Premchand Jayanti:  प्रेमचंद यानी हिन्दी साहित्य में जिन्हें कहानियों का सम्राट माना जाता है. कहा जाता है कि किसी भी लेखक का लेखन जब समाज की गरीबी, शोषण, अन्याय और उत्पीड़न का लिखित दस्तावेज बन जाए तो वह लेखक अमर हो जाता है. प्रेमचंद ऐसे ही लेखक थे. उन्होंने रहस्य, रोमांच और तिलिस्म को अपने साहित्य में जगह नहीं दी बल्कि धनिया, झुनिया, सूरदास और होरी जैसे पात्रों से साहित्य को एक नई पहचान दी जो यथार्थ पर आधारित था. प्रेमचंद जैसे लेखक सिर्फ उपन्यास या कहानी की रचना नहीं करते बल्कि वो गोदान में होरी की बेबसी दिखाते हैं तो वहीं, कफन में घीसू और माधव की गरीबी और उस गरीबी से जन्मी संवेदनहीनता जैसे विषय जब कागज पर उकेरते हैं तो पढ़कर पाठक का कलेजा बाहर आ जाता है.


साल 1880 और तारीख 31 जुलाई था, जब बनारस शहर से चार मील दूर लमही गांव में कहानियों के सम्राट प्रेमचंद पैदा हुए. उन्होंने बचपन में काफी गरीबी देखी. उनके पिता डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे. प्रेमचंद ने इस कदर बचपन से ही आर्थिक तंगी का सामना किया कि उनकी लेखनी में विकास के भागते पहिये की झूठी चमक कभी नहीं दिखी, बल्कि इसकी जगह लेखक ने आजादी की आधी से ज्यादा सदी गुजरने के बाद भी लालटेन-ढ़िबरी की रौशनी में जीने को मजबूर ग़रीब-गुरबों को अपनी कहानी का पात्र बनाया. अपने उपन्यास और कहानियों में गांव के घुप्प अंधेरे का जिक्र किया.


जीवन की परिस्थियां और प्रेमचंद


कहानी के सम्राट का धनपतराय से प्रेमचंद बनने का सफर दिलचस्प है. हालांकि कहानी दिलचस्प होने के साथ बहुत ज्यादा भावुक भी है. प्रेमचंद की उम्र 8 साल की ही थी कि उनकी मां दुनिया छोड़ कर चली गईं. छोटी उम्र में ही मां को खो देने के बाद धनपतराय का मुश्किलों भरा सफर शुरू हुआ. यह मुश्किलों भरा सफर प्रेमचंद के जीवन के अंत तक चलता रहा. जैसे ही मां की मृत्यु हुई प्रेमचंद के पिता ने दूसरी शादी कर ली. इस वजह से प्रेमचंद एक बालक के तौर पर मां के जिस प्रेम और स्नेह को चाहते थे उसे ना पा सके. उनका जीवन गरीबी में ही पला. उनके पास पहनने के लिए अच्छे कपड़े नहीं होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन होता था. इससे भी ज्यादा मुश्किल उनके लिए अपनी सौतेली मां का व्यवहार था.


एक और परेशानी तब हुई जब प्रेमचंद के पिता ने काफी कम उम्र में उनकी शादी करवा दी थी. उनका विवाह 15 साल की उम्र में करवा दिया गया. प्रेमचंद की शादी के लगभग एक साल बाद ही उनके पिता का देहांत हो गया. इसके बाद अचानक उनके सिर पर पूरे घर की जिम्मेदारी आ गई. प्रेमचन्द पर छोटी उम्र में ही ऐसी आर्थिक विपत्तियों का पहाड़ टूटा कि उन्हें पैसे के अभाव में अपना कोट बेचना पड़ा. इतना ही नहीं खर्च चलाने के लिए उन्होंने अपनी पुस्तकें भी बेच दी.


हालांकि प्रेमचंद को इन तमाम परिस्थियों में भी पढ़ने का शौक लगा रहा. प्रेमचंद ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई. जीवन के शुरुआती दिनों में अपने गांव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पांव जाया करते थे. प्रेमचंद पढ़-लिखकर एक वकील बनना चाहते थे, मगर गरीबी ने तोड़ दिया. स्कूल आने-जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहां ट्यूशन पकड़ लिया. उससे पांच रुपया मिलता था. पांच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को दे देते थे जबकि बाकी बचे दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाने की कोशिश में लगे रहते. ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उन्होंने मैट्रिक पास किया.


पढ़ने का शौक


प्रेमचंद को बचपन से ही पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था. उर्दू में खासा रूची रखते थे. उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार के प्रेमचंद दीवाने थे. जहां भी इनकी किताबें मिलती उसे पढ़ने लगते. अच्छा लिखने के लिए एकमात्र शर्त अच्छा पढ़ना है.यह प्रेमचंद जानते थे. तेरह वर्ष की उम्र से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था. शुरू में उन्होंने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया. इस तरह उनका साहित्यिक सफर शुरू हुआ जो मरते दम तक साथ-साथ रहा.


