नई दिल्लीः पिछले 15 बरस से दिल्ली की तीनों नगर निगम की सत्ता में काबिज़ भारतीय जनता पार्टी के लिये खतरे की घंटी बज चुकी है. पांच सीटों पर हुए उप चुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से बीजेपी का सूपड़ा साफ किया है, उससे बीजेपी की प्रदेश इकाई को ही नहीं बल्कि केंद्रीय नेतृत्व को भी सबक लेने की जरुरत है. वह इसलिये कि अगले साल MCD के मुख्य चुनाव हैं और दिल्ली की जनता की नब्ज को समझ चुके केजरीवाल की आप का प्रदर्शन अगर ऐसा ही रहा तो उसे बीजेपी को निगमों से बाहर का रास्ता दिखाने में कोई ज्यादा मुश्किल नहीं आने वाली है.


चूंकि देश की राजधानी होने के नाते यहां होने वाले हर छोटे-बड़े चुनाव की हार-जीत का संदेश देश के बाकी हिस्सों तक बड़ी तेजी से जाता है और कमोबेश उसका असर भी पड़ता है. लिहाज़ा, बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को यह नहीं भूलना चाहिये कि अगले साल अप्रैल में जब दिल्ली निगमों के चुनाव होंगे तब उसके आसपास ही उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, पंजाब व हिमाचल प्रदेश समेत सात राज्यों में भी विधानसभा के चुनाव होने हैं.


ऐसे में बीजेपी नेतृत्व को अरविंद केजरीवाल की राजनीति की काट अभी से तलाशनी होगी. क्योंकि, वे दिल्ली निकायों के साथ ही इन राज्यों में भी चुनावी-अखाड़ों में कूदने की तैयारी कर रहे हैं. गुजरात के सूरत नगर निगम में आप मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर उभरी है और इससे केजरीवाल के हौसले पहले से अधिक बुलंद हुए हैं.


दिल्लीवासियों को मुफ्त पानी, बिजली देने और महिलाओं को बसों में मुफ्त सफर कराने के वादे को जिस तरह से उन्होंने पूरा किया है,उससे लोगों का भरोसा उनके प्रति बढ़ा है. जाहिर है कि आप आगामी विधानसभा चुनावों में भी केजरीवाल के इस दिल्ली मॉडल का ढिंढोरा जोरशोर से पिटेगी और अपने पूरे प्रचार अभियान में दिल्ली जैसे लोक-लुभावन वादों का पिटारा खोलने से पीछे नहीं हटेगी.


अभी तक आप को सिर्फ दिल्ली तक सीमित मानकर केजरीवाल को हल्के में ले रहे बीजेपी नेतृत्व को यह सोचना होगा कि सूरत जैसे उनके मजबूत गढ़ में जो क्षेत्रीय पार्टी सेंध लगा सकती है, वह आगे होने वाले बड़े चुनावों में भी खासा नुकसान कर सकती है. चुनाव छोटा हो या बड़ा लेकिन उसकी पराजय अपने मायने रखती है. लिहाज़ा क्षेत्रीय दलों के विजय-रथ के पहिये को रोकने के लिए राष्ट्रीय पार्टी को रणनीति में बदलाव लाना होगा.


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