अपनी गली में मुझको न कर दफ्न बादे-कत्ल
मेरे पते से खल्क को क्यों तेरा घर मिले


ऊपर लिखे शेर के खालिक़ (रचियता) हैं उर्दू अदब के सबसे बड़े नाम मिर्ज़ा असद-उल्लाह ख़ां 'ग़ालिब'. वही ग़ालिब जो अपने इंतकाल के इतने सालों बाद भी हम सब के जहन में जिन्दा हैं. वही ग़ालिब जो इश्क-व-ग़म की शगुफ्तगी के शायर हैं. वही ग़ालिब जो खूबसूरती के शायर हैं. वही ग़ालिब जिनके शेरों को हम टूटे-फूटे अंदाज़ में याद कर दिलों की धड़कनों में इश्क़ की आग को जलाए रखते हैं. जब हमारा दिल टूटता है तो भी हम ग़ालिब के शेरों से ही मरहम लगाते हैं. अमूमन होता यह है कि ग़ालिब का शेर हमारे दर्द को कम करने की जगह इसे इस कदर बढ़ा देता है कि दर्द ही दवा लगने लगती है और हम मिर्ज़ा नौशा के अंदाज में कहते हैं


दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ,
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ


मिर्जा वह अज़ीम शख्सियत हैं जो वक़्त की धूल में कभी खोने वाले नहीं. बल्कि वह तो गुजरते वक्त के साथ और अधीक मौजूं होते जा रहे हैं. ग़ालिब के शेरों में हर रंग देखने को मिलता है. कोई भी जज्बात ऐसा नहीं जहां उनके शेर फिट न बैठें. मिलने की खुशी हो या बिछड़ने का ग़म, कल्पना की उड़ान हो या आलिंगन की मादकता या फिर दर्शन की गूढ़ समस्याएं. हर ज़गह आप ग़ालिब की शायरी मौजूद पाएंगे.


27 दिसंबर 1796  (हालांकि उनके जन्म तिथि को लेकर विद्वानों में संशय है) में आगरा में जन्‍मे ग़ालिब के पूर्वज तुर्की से भारत आए थे. ग़ालिब के दादा के दो बेटे और तीन बेटियां थीं. मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान और मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खान उनके बेटों के नाम थे. मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान ग़ालिब के वालिद साहब थे. ग़ालिब का एक शेर है


फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूं
मैं कहां और ये बवाल कहां


ग़ालिब की ज़िदगी भी उनके इस शेर की तरह मुसीबतों से भरी रही. छोटी उम्र में ही वालिद का साया सर से उठ गया. उसके बाद से ही ज़िंदगी में ठोकरें मिलने लगी. एक तो ज़िंदगी की ठोकरें और उपर से ग़ालिब को जुए की लत. इस लत की वजह से जो कुछ जमा पूंजी घर में थी वो सब भेंट चढ़ गयी. अब कमाने का और ज़िंदगी बसर करने का एक मात्र जरिया शेरो-शायरी ही बचा. शायरी का शौक बचपन से ही था. तीस-बत्तीस की उम्र तक आते आते उनकी शायरी ने दिल्ली से कलकत्ते तक हलचल मचा दी थी. उनकी शायरी ही उनकी रोजी रोटी कमाने का जरिया बनी. ग़ालिब अपनी शायरी की वजह से बादशाहों, ज़मींदारों, नवाबों से लेकर पण्डितों, मौलवियों तक के अज़ीज थे.



अंतिम मुग़ल शासक बहादुरशाह ज़फर उनकी बड़ी कद्र करते थे. 1850 में बहादुर शाह जफर द्वितीय के दरबार में उनको दबीर-उल-मुल्क की उपाधि दी गयी. 1854 में खुद बहादुर शाह जफर ने उनको अपना शिक्षक चुना. मुगलों के पतन के दौरान उन्होंने मुगलों के साथ काफी वक़्त बिताया. मुगल साम्राज्य के पतन के बाद ब्रिटिश सरकार ने उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और उनको कभी पूरी पेंशन भी नहीं मिल पायी. ग़ालिब का हाल काफी बुरा हो गया. ऊपर से शराब पीने की लत ने उन्हें शारिरिक रूप से भी कमजोर कर दिया. लेकिन वह ग़ालिब थे और इसलिए उन्होंने अपनी बदनामी का भी लुत्फ उठाया. उन्होंने लिखा


होगा कोई ऐसा भी जो ग़ालिब को न जाने
शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है


मीर और ग़ालिब


कहते हैं कि ज़माना बेशक कला की कद्र न करे लेकिन एक कलाकार दूसरे कलाकार को इज्जत बख्शता है. उर्दू ग़ज़ल के ख़ुदा कहे जाने वाले मीर और उर्दू अदब को जन-जन में लोकप्रिय बनाने वाले ग़ालिब अपने अग्रज मीर की बहुत कद्र करते थे. माना जाता है कि ग़ालिब अपने ही मिज़ाज के शायर थे तभी वह कहते हैं कि


पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या


अपने लिए इस तरह के शेर कहने वाले ग़ालिब ने भी एक वक्त पर माना कि मीर तकी मीर सबसे बड़े शायर हैं. उन्होंने लिखा


रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था


गालिब की हवेली और मकबरा


बल्ली मारां की वो पेचीदा दलीलों की-सी गलियां
एक कुरआने सुखन का सफ्हा खुलता है
असद उल्लाह खां गालिब का पता मिलता है


गुलज़ार साहब की नज़्म की इन पंक्तियों की उंगली थामिए और आप पहुंच जाएंगे शाहजहांनाबाद के बल्लीमारान की गली कासिम जान में. जहां एक हवेली है जिसमें जीवन का एक बड़ा समय एक किराएदार के रूप में मिर्जा ग़ालिब ने बिताया और यहीं अंतिम सांस ली. यहां ग़ालिब के शबाब से लेकर वफ़ात तक के दर्शन हो जाएंगें. कहने को तो हवेली है लेकिन हवेली के नाम पर अब ढ़ाई कमरों की रस्म अदायगी ही बची है. वह तो शुक्र है गुलजार साहब का जिन्होंने अदब के इस पन्ने को शाहजहांनाबाद के इतिहास से खोने से बचा लिया. वरना आगरा की जिस हवेली में मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म हुआ था, वह आज लड़कियों के एक कॉलेज में तबदील हो चुका है.


बहरहाल 15 फरवरी 1869 को गालिब दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह गये. लेकिन मृत्यु के बाद भी ग़ालिब दिल्ली के हिस्से में ही आए. उर्दू काव्य का सबसे बड़े नाम को दिल्ली में ही दफ्न किया गया. उनका मकबरा निज़ामुद्दीन में ही है.


ग़ालिब की हाजिर जवाबी


ग़ालिब का 13 साल की उम्र मे नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से विवाह हो गया था. उनके सात बच्चे हुए लेकिन कोई भी जी न पाया. कहा जाता है कि ग़ालिब इस वजह से भी अधीक शराब पीने लगे थे. हालांकि वह अपनी बेगम उमराव से उतनी ही मोहब्बत करते रहे. दोनों के बीच कई बार दिलचस्प बातें हो जाया करती थी. एक ऐसा ही वाकया है. जिस मकान में ग़ालिब रहते थे, उसमें कई सारी तकलीफ़ें थी. वे इसीलिए मकान बदलना चाहते थे.


एक दिन वे खुद एक मकान देखकर आये. उसका बैठकखाना तो पसंद आ गया पर जल्दी में दूसरा हिस्सा न देख सके. फिर उन्होंने यह भी सोचा होगा कि मेरा उस हिस्से को देखने का क्या फ़ायदा? जिसे वहां रहना है वह ख़ुद देखे और पसंद करें. इसी लिए जब बाहरी हिस्सा देखने के बाद वह लौटे तो बीवी से ज़िक्र किया और अन्दर का हिस्सा देखने के लिये उन्हें भेजा. वह गईं और देखकर आयीं तो उनसे पूछा, 'पसंद है या नापसंद?' बीवी ने कहा, "उसमें तो लोग बला बताते हैं" मिर्ज़ा कब चूकने वाले थे बोले, "क्या दुनिया में आपसे बढ़कर भी कोई बला है ?"


दोनों के बीच ताउम्र मोहब्बत बनी रही. निजामुद्दीन में ही ग़ालिब के मकबरा के पीछे ही उमराव बेगम का भी मकबरा है. वक्त का इंसाफ देखिए जहां जीते जी बच्चों के लिए ग़ालिब और उमराव बेगम तड़पते रहे वहीं आज उनकी मज़ार जिस जगह है वहां बच्चों की भीड़ लगी रहती है. बच्चें ग़ालिब के आंगन में खेलते रहते हैं.



इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी-उर्दू जो इतने क़रीब आये, तो उसमें ग़ालिब की शायरी का बड़ा हाथ है. आज कोई भी इन्सानी दर्द ऐसा नहीं होगा जिसकी शक्ल ग़ालिब की शायरी से नहीं मिलती हो. वो ज़िन्दगी से लड़ते रहे. जितना लड़ते उतना ही आनन्दित होते और मजे के साथ जिंदगी की कड़वाहटों को शायरी की शक़्ल दे देते रहे और आज वह अदब की एक ऐसी विरासत बन गई है जिसपर हर ग़ालिब के दीवाने को नाज़ होता है.