नई दिल्ली: किसी भी लेखक का लेखन जब समाज में व्याप्त गरीबी, शोषण, अन्याय और उत्पीड़न का लिखित दस्तावेज बन जाए तो वह लेखक प्रेमचंद बन जाता है. वही प्रेमचंद जो साहित्य को रहस्य, रोमांच और तिलिस्म से निकालकर धनिया, झुनिया, सूरदास और होरी जैसे पात्रों तक ले गए. प्रेमचंद होने के लिए केवल कहानी या उपन्यास की रचना कर देना काफी नहीं है बल्कि उसके लिए तो गोदान में होरी की बेबसी, कफन में घीसू और माधव जैसे पात्रों की गरीबी और उस गरीबी से जन्मी संवेदनहीनता को कागज पर ऐसे उकेरना पड़ता है कि पढ़ने वालों का कलेजा बाहर आ जाए.
आज ही के दिन 31 जुलाई 1880 को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गांव में पैदा हुए हिन्दी-उर्दू के इस सबसे बड़े साहित्यकार ने बचपन से ही गरीबी और अभाव को देखा. पिता डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे. यही कारण है कि हालात से पैदा हुआ साहित्य जब कागज पर लिखा गया तो उसमें विकास के भागते पहिये की झूठी चमक नहीं बल्कि आजादी की आधी से ज्यादा सदी गुजर जाने के बावजूद लालटेन-ढ़िबरी के युग में जीने को मजबूर ग़रीब-गुरबों और मेहनत-मशक़्क़त करनेवालों की निगाहों के सामने छाए घुप्प अंधेरे का जिक्र था.
जीवन की परिस्थियां और प्रेमचंद
धनपतराय से प्रेमचंद बनने का सफर दिलचस्प है, लेकिन साथ ही बहुत ज्यादा भावुक भी. उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता का देहांत हो गया. आठ साल की उम्र से जो विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय का शुरू हुआ वह अपने जीवन के अन्त तक लगातार उससे जूझते रहे. मां के देहांत के बाद उनके पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम और स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका. उनका जीवन गरीबी में ही पला. पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था. इन सबके अलावा घर में सौतेली मां का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था.
पिता ने 15 साल की उम्र में ही विवाह करवा दिया. पत्नी के बारे में प्रेमचंद ने लिखा है,'' उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी. जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया. उसके साथ-साथ जबान की भी मीठी न थी. पिताजी ने जीवन के अंतिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया. मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली."
विवाह के एक साल बाद ही प्रेमचंद के पिताजी का देहांत हो गया. अचानक उनके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया. एक साथ पांच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा. प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी.
हालांकि पढ़ने का शौक था इसलिए तमाम विपरित परिस्थियों के बावजूद भी प्रेमचंद ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई. जीवन के शुरुआती दिनों में अपने गांव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पांव जाया करते थे. आगे चलकर वकील बनना चाहते थे, मगर गरीबी ने तोड़ दिया. स्कूल आने-जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहां ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे. ट्यूशन का पांच रुपया मिलता था. पांच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे और इस तरह प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया.
पढ़ने का शौक
प्रेमचंद को बचपन से ही पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था. उर्दू में खासा रूची रखते थे. उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने थे. जहां भी इनकी किताबें मिलती उसे पढ़ने लगते. अच्छा लिखने के लिए एकमात्र शर्त अच्छा पढ़ना है. तेरह वर्ष की उम्र से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था. शुरू में उन्होंने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया. इस तरह उनका साहित्यिक सफर शुरू हुआ जो मरते दम तक साथ-साथ रहा.
1905 में प्रेमचंद की दूसरी शादी हुई. दरअसल पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई और कभी नहीं लौटी. प्रेमचंद ने दूसरी शादी एक विधवा स्त्री शीवरानी देवी से की थी. इसके बाद प्रेमचंद साहित्य की सेवा में लग गए.
पहली कहानी संग्रह को अंग्रेजी हुकूमत ने जला दिया
दूसरी शादी के बाद थोड़ी-बहुत जिंदगी में खुशहाली आई तो इसी जमाने में प्रेमचंद की पांच कहानियों का संग्रह 'सोज़े वतन' 1907 में प्रकाशित हुआ. सोज़े वतन, यानि देश का दर्द. प्रेमचंद की उर्दू कहानियों का यह पहला संग्रह था जो उन्होंने ‘नवाब राय’ के नाम से छपवाया था. अंग्रेजी हुक्मरानों को इन कहानियों में बगावत की गूंज सुनाई दी. हम्मीरपुर के कलक्टर ने प्रेमचंद को बुलवाकर उनसे इन कहानियों के बारे में पूछताछ की. प्रेमचंद ने अपना जुर्म कबूल किया. उन्हें कड़ी चेतावनी दी गयी और सोजे वतन की 500 प्रतियां जो अंग्रेजी हुकूमत के अफसरों ने जगह-जगह से जप्त की थीं, उनको सरे आम जलाने का हुक्म दिया. हालांकि सोजे वतन में शामिल सभी पांच कहानियाँ उर्दू मासिक ‘जमाना’ में पहले ही छप चुकी थीं.
