नई दिल्लीः छत्तीसगढ़ के बीजापुर में हुए नक्सली हमले में 22 जवानों की शहादत के बाद कुछ गंभीर सवाल उठे हैं कि क्या यह रणनीतिक चूक थी या फिर इसे खुफ़िया तंत्र की असफलता माना जाये? क्या जवानों में आपसी तालमेल की कमी थी, जिसके कारण अत्याधुनिक हथियारों से लेस दो हज़ार जवान, कुछ सौ माओवादियों का मुकाबला नहीं कर पाये? क्या माओवादियों ने यह हमला इसलिए किया क्योंकि उनके आधार इलाके में सुरक्षाबलों ने अपने झंडे गाड़ दिये हैं और माओवादियों के लिए अपने इलाके को बचा पाना मुश्किल हो रहा है?


इन सारे सवालों का बेहतर जवाब तो सिर्फ सरकार ही दे सकती है लेकिन अफ़सोस यह है कि पिछले 40 बरसों से दिनों दिन उग्र होती जा रही नक्सली समस्या से निपटने या उसका खात्मा करने के लिए आज भी सरकार के पास कोई ठोस रणनीति नहीं है.


सरकार के मुताबिक, छत्तीसगढ़ में 8 जिले नक्सल प्रभावित हैं. इनमें बीजापुर, सुकमा, बस्तर, दंतेवाड़ा, कांकेर, नारायणपुर, राजनंदगांव और कोंडागांव शामिल हैं. सुरक्षाबल या पुलिस जब भी नक्सलियों को पकड़ने जाती है, तो ये नक्सली उन पर हमला कर देते हैं. गृह मंत्रालय की सालाना रिपोर्ट और लोकसभा में दिए जवाब के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 10 साल में यानी 2011 से लेकर 2020 तक छत्तीसगढ़ में 3 हजार 722 नक्सली हमले हुए. इन हमलों में हमने 489 जवान खो दिए.


छत्तीसगढ़ में माओवादी हिंसा के आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि बस्तर रेंज में एक पैटर्न के तौर पर नक्सली हमला मार्च से जुलाई के बीच ज्यादा किया जाता है. पिछले हमलों के इतिहास को देखा जाये, तो अधिकांश नक्सली हमले और हताहत मार्च और जुलाई के बीच ही हुए हैं. सूत्रों का कहना है कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आमतौर पर सीपीआई (माओवादी) फरवरी और जून के बीच में ही अपना काउंटर अटैक करने की योजना बनाते हैं.


उनके इस अभियान में आक्रामक सैन्य अभियान की योजना भी शामिल होती है. मार्च से जुलाई के बीच वे हमले की योजना इसलिए बनाते हैं, ताकि मानसून से पहले वे इसे निपटा लें.मानसून में इन इलाकों की स्थिति बहुत खराब हो जाती है. चिंता की बात ये है कि वामपंथी उग्रवादियों के खिलाफ करीब 15 साल पहले शुरु हुए अभियान के बाद भी बस्तर क्षेत्र में सुरक्षा बल अभी भी संघर्ष कर रहे हैं.


असल में माओवादियों का गढ़ कहे जाने वाला इस इलाके में माओवादियों के बटालियन नंबर वन का दबदबा है. इस बटालियन के कमांडर माडवी हिडमा को लेकर जितने किस्से हैं, उससे केवल यही अनुमान लगाया जा सकता है कि हिडमा आक्रामक रणनीति का पर्याय है.


शनिवार को जो मुठभेड़ हुई, वह हिडमा के गांव पुवर्ती के पास ही है. 90 के दशक में माओवादी संगठन से जुड़े माडवी हिडमा ऊर्फ संतोष ऊर्फ इंदमूल ऊर्फ पोड़ियाम भीमा उर्फ मनीष के बारे में कहा जाता है कि 2010 में ताड़मेटला में 76 जवानों की हत्या के बाद उसे संगठन में महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी गई. इसके बाद झीरम घाटी का मास्टर माइंड भी इसी हिडमा को बताया गया. इस पर 35 लाख रुपये का इनाम है.


बस्तर की झीरम घाटी में 25 मई 2013 को भारत में किसी राजनीतिक दल पर माओवादियों ने सबसे बड़ा हमला किया था. इस हमले में राज्य में कांग्रेस पार्टी की पहली पंक्ति के अधिकांश बड़े नेताओं समेत 29 लोग मारे गये थे.


सरकार दावा करती है कि पिछले कुछ साल में माओवादियों की कमर टूटी है और हिंसा में कमी आई है लेकिन इसके उलट राज्य के पूर्व गृह सचिव बीकेएस रे कहते हैं कि "माओवादी एक के बाद एक घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं. ऐसा नहीं लगता कि वे कहीं से कमज़ोर हुए हैं. सरकार के पास माओवाद को लेकर कोई नीति नहीं है. सरकार की नीति यही है कि हर बड़ी माओवादी घटना के बाद बयान जारी कर दिया जाता है कि जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी. मैं चकित हूं कि सरकार इस दिशा में कुछ भी नहीं कर रही है. कोई नीति होगी तब तो उस पर क्रियान्वयन होगा."


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