Mulayam Singh Yadav Death: उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव का 82 साल की उम्र में निधन हो गया. मुलायम सिंह यादव ने गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में अंतिम सांस ली. बीते कुछ समय से वे स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना कर रहे थे. उन्हें इसी महीने आईसीयू में शिफ्ट किया गया था.
मुलायम सिंह यादव अपने राजनीतिक जीवन में 7 बार सांसद रहे. महज 15 साल की छोटी उम्र में उन्होंने आंदोलन के जरिए राजनीति में एंट्री ली. चलिए आपको नेताजी से जुड़े कुछ रोचक किस्से बताते हैं.
अखाड़े में मशहूर था मुलायम सिंह यादव का चरखा दांव
मुलायम सिंह को पहलवानी में बचपन से ही दिलचस्पी थी. उनके पिता सुधर सिंह चाहते थे कि उनके सभी बच्चे खेती-बाड़ी करें और साथ-साथ अपने शरीर का भी ध्यान रखें. शरीर से उनका सीधा मतलब पहलवानी की तरफ था. स्कूल के बाद कॉलेज की पढ़ाई चलती रही, लेकिन मुलायम सिंह यादव ने पहलवानी नहीं छोड़ी. वे लगातार प्रैक्टिस करते रहे और कई प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया.
कहा जाता है कि वे अपनी उम्र के पहलवानों में चैंपियन बन गए थे. अखिलेश यादव की बायोग्राफी "विंड्स ऑफ चेंज" में वरिष्ठ पत्रकार सुनीता एरॉन मुलायम के चचेरे भाई राम गोपाल यादव के हवाले से लिखती हैं कि स्कूल-कॉलेज के समय मुलायम सिंह यादव 'चरखा दांव' के लिए काफी चर्चित थे. कद में नेताजी छोटे थे, लेकिन चरखा दांव का खौफ बड़े-बड़े पहलवानों में था. चरखा दांव का प्रयोग कर उन्होंने कई बड़े पहलवानों को चित किया.
कुश्ती ने ऐसे बदली मुलायम सिंह यादव की जिंदगी
1965 में मुलायम सिंह यादव ने इटावा में एक कुश्ती प्रतियोगिता में हिस्सा लिया. इस कुश्ती प्रतियोगिता ने मुलायम सिंह की जिंदगी हमेशा के लिए बदल दी. कुश्ती प्रतियोगिता में चीफ गेस्ट के तौर पर जसवंतनगर विधायर नत्थू सिंह यादव ने शिरकत की थी. मुलायम सिंह यादव ने कुश्ती में अपने से दोगुने पहलवान को पटखनी दे दी और इससे नत्थू यादव बेहद प्रभावित हुए. नत्थू सिंह यादव को मुलायम सिंह का राजनीतिक गुरु कहा जाता है.
1967 में नत्थू सिंह यादव ने मुलायम सिंह को चुनाव लड़वाने के लिए अपनी जसवंतनगर की सीट तक छोड़ दी थी. मुलायम सिंह यादव ने भी अपने गुरु को निराश नहीं किया और अपने पहले ही चुनाव में भारी वोटों से जीत हासिल की और महज 28 की उम्र में वे विधायक बन विधानसभा पहुंचे.
मुलायम सिंह यादव पर हुई थी फायरिंग
पहली बार विधानसभा चुनाव जीतने पर मुलायम सिंह के गांव सैफई में जश्न मनाया गया. जश्न के माहौल में गोली भी चली. बताया जाता है कि मुलायम सिंह यादव को अपने कद का लाभ हुआ और एक पीछे खड़े एक लंबे आदमी को गोली लगी. एक बार फिर ऐसा मौका आया जब उन पर फायरिंग हुई. हालांकि वे बाल-बाल बच गए.
गुप्त मतदान से मुख्यमंत्री बने मुलायम सिंह यादव
80 के दशक की बात तरें तो उस समय जनता पार्टी, जन मोर्चा, लोकदल (अ) और लोकदल (ब) ने मिलकर जनता दल का गठन किया. इन चारों दलों की एकजुटता का असर 1989 के विधानसभा चुनावों में देखने को मिला. विपक्ष ने राज्य में 208 सीटों पर जीत दिलाई. यूपी में उस समय 425 सीटें हुई करती थी. यही कारण है कि जनता दल को बहुमत के लिए 14 विधायकों की जरूरत थी.
जनता दल के सामने एक मुश्किल और थी. उस समय मुख्यमंत्री पद के दो उम्मीदवार थे, एक मुलायम सिंह यादव और दूसरे चौधरी अजीत सिंह. बताया जाता है कि अजीत सिंह का नाम लगभग फाइनल कर लिया गया था, लेकिन नेताजी के सियासी दांव ने हर किसी को हैरान कर दिया. उन्होंने भी सीएम पद की दावेदारी ठोक दी. इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने कहा कि फैसला लोकतांत्रिक तरीके से गुप्त मतदान के जरिए होगा. नेताजी ने अजीत सिंह के खेमे के 11 विधायकों को अपने पक्ष में किया. इसके बाद बंद कमरे में बंद हुआ और अजीत सिंह पांच वोट से हार गए और पांच सितंबर, 1989 को मुलायम सिंह ने पहली बार सीएम पद की शपथ ली.
1975 में आपातकाल के दौरान जेल गए थे नेताजी
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया तो बाकी विपक्षी नेताओं की तरह मुलायम सिंह भी जेल गए. आपातकाल के बाद जनता पार्टी बनी तो मुलायम सिंह उसमें सबसे सक्रिय सदस्य थे. आपातकाल के बाद हुए चुनावों भारतीय राजनीति को पूरी तरह से प्रभावित किया. इन चुनावों में लोगों ने कांग्रेस और आपातकाल के खिलाफ मतदान किया. इसी के बाद चुनावी समीकरणों में ऊंची जातियों का वर्चस्व भी टूटने लगा. चुनाव के बाद यूपी में राम नरेश यादव को सीएम बनाया गया तो नेताजी ने पहली बार मंत्री पद की शपथ ली.
ये बातें भी जान लीजिए-
- मुलायम सिंह यादव को प्यार से 'नेताजी' के नाम से संबोधित किया जाता है
- उन्हें भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह 'लिटिल नेपोलियन' कहते थे
- मुलायम सिंह यादव राम मनोहर लोहिया से बहुत प्रभावित थे
- राजनीति में आने से पूर्व बतौर शिक्षक अध्यापन का कार्य कर चुके हैं
- 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरने के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए सोनिया गांधी की उम्मीदवारी का विरोध किया था.