Muslim women Alimony: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजारभत्ते का हक, क्या राजीव गांधी वाली गलती दोहराएंगे पीएम मोदी?
मुस्लिम धर्म गुरुओं और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दबाव में मई 1986 में संसद से Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986 (MWPRD Act) कानून पारित किया गया.
तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया है. इस फैसले को 39 साल पहले आए शाहबानो के फैसले से भी जोड़कर देखा जा रहा है, लेकिन इन दोनों केस को एक साथ जोड़ देने से कई ऐसे सवाल खड़े हो गए हैं, जिनके जवाब की तलाश जरूरी है. उदाहरण के तौर पर सवाल ये है कि क्या सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला संसद के बनाए कानून के खिलाफ है, जो 38 साल पहले राजीव गांधी ने बनाया था. सवाल ये है कि जिस तरह से शाहबानो केस के बाद राजीव गांधी और उनकी पूरी सरकार ने इस मुद्दे पर दखल दिया था, अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भी सरकार इस मुद्दे पर दखल देने का इरादा रखती है. आखिर 10 जुलाई 2024 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले में ऐसा क्या है, जिसने एक नई सियासी बहस को जन्म दे दिया है, जिसका एक सिरा सीधे राजीव गांधी से तो दूसरा सिरा सीधे मुस्लिम राजनीति से जाकर जुड़ गया है, आज बात करेंगे विस्तार से.
सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला क्या है?
10 जुलाई 2024 को सुप्रीम कोर्ट के दो जजों जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की बेंच ने फैसला दिया है कि मुस्लिम महिलाओं को भी अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है. दोनों ही जजों ने सीआरपीसी की धारा 125 का हवाला देते हुए कहा है कि सीआरपीसी की धारा 125 हर धर्म की शादीशुदा महिलाओं पर लागू होती है और मुस्लिम महिलाएं इस धारा से अलग नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला 12 साल पुराने केस में आया है. तब 15 नवंबर 2012 को तेलंगाना के रहने वाले मोहम्मद अब्दुल समद की पत्नी ने अब्दुल समद का घर छोड़ दिया था. घर छोड़ने के करीब पांच साल बाद महिला ने अपने पति के खिलाफ आईपीसी की धारा 498 ए ( पति या रिश्तेदार द्वारा क्रूरता करना) और धारा 406 (आपराधिक विश्वासघात) के तहत केस दर्ज करवाया था. इससे नाराज अब्दुल समद ने अपनी पत्नी को साल 2017 में तीन तलाक दे दिया.
28 सितंबर 2017 को दोनों का तलाक हो गया. फिर महिला ने फैमिली कोर्ट में याचिका दाखिल की और कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत उसे पूर्व पति अब्दुल समद से गुजारा भत्ता चाहिए. 9 जून 2023 को फैमिली कोर्ट ने अब्दुल समद को आदेश दिया कि वो अपनी पूर्व पत्नी को हर महीने 20 हजार रुपये गुजारा भत्ता दे, लेकिन अब्दुल समद इसके खिलाफ हाई कोर्ट चले गए. तो हाई कोर्ट ने भी फैमिली कोर्ट का फैसला बरकरार रखा, बस गुजारे भत्ते की रकम 20 हजार से घटाकर 10 हजार कर दी. तो अब्दुल समद सुप्रीम कोर्ट चले गए और कहा कि किसी मुस्लिम पर सीआरपीसी की धारा 125 लागू नहीं होती है बल्कि उसपर 1986 में बना कानून मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) लागू होता है.
सुप्रीम कोर्ट ने अब्दुल समद की दलील नहीं मानी और 10 जुलाई 2024 को फैसला देते हुए कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 हर धर्म पर लागू होती है. लिहाजा अब्दुल समद को अपनी पूर्व पत्नी को गुजारा भत्ता देना ही होगा. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को शाहबानो 2.0 कहा जा रहा है क्योंकि 1985 में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने शाहबानो के मामले में भी ऐसा ही फैसला दिया था.
सुप्रीम कोर्ट का 1985 का फैसला क्या है?
इंदौर की रहने वाली शाहबानो को भी उनके पति मोहम्मद अहमद खान ने तीन तलाक दे दिया था. अपना और अपने पांच बच्चों का भरण पोषण करने के लिए शाहबानो अदालत पहुंचीं और सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने पूर्व पति से गुजारे भत्ते की मांग की. 1985 में ये मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और तत्कालीन चीफ जस्टिस यशवंत विष्णु चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने फैसला शाहबानो के पक्ष में सुनाया. तब चीफ जस्टिस चंद्रचूड़, जस्टिस रंगनाथ मिश्रा, जस्टिस डीए देसाई, जस्टिस ओ चिनप्पा रेड्डी और जस्टिस ईएस वेंकटचेलैया ने 23 अप्रैल 1985 को फैसला दिया कि मोहम्मद अहमद खान को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपनी पूर्व पत्नी शाहबानो को गुजारा भत्ता देना ही होगा. तब ये रकम 179 रुपये 20 पैसे तय की गई थी, लेकिन तब मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध किया, शरीयत में दखल का हवाला दिया और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को मुस्लिम वोट बैंक के छिटकने के डर से सुप्रीम कोर्ट के बनाए कानून को पलटने के लिए संसद में कानून बनाना पड़ा.
