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मुनव्वर राना की शायरी मुल्कों की जुग़राफिया नहीं जो सांप्रदायिक सैलाब में बदल जाए
अदब का एक चिराग बुझ गया जिसकी तबीयत में ताउम्र इंकिसार (विनम्रता) इस तरह थी कि वैसी फक़ीरों और दुर्वेशों के यहां भी मुश्किल से मिलती हैं.
फूलती हुई सांसें, कंपकपाता हुआ जिस्म, टपकते हुए ज़ख़्मों जैसा चेहरा, चराग़े आखिरे शब की तरह झिलमिलाती आंखें...लेकिन मुस्कुराहट ऐसी जैसे जलते हुए तवे की मुस्कुराहट, जैसे कांटों की बाढ़ में उलझा
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प्रशांत कुमार मिश्र, राजनीतिक विश्लेषक
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