नई दिल्ली: संसद के दोनों सदनों से पारित किए गए गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण के बिल को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. यूथ फॉर इक्वेलिटी ने इस संविधान संशोधन बिल को देश की सबसे बड़ी अदालत में चुनौती दी है. खास बात ये है कि संसद के शीतकालीन सत्र के खात्मे से एक दिन पहले अचानक सरकार गरीब सवर्णों के लिए शिक्षा और नौकरी में 10 फीसदी के आरक्षण का संविधान संशोधन बिल लेकर आई.


अर्जी में कहा गया है कि ये बिल अभूतपूर्व तरीके से दो दिन में ही संसद से पास कर दिया गया और इसपर बहुत कम चर्चा की गई. अर्जी में ये भी दावा किया गया है कि ये कानून संविधान के दो अनुच्छदों की अवहेलना करता है. अर्जी में यह भी कहा गया है कि आरक्षण के लिए सिर्फ और सिर्फ आर्थिक आधार का पैमाना नहीं हो सकता है. इसके साथ ही कहा गया है कि आर्थिक आधार को सिर्फ जनरल कैटेगरी तक सीमित नहीं किया जा सकता है. अर्जी में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक किए जाने पर भी सवाल उठाए गए हैं. गैर सरकारी सहायता प्राप्त संस्थानों पर रिजर्वेशन लागू करना स्पष्ट रूप से मनमाना रवैया है.


आपको बता दें कि मंगलवार को ये बिल लोकसभा में लाया गया और करीब 6 घंटे की बहस के बाद 3 के मुकाबले 323 मतों से पारित किया गया. लोकसभा से पारित होने के दूसरे दिन यानि बुधवार को ये बिल राज्यसभा में पेश किया गया जिसे 7 के मुकाबले 165 मतों से पारित किया.


दरअसल, सोमवार को जैसे ही इस बिल के बारे में जानकारी मीडिया में आई. विपक्षी पार्टियों ने इसकी टाइमिंग पर विरोध करना शुरू कर दिया. इसके खिलाफ जमकर बयानबाजी की गई, लेकिन संसद के दोनों सदनों में सभी विपक्षी पार्टिय़ों ने इस बिल का समर्थन किया. ऐसी आशंका पहले से ही जताई जा रही थी कि इस बिल को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है और आशंका के एन मुताबिक इस बिल को आज ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है.


कानून को अदालत में क्या हैं चुनौतियां?
याद रहे कि जब तीन दिन पहले इस बिल के बारे में पहली चर्चा शुरू हुई तब से ही कानून जानकार ये कह रहे हैं कि कि मामले से जुड़े कुछ पहलू ऐसे हैं, जिससे ये मामला मुमकिन है कोर्ट में फंस सकता है.


पहली चुनौती- 50 फ़ीसदी आरक्षण की सीमा
इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में फैसला देते वक्त सुप्रीम कोर्ट ने तय किया था कि 50 फीसदी से ज़्यादा आरक्षण नहीं हो सकता. अब सरकार ने आरक्षण को बढ़ाकर 60 फ़ीसदी कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट को देखना होगा कि क्या आरक्षण की सीमा इस तरह बढ़ाई जा सकती है.


जानकारों का मानना है कि जब आरक्षण की सीमा तय की गई थी तब सवाल ये था कि समाज में जो वंचित जातियां हैं, उनका प्रतिनिधित्व नौकरी और शिक्षा में हो सके. साथ ही 50 फ़ीसदी हिस्सा मेधावी लोगों के लिए यानी कि उस वर्ग के लिए छोड़ दिया गया था, जो आपस में प्रतियोगिता कर स्थान हासिल करना चाहता है. कोर्ट इसमें कटौती पर सवाल करेगा.


सरकार की दलील ये होगी कि 10 फ़ीसदी की कटौती उसी वर्ग से की गई है, जिसे पहले आरक्षण नहीं दिया गया था. सरकार को साबित करना होगा कि गरीबी के चलते एक वर्ग को अलग से अनारक्षित कोटे में से आरक्षण देने की जरूरत थी. अगर दलील कोर्ट को सही लगती है तो कानून पर अदालती मोहर लग सकती है.


दूसरी चुनौती- निजी कॉलेज
दूसरी चुनौती निजी कॉलेजों की तरफ से आ सकती है. जहां तक सरकारी नौकरी में आरक्षण दिए जाने का सवाल है, वो सीधे सरकार के दायरे में आता है. लेकिन जब निजी क्षेत्र के कॉलेजों में आरक्षण की बात होती है, तो ये रोजगार और व्यवसाय के मौलिक अधिकार पर असर डालता है. निजी क्षेत्र के कॉलेज पहले भी ओबीसी आरक्षण के प्रावधान को कोर्ट में चुनौती दे चुके हैं. उनकी यह दलील थी कि यह उनके व्यवसाय में असर डालता है. उन्हें आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. इस मामले में भी उनकी यही दलील होगी.


गौरतलब है कि इस कानून को संविधान संशोधन के ज़रिए लागू किया जा रहा है. इसे लाने से पहले संविधान के अनुच्छेद 15(4) में बदलाव किया जा रहा है. कानूनन संसद को किसी भी मौलिक अधिकार की सीमा तय करने का अधिकार है. इसलिए, सरकार कोर्ट में इसी आधार पर पक्ष रखेगी.


तीसरी चुनौती- आकंड़े
तीसरा और सबसे अहम सवाल है आंकड़ों का. कोर्ट में ये बात जरूर उठेगी कि सरकार ने अब तक जनगणना के आंकड़े जारी नहीं किए. इस बात का कोई आंकड़ा नहीं है कि जो सामान्य वर्ग है, उसमें एक तबके को आरक्षण की ज़रूरत है. ऐसे में सरकार का कदम मनमाना माना जाएगा. कोर्ट पहले भी बिना आंकड़ों के अलग-अलग जातियों को आरक्षण दिए जाने के प्रावधान को रद्द कर चुका है. इसमें हरियाणा में जाट आरक्षण, गुजरात में आर्थिक आधार पर दिया गया आरक्षण शामिल है.