मोहन राकेश जन्मदिन: मोहन राकेश हिन्दी कहानी के उन चुनिंदा साहित्यकारों में हैं जिन्हे 'नयी कहानी के आंदोलन' के नायक के रूप में जाना जाता है. जब बात हिन्दी नाटक की आती है तो भारतेन्दु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के बाद अगर कोई नाम सबसे मशहूर है तो वह नाम मोहन राकेश का है. मोहन राकेश इन बड़े नामों में अपना एक अलग मुकाम बनाने में इसलिए भी कामयाब हुए क्योंकि उन्होंने लीक से हटकर लिखा.


उनकी कहानी नए दौर के लोगों से जुड़ी रही. लेखक किसी एक विचारधारा से नहीं बल्कि अपने समय और उस समय के लोगों और उनकी परेशानियों से जुड़ा होता है. यही मोहन राकेश की कहानियों में देखने को मिलती थी.


सन् 1925 में आज के ही दिन उनका जन्म हुआ था. मोहन राकेश के पिता वकील थे और साथ ही साहित्य और संगीत के प्रेमी भी थे. पिता की साहित्यिक रुचि का प्रभाव मोहन राकेश पर भी पड़ा. उन्होंने पहले लाहौर के 'ओरिएंटल कॉलेज' से हिन्दी और अंग्रेज़ी विषयों में एमए किया. उसके बाद अनेक वर्षों तक दिल्ली, जालंधर, शिमला और मुंबई में पढ़ाया. मोहन राकेश पहले कहानी विधा के ज़रिये हिन्दी में आए. उनकी 'मिस पाल', 'आद्रा', 'ग्लासटैंक', 'जानवर' और 'मलबे का मालिक', आदि कहानियों ने हिन्दी कहानी का परिदृश्य ही बदल दिया. वे 'नयी कहानी आन्दोलन' के शीर्ष कथाकार के रूप में चर्चित हुए.


'आषाढ़ का एक दिन' मोहन राकेश की पहचान


वैसे तो उनके कई नाटक प्रचलित है लेकिन उनको 'आषाढ़ का एक दिन' के लिए सर्वाधिक याद किया जाता है. 1958 का यह नाटक आधुनिक हिन्दी नाटकों का पहला नाटक माना जाता है. इस नाटक की पॉपुलेरिटी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस पर एक फिल्म भी बन चुकी है.


'आषाढ़ का एक दिन' का अर्थ बारसात का एक दिन होता है. दरअसल आषाढ़ का महीना उत्तर भारत के वर्षा ऋतु के पहले महीने को कहते हैं. आषाढ़ का एक दिन  महाकवि तुलसीदास के जीवन पर आधारित है. इस नाटक का परिवेष जरूर ऐतिहासिक है लेकिन इसमें समस्याएं आधुनिक रूप में प्रस्तुत की गई है.


नाटक का कथानक कालिदास और उनकी बचपन की प्रेमिका मल्लिका के इर्द-गिर्द घूमता है. विलोम कालिदास का स्वघोषित मित्र है और कुछ आलोचनात्मक समीक्षाओं में उसे इस नाटक का खलनायक भी कहा जा सकता. ऐसा कहा जा सकता है कि इस नाटक में कालिदास आदर्शवाद के प्रतीक हैं और यथार्थवाद से उनकी कशमकश का बाक़ी पात्रों पर पड़ते हुए प्रभाव को मोहन राकेश ने बखूबी दर्शाया है. वहीं दूसरी ओर विलोम को यथार्थवाद का प्रतीक माना जा सकता है. उसकी बातें और उसके द्वारा उठाये गए कदम समाज की चलती हुई परिपाटी द्वारा प्रमाणित कदम माने जा सकते हैं और परिस्थितियों के आगे विवश होकर मल्लिका को भी अंत में यथार्थ के आगे नतमस्तक होना ही पड़ता है.


मल्लिका का चित्रण एक स्वतंत्र, आत्म-निर्भर, विचारशील, आधुनिक और निर्णायक नारी के रूप में हुआ है. वह कालिदास को इतना अधिक चाहते हुए भी कभी भी अपने आप को कालिदास और उनकी उपलब्धियों के बीच में नहीं आने दिया. एक जगह मल्लिका के संवाद में मोहन राकेश ने लिखा है-


"सोचती थी तुम्हें 'मेघदूत' की पंक्तियाँ गा-गाकर सुनाऊंगी. पर्वत-शिखर से घण्टा-ध्वनियां गूंज उठेंगी और मैं अपनी यह भेंट तुम्हारे हाथों में रख दूंगी.कहूंगी कि देखो, ये तुम्हारी नई रचना के लिए हैं. ये कोरे पृष्ठ मैंने अपने हाथों से बनाकर सिये हैं. इन पर तुम जब जो भी लिखोगे, उसमें मुझे अनुभव होगा कि मैं भी कहीं हूं, मेरा भी कुछ हैं"


इस नाटक की सबसे खास बात इसकी भाषा शैली है जो संस्कृतनिष्ठ न होकर साधारण बोलचाल वाली है. इसी कारण इसकी पॉपुलेरिटी और बढ़ी. मोहन राकेश का मानना था कि साहित्य में इतिहास अपनी यथा तत्थ घटनाओं में व्यक्त नहीं होता बल्कि उसमें कल्पनाओं की मिलावट होती है. जिससे वह एक नए और अपने ही रूप का इतिहास गढ़ती है. 'आषाढ़ का एक दिन' भी ऐसी ही नाटक है जो ऐतिहासिक होते हुए भी काल्पनिक है.