सोज़े वतन में प्रेमचंद लिखते हैं
“हर एक कौम का इल्मो-अदब अपने ज़माने की सच्ची तस्वीर होती है. जो खयालात कौम के दिमाग को गतिमान करते हैं और जो जज्बात कौम के दिलों में गूंजते हैं, वो नज्मो-नस्त के सफों में ऐसी सफाई से नजर आते हैं जैसे आईने में सूरत. हमारे लिटरेचर का शुरूआती दौर वो था कि लोग गफलत के नशे में मतवाले हो रहे थे. इस ज़माने की अदबी यादगार बजुज़ आशिकाना गज़लों और चंद फदहास किस्सों के सिवा और कुछ नहीं. दूसरा दौर उसे समझना चाहिए जब कौम के नए और पुराने खयालात में जिंदगी और मौत कि लड़ाई शुरू हुई और इस्लाहे-तमद्दुन (सांस्कृतिक सुधार) की तजवीजें सोची जाने लगी. अब हिन्दुस्तान के कौमी ख्याल ने बालिगपन के जीने पर एक कदम और बढ़ाया है और हुब्बे-वतन के जज्बात लोगों के दिलों में उभरने लगे हैं. क्यूंकर मुमकिन था कि इसका असर अदब पर न पड़ता? ये चंद कहानियां इसी असर का आगाज है और यकीन है कि जूं-जूं हमारे ख़याल वसीह होते जायेंगे, इसी रंग के लिटरेचर का रोज-बरोज फरोग होता जायेगा. हमारे मुल्क को ऐसी की किताबों की असद जरूरत है, जो नयी नस्ल के जिगर पर हुब्बे-वतन की अज़मत का नक्शा जमाएं”
प्रेमचंद ने खूब लिखा. लगभग तीन सौ कहानियां और लगभग आधा दर्जन प्रमुख उपन्यास साथ ही एक नाटक भी. उर्दू में भी लिखा और हिन्दी में भी. किसान, मजदूर, पत्रकारिता, पूंजीवाद, गांधीवाद, राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन, बेमेल विवाह, धार्मिक पाखंड और ब्राह्मण कर्मकांड, लिव इन रिलेशनशिप, नारीवाद इत्यादि सभी विषय को अपनी रचना में उकेरा.
उन्होंने कभी कल्पना और फंतासियों पर कलम नहीं चलाया. उनकी कल्पनाओं में चांद या मौसम नहीं रहा. प्रेमचंद हिन्दी साहित्य में वैसे लेखक रहे, जिन्होंने हमेशा ही समाज के स्याह पक्ष को सामने रखा. उन्होंने अपने कहानी, उपन्यास में जो कुछ भी लिखा वह तत्कालीन समाज की हकीक़त थी. 'गोदान' के होरी में किसान की दुर्दशा बयान की तो 'ठाकुर का कुंआ' में समाजिक हक से महरूम लोगों का दर्द. प्रेमचंद कलमकार नहीं अपने समय में कलम के मजदूर बनकर लिखते रहे. उनकी कृतियों में जाति भेद और उस पर आधारित शोषण तथा नारी की स्थिति का जैसा मार्मिक चित्रण किया गया, वह आज भी दुर्लभ है. एक तरफ जहां प्रेमचंद भूख से विवश होकर आत्महत्या करते किसान की कहानी कहते थे तो दूसरी तरफ हामिद के लड़कपन में बुज़ुर्गों के लिए फ़िक्र दिखाकर लोगों का दिल छूने में सफल रहे.
विधवा समस्या को 'प्रतिज्ञा' में, राजनीतिक आंदोलनों को 'वरदान' में, मध्यम वर्ग की दुर्बलता और वेश्या की समस्या का चित्रण 'सेवासदन' में, दहेज और बेमेल विवाह का चित्रण 'निर्मला' में, निम्न वर्ग की आर्थिक समस्या का चित्रण 'गबन' में, भारतीय किसानों की गाथा 'गोदान' में तो अपने अंतिम अपूर्ण उपन्यास मंगलसूत्र में साहित्य साधना के कष्टों को उजागर किया.
प्रेमचंद ने जो भोगा, जो देखा वही लिखा और इसलिए ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रेमचंद के बारे में कहा है कि ''प्रेमचंद ने अतीत का गौरव राग नहीं गाया, न ही भविष्य की हैरत-अंगेज़ कल्पना की. वह ईमानदारी के साथ वर्तमान काल की अपनी वर्तमान अवस्था का विश्लेषण करते रहे.''