1905 में प्रेमचंद की दूसरी शादी हुई. दरअसल पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई और कभी नहीं लौटी. प्रेमचंद ने दूसरी शादी एक विधवा स्त्री शीवरानी देवी से की थी. इसके बाद प्रेमचंद साहित्य की सेवा में लग गए.


पहली कहानी संग्रह को अंग्रेजी हुकूमत ने जला दिया


दूसरी शादी के बाद थोड़ी-बहुत जिंदगी में खुशहाली आई तो इसी जमाने में प्रेमचंद की पांच कहानियों का संग्रह 'सोज़े वतन' 1907 में प्रकाशित हुआ. सोज़े वतन, यानि देश का दर्द. प्रेमचंद की उर्दू कहानियों का यह पहला संग्रह था जो उन्होंने ‘नवाब राय’ के नाम से छपवाया था. अंग्रेजी हुक्मरानों को इन कहानियों में बगावत की गूंज सुनाई दी. हम्मीरपुर के कलक्टर ने प्रेमचंद को बुलवाकर उनसे इन कहानियों के बारे में पूछताछ की. प्रेमचंद ने अपना जुर्म कबूल किया. उन्हें कड़ी चेतावनी दी गयी और सोजे वतन की 500 प्रतियां जो अंग्रेजी हुकूमत के अफसरों ने जगह-जगह से जप्त की थीं, उनको सरे आम जलाने का हुक्म दिया. हालांकि सोजे वतन में शामिल सभी पांच कहानियाँ उर्दू मासिक ‘जमाना’ में पहले ही छप चुकी थीं.



इसके बाद भी प्रेमचंद ने खूब लिखा. लगभग तीन सौ कहानियां और लगभग आधा दर्जन प्रमुख उपन्यास, साथ ही एक नाटक भी. उर्दू में भी लिखा और हिन्दी में भी. उनके विषय किसान, मजदूर, पत्रकारिता, पूंजीवाद, गांधीवाद, राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन, बेमेल विवाह, धार्मिक पाखंड, नारीवाद आदि रहे.


प्रेमचंद राष्ट्रवाद को एक कोढ़ मानते थे


आज पूरे देश में राष्ट्रवाद पर खूब चर्चा होती है. हर कोई इसकी परिभाषा अपने हिसाब से तय करता है, लेकिन प्रेमचंद के लिए राष्ट्रवाद का अर्थ आज के राष्ट्रवाद की तरह संकीर्ण नहीं बल्कि बहुत व्यापक थी. हालांकि वो अन्तर्राष्ट्रीयता में विश्वास रखते थे. उनका मानना था कि जैसे मध्यकालीन समाज का कोढ़ सांप्रदायिकता थी, वैसे ही वर्तमान समय का कोढ़ राष्ट्रवाद है. प्रेमचंद का मानना था कि जैसे सांप्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर राज्य स्थापित कर देना चाहती थी और उसे उस बनाए घेरे से बाहर की चीजों को मिटाने में ज़रा भी संकोच नहीं होता था ठीक उसी तरह राष्ट्रीयता भी है जो अपने परिमित क्षेत्र के अंदर रामराज्य का आयोजन करती है. उसे लगता है कि उस क्षेत्र से बाहर का समाज उसका शत्रु है. प्रेमचंद अन्तर्राष्ट्रीयता के प्रचार पर जोर देते थे और उनका मानना था कि एक जागरूक समाज संसार में यही करती है. 


इतना ही नहीं प्रेमचंद का मानना था कि राष्ट्रवाद पुंजिवाद को जन्म देता है और फिर धर्म और जाति के हथियारों से उसकी रक्षा करता है. प्रेमचंद हमेशा पुंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ रहे. उन्होंने 6 नवम्बर 1933 के ‘जागरण’ में लिखा-‘जिधर देखिए उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई है. किसानों की खेती उजड़ जाय, उनकी बला से. कहावत के उस मूर्ख की भाँति जो उसी डाल को काट रहा था, जिस पर वह बैठा था.'


प्रेमचंद के लिए राष्ट्रवाद का अर्थ काफी अलग था. उनके देश की परिभाषा में समानता की बात थी. स्त्री-पुरुष के बीच समानता, किसान-ज़मीदार के बीच समानता, विभिन्न धर्म और जातियों के बीच समानता, देश के नागरिकों के बीच आर्थिक समानता आदि ही उनके लिए एक असल राष्ट्र का सही अर्थ था.


जो भोगा वही लिखा


प्रेमचंद ने जो भोगा, जो देखा वही लिखा. मुंशी प्रेमचंद की कल्पनाओं में चांद या मौसम का जिक्र नहीं बल्कि उनके साहित्य में हमेशा ही समाज के स्याह पक्ष का जिक्र मिलता है. उदाहरण के तौर पर 'गोदान' के होरी में किसान की दुर्दशा का जिक्र तो 'ठाकुर का कुंआ' में समाजिक हक से महरूम लोगों का दर्द. उनकी कोई भी कहानी या उपन्यास उठा कर देख लीजिए. आपको ऐहसास होगा कि उन्होंने कभी कलमकार बनकर नहीं बल्कि कलम के मजदूर बनकर लिखा.