Patnaik Family Legacy: इतिहास गवाह है कि इस देश में एक ऐसा भी नेता हुआ है, जिसकी मृत्यु हुई तो उसके पार्थिव शरीर पर एक नहीं बल्कि तीन-तीन देशों का झंडा लिपटा था. जब अधेड़ होने की उम्र में एक मजबूरी के तहत उसकी सियासी विरासत को उसके सबसे छोटे बेटे ने संभाला तो कुछ यूं संभाला कि दो दशक तक उसे उसकी कुर्सी से कोई हिला भी नहीं पाया.


ये कहानी है उस पटनायक परिवार की, जिसमें पहले बीजू पटनायक ने राजनीति में एक अलग मुकाम हासिल किया और फिर उनके बेटे नवीन पटनायक ने दक्षिण भारत के एक राज्य ओडिशा की पूरी राजनीति को ही नए सिरे से परिभाषित कर दिया.


बात फाइटर पायलट से नेता बने बीजू पटनायक और उनके बेटे नवीन पटनायक की, जो नेता बनने से पहले दिल्ली के ओबेरॉय होटल से अपना एक बुटीक चलाया करते थे और जिनका राजनीति से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था लेकिन विरासत में मिली राजनीति उन्हें कुछ इस कदर रास आई कि वो जिस मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे तो उन्हें 24 साल तक हिलाने की कोई सोच भी नहीं सका.


नवीन पटनायक का सियासी सफर


शुरुआत मज़बूरी में किए थे, लेकिन अब मजा आ रहा है. फिल्म, ओटीटी और मीम्स की दुनिया से इतर अगर ये डायलाग किसी एक आदमी की पूरी शख्सियत पर सटीक बैठता है, तो उसका नाम है नवीन पटनायक. वरना दून स्कूल में संजय गांधी के साथ पढ़ा जो शख्स अपने अधेड़ होने की उम्र तक महज जींस और टीशर्ट पहना करता था, जिसे दिल्ली की तमाम कॉकटेल पार्टियों में डनहिल सिगरेट के कश लगाते हुए देखा जा सकता था, जिसकी हर एक शाम फेमस ग्राउज व्हिस्की की घूंट के साथ ही शुरू होती थी, जो दिल्ली के मशहूर ओबेरॉय होटल में चल रहे शाइन डेल्ही बुटीक का मालिक था और जिसके ग्राहकों में दुनिया के मशहूर बैंड बीटल्स भी थे, जो किताबें पढ़ने और फिल्में देखने का शौकीन था और जिसने मर्चेंट आइवरी की फिल्म द डिसीवर्स में पियर्स ब्रॉसनन और सईद जाफरी के साथ काम किया चुका था, उसे राजनीति में दिलचस्पी होती ही क्यों.


इस तरह नवीन पटनायक की हुई सियासत में एंट्री


लेकिन 50 की उम्र के आस-पास पहुंच चुके नवीन को राजनीति में दिलचस्पी लेनी पड़ी और इसकी वजह थे उनके बड़े भाई प्रेम पटनायक, जिन्होंने अपने पिता बीजू पटनायक की मौत के बाद उनका सियासी उत्तराधिकारी बनने से इनकार कर दिया था. थी तो नवीन की बहन भी गीता पटनायक भी, लेकिन वो 20 साल पहले ही पब्लिशर सोनी मेहता के साथ शादी करके गीता मेहता हो चुकी थीं और अमेरिका में रहने लगी थीं. तो नवीन पटनायक को अपने पिता की राजनीतिक विरासत संभालनी पड़ी. और फिर जो नवीन पटनायक हमेशा से जींस-टीशर्ट में ही नज़र आते थे, 1997 में वो जींस-टीशर्ट हमेशा के लिए उतर गई और उसकी जगह ले ली झक सफेद कुर्ते-पजामे ने, जो किसी भी नेता की सबसे पसंदीदा पोशाक है.


बीजू पटनायक को कहा जाता था कलिंग का सांड


जींस-टीशर्ट पहनने वाले नवीन पटनायक का कुर्ता-पाजामा पहनने वाले नवीन पटनायक में तब्दील होना उनके पिता की देन थी, जिनका नाम था बीजू पटनायक. ओडिशा के लोग उन्हें कलिंग का सांड कहते थे. और इसकी वजह थी बीजू पटनायक की लोकप्रियता जिसकी शुरुआत 40 के दशक में ही हो गई थी. बीजू पटनायक ने अपना करियर बतौर पायलट शुरू किया था. अंग्रेजों के जमाने में बीजू पटनायक इंडियन नेशनल एयरवेज के पायलट थे. जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ तो उन्होंने रॉयल इंडियन एयर फोर्स जॉइन कर ली. और इस दौरान उन्होंने कई खतरनाक मिशन को अंजाम दिया.


