उर्दू और फारसी के महान शायर असद-उल्लाह बेग़ ख़ां उर्फ “ग़ालिब” की आज पुण्यतिथि है. ग़ालिब मुग़ल साम्राज्य के अंतिम शासक बहादुर शाह ज़फ़र के समकालीन और दरबारी कवि थे. शेर-ओ-शायरी के सरताज कहे जाने वाले उर्दू और फारसी भाषाओं के मुगल कालीन शायर ग़ालिब अपनी उर्दू गजलों के लिए बहुत मशहूर हुए. उनकी कविताओं और गजलों को कई भाषाओं में अनुवाद किया गया.


ग़ालिब मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बड़े बेटे को शेर-ओ-शायरी की गहराइयों की तालीम देते थे. उन्हें साल 1850 में बादशाह ने दबीर-उल-मुल्क की उपाधि से सम्मानित किया. ग़ालिब का आज के दिन यानी 15 फरवरी 1869 को निधन हो गया. पुरानी दिल्ली में उनके घर को अब संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है.


ग़ालिब के बचपन का नाम ‘मिर्जा असदुल्ला बेग खान’ था. उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ था. ग़ालिब ने 11 साल की उम्र में शेर-ओ-शायरी शुरू की थी. तेरह वर्ष की उम्र में शादी करने के बाद वह दिल्ली में बस गए. उनकी शायरी में दर्द की झलक मिलती है और उनकी शायरी से यह पता चलता है कि जिंदगी एक अनवरत संघर्ष है जो मौत के साथ खत्म होती है.


ग़ालिब सिर्फ शेर-ओ-शायरी के बेताज बादशाह नहीं थे. अपने दोस्तों को लिखी उनकी चिट्ठियां ऐतिहासिक महत्व की हैं. उर्दू अदब में ग़ालिब के योगदान को उनके जीवित रहते हुए कभी उतनी शोहरत नहीं मिली जितनी इस दुनिया से उनके रुखसत होने के बाद मिली.


''हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे, कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और''. मिर्ज़ा ग़ालिब ने बरसों पहले अपने आप को बहुत खूब बयां किया था और आज उनकी 149वीं पुण्यतिथि के मौके पर भी यह शेर उतना ही प्रासंगिक है.


गालिब की ये पंक्तियां आज भी काफी मशहूर हैं 


बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे


दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है


हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है


हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले


कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता


न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता


उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है


ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता


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