भारत की पहली मोनोरेल की शुरूआत अबसे सात साल पहले 2013 में हुई थी. रोजाना 97 सेवाएं चलाने के लिये इसे साढ़े 8 लाख रुपये का घाटा हो रहा है. जब ये शुरू हुई थी तबसे ये घाटे में है. शुरूआत में ये सिर्फ वडाला से चेंबूर के बीच सिर्फ 8 किलोमीटर के पहले चरण में चलती थी. तब ये माना गया था कि 20 किलोमीटर के पूरे रूट पर सेवाओं की शुरूवात होने के बाद घाटे में कमी आयेगी. अबसे सालभर पहले दूसरे चरण की शुरूवात भी हो गई, लेकिन मोनोरेल की आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ.
दरअसल जानकारों के मुताबिक मोनोरेल के असफल होने के पीछे कई कारण हैं. सबसे बडा कारण ये है कि इसकी फ्रीक्वेंसी काफी कम है. एक मोनोरेल के बाद दूसरी मोनोरेल आने में 30 मिनट से ऊपर का इंतजार करना पडता है. दूसरा कारण है कि कई मोनोरेल स्टेशन आबादी से दूर बनाये गये हैं जैसे भक्ति पार्क, वडाला टीटी और मैसूर कॉलनी. इन इलाकों में रहने वाले लोगों को मोनोरेल स्टेशन तक पहुंचने में असुविधा होती है.
मोनोरेल की सुरक्षा को लेकर भी सवाल उठ चुके हैं. एक बार मोनोरेल में चलते वक्त आग लग चुकी है. कई बार ऐसा हुआ कि मोनोरेल बीच रास्ते में ही अटक गई. ऊंचाई पर फंसे मुसाफिरों को निकालने के लिये फायरब्रिगेड की मदद लेनी पड़ी. आये दिन तकनीकी खराबी की वजह से मोनोरेल बंद हो जाती है.
अब माना जा रहा है कि मोनोरेल के डिब्बों को जश्न के मौकों के लिये किराये पर देने से उसकी माली हालत सुधरेगी. जल्द ही कई और डिब्बे भी आयात किये जा रहे हैं, जिनसे मोनोरेल की बारंबारता भी बेहतर होगी और मुसाफिर उसकी ओर खिचेंगें.