वो अजरबैजान के बाकू से हथियार लेकर उड़ान भरते थे और उन हथियारों को जर्मनी के कब्जे वाले स्टालिनग्राद में मौजूद रशियन रेड आर्मी को सप्लाई किया करते थे. 1942 में जब बर्मा पर जापान का कब्जा हो गया था तो उन्होंने कई ब्रिटिश अधिकारियों और नागरिकों को बर्मा से रेस्क्यू किया था. प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कहने पर बीजू पटनायक ने साल 1947 में डच सैनिकों के कब्जे से इंडोनेशियन फाइटर्स को सुरक्षित बाहर निकाल लिया था.


वो डकोटा प्लेन उड़ाते थे और ज़मीन से चलने वाली गोलियों से प्लेन को बचाते हुए कई नेताओं को सकुशल बाहर निकाल लेते थे. इनमें से एक नेता इंडोनेशिया के प्रधानमंत्री सुतान शाजहीर भी थे, जिन्हें बीजू पटनायक से बचाया था. और इसी वजह से इंडोनेशिया के तब के राष्ट्रपति सुकर्णो ने उन्हें  भूमिपुत्र की उपाधि देने के साथ ही अपने देश की मानद नागरिकता भी दी थी. पायलट के जीवन से इतर बीजू पटनायक एक कारोबारी भी थे.


उन्होंने 1946 में ओडिशा टेक्सटाइल मिल की स्थापना की, जिसमें पांच साल के अंदर ही करीब पांच हजार लोग काम करने लगे थे. उस मिल में वो साड़ियां और धोतियां बनाते थे. इसी दौरान उन्होंने अपनी एयरलाइंस भी शुरू की और नाम रखा कलिंगा एयरलाइंस. हालांकि जब 50 के दशक में इंडियन एयरलाइंस शुरू हुई तो उन्होंने अपनी कंपनी का इंडियन एयरलाइंस में विलय कर दिया. इस दौरान उन्होंने एक ट्यूब मिल और फ्रिज बनाने की कंपनी भी स्थापित की थी. लेकिन धीरे-धीरे करके वो कारोबार से दूर और राजनीति के करीब आते गए.


और राजनीति में भी वो बिना लाग लपेट के अपनी बात कह देते थे, जिसका उन्हें खामियाजा भी उन्हें उठाना पड़ता था. ईमानदारी की परिभाषा देते हुए बीजू पटनायक कहते थे कि ईमानदारी और कुछ नहीं बस अवसर की कमी भर है.


कैसे शुरू हुई बीजू पटनायक की राजनीतिक शुरुआत


उनकी राजनीति की शुरुआत कांग्रेस के साथ हुई थी. और जब तक नेहरू थे, बीजू पटनायक कांग्रेस के साथ बने रहे. उन्हें नेहरू का कान कहा जाता था. नेहरू के वक्त में दो साल के लिए बीजू पटनायक कांग्रेस से ओडिशा के मुख्यमंत्री भी थे. लेकिन नेहरू की मौत के बाद जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं और 1969 के राष्ट्रपति चुनाव के बाद इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को दो हिस्सों में तोड़ दिया तो बीजू पटनायक ने भी इंदिरा का साथ छोड़कर नई पार्टी बना ली. नाम रखा उत्कल कांग्रेस.


इमरजेंसी लगने के बाद शुरुआती तौर पर गिरफ्तार होने वाले चुनिंदा नेताओं में बीजू पटनायक भी थे, क्योंकि इंदिरा से अलग होने के बाद वो जयप्रकाश नारायण के साथ आ गए थे. इससे पहले वो अपनी पार्टी का चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोकदल में विलय कर चुके थे. आपातकाल के बाद जब चुनाव हुए तो बीजू पटनायक ने जीत दर्ज की और पहले मोरारजी देसाई की सरकार में और फिर चौधरी चरण सिंह की सरकार में केंद्र में मंत्री बने. 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा की लहर के बावजूद वो चुनाव जीते. 1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद पूरे देश में उपजी कांग्रेस के प्रति सहानुभूति भी उन्हें चुनाव नहीं हरा सकी और लगातार तीसरी बार भी केंद्रपाड़ा से चुनाव जीत गए.


