारस्वामी ने कहा कि केंद्र सरकार अमूल को पिछले दरवाजे से कर्नाटक में स्थापित करना चाहती है. अमूल के जरिए BJP कर्नाटक मिल्क फेडरेशन यानी KMF और किसानों का गला घोंट रही है. कन्नड़ लोगों को अमूल के खिलाफ बगावत करनी चाहिए'.
कर्नाटक के सीएम बोम्मई ने संभाला मोर्चा
मामले के तूल पकड़ता देख मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई ने खुद मोर्चा संभाला. विवाद को लेकर बोम्मई ने कहा कि कांग्रेस अमूल को लेकर राजनीति कर रही है. नंदिनी देश का पॉपुलर ब्रांड है. इसे सिर्फ एक राज्य तक सीमित नहीं रखना है. हम इसे दूसरे राज्यों तक ले जाने पर काम कर रहे हैं. इस ब्रांड के जरिए हमने दूध उत्पादन को बढ़ाने के साथ किसानों की कमाई को भी बढ़ाया है.
दूध पर राजनीति की वजह समझिए
पॉलिटिकल एक्सपर्ट एल. मंजूनाथ ने एक इंटरव्यू में बताया कि सभी राजनीतिक दलों के लिए डेयरी से जुड़े किसान और उनके परिवार एकमुश्त वोट बैंक होते हैं. ऐसे में कर्नाटक के विपक्षी दलों को डर सताने लगा है कि गुजरात की अमूल कंपनी अगर वहां मजबूत होती है तो इसका फायदा भाजपा को मिलेगा. गुजरात और दूसरे राज्यों की तरह ही कर्नाटक मिल्क फेडरनेशन यानी KMF से 26 लाख से ज्यादा किसान जुड़े हैं.
मुद्दे पर राजनीति तेज होने की वजह
इस मुद्दे पर राजनीति लगातार तेज हो रही है. इसके पीछे की वजह कांग्रेस और जनता दल सेक्यूलर उन 26 लाख किसानों के वोट हासिल करना चाहते हैं जो केएमएफ सहकारी संघ के सदस्य हैं.
अमित शाह ने दूध उत्पादकों की एक बैठक में कहा था कि 'अमूल और नंदिनी को सहयोग करना ही चाहिए.' इस बयान को लेकर हाल ही में कांग्रेस ने सीधे तौर पर अमित शाह पर हमला किया.
कांग्रेस ने कहा कि अमित शाह कर्नाटक का गर्व मानी जाने वाली नंदिनी को नुकसान पहुंचाने की साजिश रच रहे हैं.
बिहार और महाराष्ट्र में पॉलिटिकल पार्टियां और को-ऑपरेटिव कनेक्शन
जीबी पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर बदरी नारायण ने एक आर्टिकल में लिखा कि गुजरात के अलावा मध्य प्रदेश में भी BJP ने ग्रासरूट वोटरों तक अपनी पकड़ बनाने के लिए को-ऑपरेटिव सोसाइटी का इस्तेमाल किया था. बदरी नारायण ने लिखा कि मध्यप्रदेश में बीजेपी ने सबसे पहले को-ऑपरेटिव सोसाइटी से जुड़े कांग्रेस नेताओं को हटाया. कांग्रेस नेताओं के हटते ही भाजपा का सत्ता में आने का रास्ता आसान हो गया.
बदरी नारायण ने आर्टिकल में लिखा है कि बिहार में 1990 के बाद राजद और दूसरे क्षेत्रीय दलों ने को-ऑपरेटिव सोसाइटी के पदों के लिए चुनाव लड़ना शुरू किया. इससे पहले तक कांग्रेस की पकड़ को-ऑपरेटिव सोसाइटी में बहुत मजबूत थी. 1990 के बाद राजद और दूसरे क्षेत्रीय दलों ने अपनी मजबूत पकड़ बना ली.
इसी तरह महाराष्ट्र में गन्ना किसानों की संख्या ज्यादा है. शरद पवार ने गन्ना किसानों के को-ऑपरेटिव सोसाइटी के बीच मजबूत पकड़ बनाई. इसके बाद उनकी पार्टी NCP का महाराष्ट्र की राजनीति में दबदबा बढ़ गया.
को-ऑपरेटिव सोसाइटी के जरिए सरकारें कैसे बनती हैं?
पॉलिटिकल एक्सपर्ट संजय कुमार बताते हैं कि को-ऑपरेटिव सोसाइटी कई राज्यों में एक बिजनेस मॉडल बन चुका है. गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में को-ऑपरेटिव सोसाइटी बड़ी संख्या में युवाओं को रोजगार दे रहा है.
इन सभी को-ऑपरेटिव सोसाइटी का काडर किसी राजनीतिक दल से भी ज्यादा मजबूत होता है. चुनाव के समय इन सोसाइटी के बड़े पदों पर बैठने वाले लोग अपना एजेंडा पूरा करते हैं. यही वजह है कि तमाम राजनीतिक पार्टियां इस पर अपना वर्चस्व कायम करना चाहती हैं.अमित शाह, शरद पवार समेत कई बड़े नेता को-ऑपरेटिव सोसाइटी से राजनीति में आए हैं.