राजीव गांधी के बनाए कानून में क्या है?
मुस्लिम धर्म गुरुओं और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दबाव में मई 1986 में संसद से एक कानून पारित हुआ. इसे नाम दिया गया Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986 (MWPRD Act). हिंदी में कहते हैं मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) कानून. ये कानून कहता है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला को अपने पति से इद्दत के वक्त तक ही गुजारा भत्ता मिलेगा. इसके अलावा कानून में ये भी है कि तलाक से पहले जन्मे बच्चे या फिर तलाक के बाद जन्मे बच्चे का महिला अगर अकेले पालन-पोषण नहीं कर सकती है तो पूर्व पति से महिला को दो साल तक गुजारा भत्ता मिलता रहेगा. हालांकि, बाद के सुप्रीम कोर्ट के अलग-अलग फैसलों में भरण-पोषण या गुजारा भत्ता को इद्दत से बढ़ाकर तब तक के लिए कर दिया, जब तक कि महिला की दूसरी शादी नहीं हो जाती है.
राजीव गांधी के बनाए कानून में इद्दत का मतलब क्या है?
इद्दत इस्लामिक कानून का एक शब्द है, जो महिला के पति की मृत्यु के बाद दूसरी शादी या फिर तलाक के बाद महिला की दूसरी शादी तक के बीच के वक्त को कहते हैं. पति की मृत्यु के बाद इद्दत की अवधि 4 महीने 10 दिन की होती है. यानि कि कुल 130 दिन की. इसमें महिला दूसरी शादी नहीं कर सकती है. तलाक के मामले में इद्दत की अवधि 90 दिनों की होती है, लेकिन अगर महिला गर्भवती है तो चाहे मामला तलाक का हो या फिर पति की मौत हुई हो, बच्चे के जन्म तक इद्दत चलती रहती है. बच्चे के जन्म के साथ ही इद्दत भी खत्म हो जाती है.
क्या सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी के बनाए कानून को पलट दिया है?
अब 10 जुलाई को सु्प्रीम कोर्ट का जो फैसला आया है, उससे सवाल पूछा जा रहा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी के बनाए कानून को पलट दिया है. तो इसका जवाब है नहीं. 10 जुलाई के फैसले से पहले भी साल 2001 में डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ के केस में सुप्रीम कोर्ट ने 1986 के कानून को मान्यता देते हुए बदलाव किया था कि भरण-पोषण तब तक मिलता रहेगा, जब तक महिला दूसरी शादी न कर ले. फिर 2009 में भी सु्प्रीम कोर्ट ने कहा कि महिलाओं को भरण-पोषण की राशि तब तक मिलती रहेगी, जबतक उनकी दूसरी शादी न हो जाए.
अपने अलग-अलग फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा ये साफ किया है कि 1986 का कानून सीआरपीसी की धारा 125 पर किसी तरह की रोक नहीं लगाता है, लिहाजा मुस्लिम महिला को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण मिलता रहेगा. अब भी 10 जुलाई का फैसला ऐसा ही है, जिसमें सु्प्रीम कोर्ट ने 1986 के बनाए कानून से नहीं बल्कि सीआरपीसी के जरिए फैसला दिया है. लिहाजा कानून दोनों ही हैं, महिला दोनों ही कानूनों के आधार पर अपना भरण-पोषण मांग सकती है, बशर्ते ये तय महिला को करना है कि उसे किस कानून के तहत वो भऱण-पोषण चाहिए.10 जुलाई 2024 के अपने फैसले में जस्टिस नागरत्ना ने 1986 के कानून का जिक्र करते हुए साफ तौर पर लिखा है कि 1986 में बनाए संसद के कानून ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के लिए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत दावा करने पर कोई रोक नहीं लगाई थी.
क्या राजीव गांधी की तरह पीएम मोदी भी करेंगे हस्तक्षेप?
इसका जवाब है नहीं. शाहबानो केस में जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तो मुस्लिम धर्मगुरुओं और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसे सीधे तौर पर इस्लाम से जोड़ दिया. फैसले को शरीयत के खिलाफ बता दिया और राजीव गांधी पर फैसला पलटने के लिए दबाव बनाने लगे. तब राजीव गांधी ने संसद में कानून बनाकर फैसला पलटा. उनकी पार्टी में भी इसका विरोध हुआ.
मुस्लिम खुश तो हुए लेकिन हिंदू नाराज हो गए. तो हिंदुओं की खुशी के लिए राजीव गांधी ने अयोध्या राम मंदिर का ताला खुलवाया. फिर राजीव गांधी को एक के बाद एक कभी हिंदुओं की खुशी के लिए तो कभी मुस्लिमों की खुशी के लिए काम करने पड़े, लेकिन अब जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया है तो नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री हैं. और अपने दूसरे ही कार्यकाल में तीन तलाक पर कानून बनाकर वो मुस्लिम महिलाओं के हक-हुकूक की बात कर चुके हैं. लिहाजा सुप्रीम कोर्ट का मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में आए इस फैसले का मोदी सरकार सिर्फ खुलकर स्वागत ही करेगी और कुछ भी नहीं. तो ये है पूरी कहानी 10 जुलाई 2024 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले, उससे उठते सवालों और उनके जवाब की.