1989 में राजीव गांधी की हार ने वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया. और फिर 1990 में हुए तमाम राज्यों के विधानसभा चुनावों में जनता पार्टी की जीत हुई. इन राज्यों में एक राज्य ओडिशा भी था, जहां जनता पार्टी जीती थी. और तब बीजू पटनायक दूसरी बार ओडिशा के मुख्यमंत्री बन गए. और इस बार उन्होंने अपनी जनता से वो कहा, जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी. नवीन पटनायक की जीवनी लिखने वाले रूबेन बनर्जी अपनी किताब 'नवीन पटनायक' में लिखते हैं कि बीजू पटनायक ने सार्वजनिक तौर पर जनता से कहा कि वो भ्रष्ट अधिकारियों की पिटाई कर दे. 


पटनायक ने कहा- 'बस मुझे टेलीग्राम भेज दो और फिर जो चाहे करो.' बीजू पटनायक के ये कहने के चंद दिनों के अंदर ही उन्हें सैकड़ों टेलिग्राम मिले और कई अधिकारियों की हड्डियां भी टूटीं, जिनमें से कई लोगों ने तो अधिकारियों से अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी भी साध ली. इसके बावजूद ओडिशा से भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ. और यही बीजू पटनायक की कुर्सी जाने का सबसे बड़ा कारण भी बना.


1995 में हारे विधानसभा चुनाव, 1997 में निधन


1995 में विधानसभा हारने के बाद बीजू पटनायक 1996 के लोकसभा चुनाव में कटक और अस्का, दो सीटों से सांसद बन गए. कटक उन्होंने छोड़ दी और अस्का से सांसद बने रहे. और फिर सांसद रहते हुए ही उनकी तबीयत खराब होने लगी. 17 अप्रैल 1997 को दिल्ली में उनका निधन हो गया.


और तब अपने पिता की राजनीतिक विरासत को संभालने के लिए सबसे छोटे बेटे नवीन पटनायक ने जींस-टीशर्ट छोड़ कुर्ता-पाजामा धारण किया और पहुंच गए ओडिशा. वहां, जहां उनके पिता दो-दो बार मुख्यमंत्री रह चुके थे और अपनी मौत से ठीक पहले तक वो जहां के सांसद थे. ये वही ओडिशा था, जिसके बारे में बीजू पटनायक ने कहा था कि ओडिशा एक अमीर राज्य है, जहां गरीब लोग रहते हैं.


बीजू पटनायक की मौत के बाद भी ओडिशा गरीब ही था. लेकिन अब वहां नवीन पटनायक पहुंच चुके थे ताकि अपने पिता के संसदीय क्षेत्र अस्का से लोकसभा का उप चुनाव लड़ सकें. लेकिन तब उन्हें राजनीति का ककहरा भी नहीं आता था. अपनी मातृभाषा ओडिया भी नहीं बोलनी आती थी.


नवीन पटनायक को नहीं आती थी ओडिया


और नवीन पटनायक की ये शायद सबसे बड़ी कमजोरी थी, क्योंकि ओडिशा भारत का पहला ऐसा राज्य था, जिसका गठन भारत की आजादी से 11 पहले साल 1936 में ही भाषा के आधार पर हो चुका था. लेकिन शायद राजनीति नवीन पटनायक के खून में थी. तभी जब उन्होंने ओडिशा में कदम रखा तो उनकी ये पहचान बन गई थी कि ये बीजू पटनायक का बेटा है. और बेटे ने बार की विरासत संभालने के लिए वो जुमला उछाला, जो बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ भी नहीं उछाल पाते हैं. उन्होंने कहा 'विरासत में मुझे पिता की जनता के प्रति जिम्मेदारियां मिली हैं, उनका विशेषाधिकार नहीं.'


