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भारतीय अदालतों में पांच करोड़ से ज्यादा मामले लंबित, इंसाफ मिलने में देरी क्यों?

संसद में लिखित जवाब में सरकार ने बताया कि देश की अलग-अलग अदालतों में लंबित मामलों की संख्या पांच करोड़ के पार है.सरकार ने इसके लिए कई वजहों को जिम्मेदार ठहराया है. लेकिन इसे दूर कैसे किया जाए?

संसद के मानसूत्र सत्र के पहले दिन कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने राज्यसभा में लिखित जवाब में कहा है कि देश की अलग-अलग अदालतों में लंबित मामले पांच करोड़ का आंकड़ा पार कर गए हैं. कानून मंत्री ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट, 25 हाई कोर्ट और अधीनस्थ न्यायालयों में 5.02 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं.

कानून मंत्री मेघवाल ने राज्यसभा को बताया, "इंटीग्रेटेड केस मैनेजमेंट सिस्टम (आईसीएमआईएस) से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक 1 जुलाई तक सुप्रीम कोर्ट में 69,766 मामले लंबित हैं. नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड (एनजेडीजी) पर मौजूद जानकारी के मुताबिक 14 जुलाई तक हाई कोर्ट में 60,62,953 और जिला और अधीनस्थ अदालतों में 4,41,35,357 मामले लंबित हैं."

जजों और न्यायिक अफसरों की कमी की वजह से लंबित हैं मामले

कानून मंत्री का कहना है कि अदालतों में मामलों के लंबित होने के लिए कई कारकों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. पर्याप्त संख्या में जजों और न्यायिक अफसरों की अनुपलब्धता, अदालत के कर्मचारियों और कोर्ट के इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, साक्ष्यों का न जुटाया जाना, बार, जांच एजेंसियों, गवाहों और वादियों जैसे हितधारकों का सहयोग भी शामिल है.

मामलों के निपटान में देरी की एक वजह अलग-अलग तरह के मामलों के निपटान के लिए संबंधित अदालतों की तरफ से निर्धारित समय सीमा की कमी, बार-बार मामले में सुनवाई का टलना और सुनवाई के लिए मामलों की निगरानी, लंबित मामलों को ट्रैक करने की व्यवस्था की कमी भी देरी में अहम भूमिका निभाती है. 

सरकार ने कहा कि अदालतों में मामले के निपटान के लिए पुलिस, वकील, जांच एजेंसियां और गवाह किसी भी मामले में अहम किरदार और मदद पहुंचाते हैं. इन्ही किरदारों या सहयोगियों द्वारा सहायता प्रदान करने में देरी से मामलों के निपटान में भी देरी की वजह बनती है. 

लंबित मामलों से लोकतंत्र नुकसान

मिड डे की खबर के मुताबिक वॉचडॉग फाउंडेशन के ट्रस्टी एडवोकेट गॉडफ्रे पिमेंटा ने कहा 'भारत में विभिन्न अदालतों में मामलों का ढेर एक दरकते हुए लोकतंत्र की तरफ इशारा है. राजनेता जनता को न्याय देने में लगातार पिछड़ गए हैं क्योंकि वो अपने स्वार्थों को पूरा करता है. समय की मांग है कि सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) और दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) में बदलाव किया जाए. ताकि लोगों को इंसाफ दिलाने में बेमतलब की देरी न हो. कोर्ट रूम की संख्या बढ़ाने, ऑनलाइन सुनवाई में बदलाव करने और ज्यादा न्यायाधीशों की नियुक्ति जैसे बुनियादी ढांचे में बदलाव की जरूरत है'. 

गॉडफ्रे पिमेंटा ने आगे कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्तियां बिना किसी हस्तक्षेप के की जानी चाहिए. 

बुनियादी ढांचे की कमी

मिड डे की खबर के मुताबिक सॉलिसिटर स्तुति गालिया ने मामलों के लंबित होने के कई कारणों को बताया. इसमें न्यायाधीशों की कमी, लंबी प्रक्रियात्मक और तकनीकी आवश्यकताएं, न्यायाधीशों का बार-बार स्थानांतरण और संसाधनों और बुनियादी ढांचे की कमी शामिल है. इसके अलावा कई मामलों में, नियामक / सरकारी विभाग शिकायतों को पर्याप्त रूप से संबोधित करने में नाकामयाब रहते हैं.  इससे इन विभागों के खिलाफ या उनसे जुड़े बड़ी संख्या में मामले लंबित हो जाते हैं.

 गलिया ने इस बात पर जोर दिया कि अगर  नियामक/सरकारी विभाग प्रभावी ढंग से अपने कर्तव्यों को निभाते हैं तो नागरिकों को अदालतों का दरवाजा खटखटाने की जरूरत नहीं होगी, और इस तरह न्यायपालिका पर बोझ कम हो जाएगा.

इंसाफ की धीमी रफ्तार कैसे बनी चुनौती

वर्तमान में अदालतों में वकीलों की गैरहाजिरी की वजह से मामलों की सुनवाई नहीं हो पाती है. कानून मंत्री का कहना है, "अदालतों में लंबित मामलों का निपटारा न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में है. अदालतों में मामलों के निपटारे में सरकार की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं है."

नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड की रिपोर्ट में हाल ही में ये बताया गया था कि देश में लंबित मामलों में 61,57,268 ऐसे हैं जिनमें वकील पेश नहीं हो रहे हैं और 8,82,000 मामलों में केस करने वाले और विरोधी पक्षों ने कोर्ट आना छोड़ दिया.

रिपोर्ट के मुताबिक 66,58,131 मामले ऐसे हैं जिनमें आरोपी या गवाहों की पेशी नहीं होती है. इस वजह से मामले की सुनाई नहीं हो पाती है. ऐसे कुल 36 लाख से ज्यादा मामले हैं जिनमें आरोपी जमानत लेकर फरार हैं. दूसरी तरफ देश की निचली अदालतों में ज्यूडिशियल अफसरों के 5,388 से ज्यादा और हाई कोर्ट में 330 से ज्यादा पद खाली हैं.

इसका उपाय क्या है

मिड की खबर के मुताबिक जानकारों का कहना है कि इन चुनौतियों का सामना करने के लिए कई समाधान पेश किए गए हैं. सबसे पहले ज्यादा अदालतों की स्थापना करना जरूरी है. ज्यादा न्यायाधीशों की नियुक्ति करना भी एक तरीका है.  संरचनात्मक संशोधन और नए सिस्टम की जरूरत है.  इसके अलावा कई अदालतों में अभी भी आधुनिकीकरण और डिजिटलीकरण की कमी है, जिससे पूरा सिस्टम फेल हो जाता है.

जानकारों का ये कहना है कि कई बार न्यायाधीश पूर्व सूचना के बावजूद नहीं बैठते है. नतीजतन पूरे बोर्ड को छुट्टी दे दी जाती है, वकीलों और वादियों सहित शामिल सभी पक्षों के लिए समय का बड़ा नुकसान होता है. वहीं कोर्ट में रिक्तियों को लंबे समय से नहीं भरा गया है . देश भर में कानूनी शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की भी जरूरत है.

न्यायालयों के कामकाज को बुनियादी ढांचा प्रदान करना और गुणवत्तापूर्ण बनाना भी जरूरी है. 

कानूनी और संवैधानिक अधिकारों के बारे में सतर्कता

बॉम्बे हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले एडवोकेट राजेश्वर पांचाल ने भी इसी तरह की चिंता जाहिर की थी. उनके मुताबिक मामलों के बैकलॉग से दो प्रमुख मुद्दों का पता चलता है. सबसे पहले, न्यायिक अधिकारियों की नियमित नियुक्तियों की कमी है, जिसके परिणामस्वरूप अदालतें खाली रहती हैं या सीमित कर्मचारियों के साथ काम करते हैं. दूसरी बात यह है कि सरकार ने बढ़ती आबादी के अनुपात में न्यायिक अधिकारियों की संख्या नहीं बढ़ाई है. 

लंबित मामलों की संख्या ज्यादा इस बात की तरफ इशारा है कि लोग अपने कानूनी और संवैधानिक अधिकारों के बारे में अधिक सतर्क हो रहे हैं, जिससे उन्हें अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है. इसके अवाला, सिस्टम की कमी मामलों में सुनवाई में देरी की सबसे बड़ी है. खास तौर से उच्च न्यायपालिका में सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व की कमी है, और आरक्षण नीतियां लागू नहीं होती हैं. नतीजतन न्यायिक कार्यालयों पर मुख्य रूप से आरक्षण के बजाय योग्यता के आधार पर चुने गए व्यक्तियों का कब्जा होता है. 

कितना खतरनाक है ये

मिड डे में छपी खबर के सुप्रीम कोर्ट के वकील फ्लॉयड ग्रेसियस ने  बड़ी संख्या में लंबित मामलों पर गहरी चिंता जाहिर की. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कानून और कानूनी प्रणाली अपराधों के खिलाफ एक निवारक के रूप में काम करना चाहिए. ज्यादा देर से रुके मामलों का ये मतलब है कि न्याय में देरी हो रही है यानी अदालतें अपना काम नहीं कर रही हैं. जो अपराध विज्ञान और पेनोलॉजी के अलग-अलग स्कूलों द्वारा बनाए गए  निवारण सिद्धांत को कमजोर करता है.

ग्रेसियस ने प्रणाली को बढ़ाने, बुनियादी ढांचे के विकास और मुकदमेबाजी के बैकलॉग को कम करने की जरूरतों पर जोर दिया.

आगे का रास्ता

ट्रिब्यून को एडवोकेट श्रीप्रसाद परब ने बताया कि भारत की न्यायिक प्रक्रिया में सुधार की जरूरत है. भारत की कानून व्यवस्था औपनिवेशिक प्रणाली पर आधारित है. परब ने कोविड-19 महामारी के दौरान हुए सकारात्मक बदलावों का जिक्र किया, जैसे कि अदालतों का ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर जाना एक बेहतर विकल्प है.

हालांकि परब ने कई समाधान बताए, जिनमें युवा वकीलों को लॉ कॉलेज के पाठ्यक्रम में शामिल करा के न्यायपालिका में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करना, मुकदमेबाजी का सहारा लेने से पहले मध्यस्थता और निपटान को बढ़ावा देना, मामलों और दस्तावेजों की ऑनलाइन फाइलिंग को लागू करना, प्रशासनिक न्यायिक कार्य को डिजिटल बनाना और वर्चुअल कार्यवाही का समर्थन करने के लिए अदालतों के बुनियादी ढांचे में सुधार करना शामिल है. 

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