जब नवीन पटनायक ने बनाई अपनी नई पार्टी


इस जुमले को उछालकर नवीन पटनायक ने ये जताने की कोशिश की कि वो अपने पिता के नक्श-ए-कदम पर ही चलेंगे. और फिर उपचुनाव में नवीन पटनायक ने अस्का सीट जीत ली. हालांकि इस जीत के साथ ही नवीन पटनायक एक राजनीतिज्ञ के तौर पर स्थापित हो गए थे. तभी तो उन्होंने चुनाव जनता दल से जीता था लेकिन अगले ही साल के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उन्होंने अपनी पार्टी बना ली और नाम रख दिया बीजू जनता दल. 1998 का चुनाव नवीन पटनायक ने अपनी पार्टी से लड़ा, जीता और जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो गठबंधन के सहयोगी के तौर पर नवीन पटनायक भी उस सरकार का हिस्सा और फिर मंत्री बन गए.


ठाकुरमुंडा वाला राजनीतिक शिगूफा


1999 में ओडिशा में एक भयंकर तूफान आया. करीब 10 हजार लोग मारे गए. और तब नवीन पटनायक के अंदर का नेता पूरी तरह से जाग गया. हालांकि इस तूफान के आने से पहले भी ओडिशा में हुए एक नरसंहार ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा था. तब 22 जनवरी, 1999 को ऑस्ट्रेलिया के एक ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को धर्मांध दारा सिंह की अगुवाई में जिंदा जला दिया गया था.


इन सभी नकारात्मक खबरों के बीच नवीन पटनायक हेलीकॉप्टर से पहुंचे ठाकुरमुंडा, जो मयूरभंज जिले में पड़ता है. हेलिकॉप्टर में बैठने और ठाकुरमुंडा पहुंचने से पहले ही नवीन पटनायक के पास एक पर्चा पहुंचा था, जिसपर अंग्रेजी में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था ठाकुरमुंडा. वो इस शब्द को पढ़ते रहे,रटते रहे और तब तक रटते रहे जब तक कि ये शब्द उनकी जुबान पर न चढ़ गया. फिर जब वो ठाकुरमुंडा पहुंचे तो मंच संभालने के साथ ही बोल पड़े- 'मेरे पिताजी को ठाकुरमुंडा बहुत प्यारा था.' सुनते ही भीड़ ने नवीन पटनायक जिंदाबाद के नारे लगाए. नवीन पटनायक फिर बोले- 'मेरे पिताजी ने बोला था बेटा ठाकुरमुंडा जरूर जाना.'


इतना सुनते ही जनता जयजयकार कर उठी. जनता को लगा कि बीजू पटनायक को वाकई ठाकुरमुंडा बेहद पसंद था और उन्होंने अपने बेटे से भी इसका जिक्र किया था.  लेकिन ये महज राजनीतिक शिगूफा था, जो नवीन पटनायक की ओर से उछाला गया था. 


पिता के नाम को आगे कर नवीन ने जमाई अपनी राजनीति


नवीन पटनायक जब अगली रैली करने केंद्रपाड़ा गए तो यही बात दोहराई कि मेरे पिता को केंद्रपाड़ा बहुत प्यारा था. उन्होंने कहा था कि बेटा केंद्रपाड़ा जरूर जाना. तब आज की तरह सोशल मीडिया नहीं था कि किसी का कहा तुरंत ही वायरल होकर दूसरी जगह पहुंच जाए. तो नवीन पटनायक जहां भी जाते थे, यही कहते थे कि वो जगह उनके पिता को बहुत प्यारी थी और उनके पिता ने कहा था कि बेटा वहां जरूर जाना.


जिस बीजेपी ने सत्ता की कुर्सी पर बिठाया, उसी न करवा दी विदाई


नवीन पटनायक ये बातें बार-बार लगातार कहते रहे. और जब फरवरी 2000 में ओडिशा में विधानसभा के चुनाव हुए तो नवीन पटनायक की बनाई नई पार्टी बीजू जनता दल ने अकेले ही 68 सीटें जीत लीं. सहयोगी बीजेपी ने भी 38 सीटों पर जीत दर्ज की. और फिर नवीन पटनायक केंद्र की राजनीति से प्रदेश की राजनीति में आ गए. ओडिशा के मुख्यमंत्री बन गए. और इसमें उनका साथ दिया भारतीय जनता पार्टी ने.


लेकिन अब 24 साल के बाद नवीन पटनायक की उस कुर्सी से विदाई हो गई है. और इसकी जिम्मेदार वही भारतीय जनता पार्टी  है, जिसने उन्हें पहली बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी बिठाया था और अब राजनीति से विदाई भी दिलवा दी है.


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