Nepal PM Prachanda: नेपाल में हाल ही में नई सरकार बनी है. अगर ये कहा जाए कि नेपाल में लोकतंत्र विपक्ष विहीन हो गया है, तो हर कोई चौंक जाएगा. वो भी उस स्थिति में, जब नेपाल की सबसे बड़ी पार्टी विपक्ष की भूमिका में है. वहां की संसद में 10 जनवरी को कुछ ऐसा ही हुआ जिससे नेपाल का लोकतंत्र विपक्ष विहीन नज़र आया.


आम तौर से लोकतंत्र के तहत संसदीय प्रणाली में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. संसदीय प्रणाली में कई मुद्दों पर सत्ता पक्ष को विपक्ष का समर्थन मिल जाता है.  संसद में कुछ विधेयकों पर आम सहमति भी बनना आम बात है. लेकिन सरकार जब विश्वास प्रस्ताव के जरिए सदन में बहुमत साबित करना चाहती है, तो ऐसा कहीं नहीं देखा जाता कि विपक्ष भी उस विश्वास प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करें. 10 जनवरी को नेपाली संसद के प्रतिनिधि सभा में ऐसा ही हुआ. 


पीएम 'प्रचंड' को संसद में मिला प्रचंड समर्थन


पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' (Pushpa Kamal Dahal) 26 दिसंबर को तीसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने थे.  नेपाल के नए प्रधानमंत्री 'प्रचंड'  प्रतिनिधि सभा में  बहुमत साबित करने के लिए विश्वास मत लाए थे. बहुमत के लिए उन्हें 275 सदस्यीय सदन में 138 वोटों की जरुरत थी. 10 जनवरी को प्रतिनिधि सभा में मौजूद 270 में से 268 सदस्यों ने पीएम प्रचंड के समर्थन में मतदान किया.  सत्ता पक्ष के साथ ही विपक्ष के भी लगभग सभी सदस्यों ने प्रचंड के समर्थन में वोटिंग की. सिर्फ दो ही सदस्यों ने प्रचंड के खिलाफ वोट किया. 


विपक्ष विहीन लोकतंत्र के दौर में नेपाल


10 जनवरी को नेपाल की संसद में जो हुआ, उससे यहीं लगने लगा है कि नेपाल विपक्ष विहीन लोकतंत्र के दौर में पहुंच गया है. किसी भी देश के लोगों के हित के लिए ये फायदेमंद साबित नहीं होता है. नेपाल की राजनीति ने जिस तरह से करवट ली है, उससे सवाल उठना लाजिमी है कि क्या भारत के साथ संबंधों पर भी इसका असर पड़ेगा.


नेपाल में 20 नवंबर को हुआ था आम चुनाव


नेपाल में 20 नवंबर को आम चुनाव हुआ था. इसके तहत नेपाली संसद के प्रतिनिधि सभा के लिए वहां की जनता ने वोट डाला था. चुनाव में मुख्य मुकाबला 6 दलों के सत्ताधारी गठबंधन  और चार दलों के विपक्षी गठबंधन के बीच था. सत्ताधारी गठबंधन का नेतृत्व नेपाली कांग्रेस के नेता और उस वक्त के पीएम शेर बहादुर देउबा कर रहे थे. इस गठबंधन में नेपाली कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (माओवादी सेंटर) , नेपाल समाजवादी पार्टी, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत समाजवादी), लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी नेपाल और राष्ट्रीय जनमोर्चा शामिल थीं. मौजूदा प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' इसी गठबंधन में शामिल रहे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (माओवादी-सेंटर) के नेता हैं. विपक्षी गठबंधन में  कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) (CPN-UML), नेपाल परिवार दल, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी नेपाल और जनता समाजवादी पार्टी थीं.  इसकी अगुवाई CPN-UML के नेता और नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली कर रहे थे.  275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा में 165 सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष मतदान के जरिए होता है और बाकी 100 सदस्यों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर चुना जाता है. 


नाटकीय अंदाज में पीएम बने हैं प्रचंड 


नतीजों में शेर बहादुर देउबा की नेपाली कांग्रेस 89 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी. प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (माओवादी सेंटर)  को 32 सीटें मिली. वहीं विरोधी खेमे में रहे केपी शर्मा ओली की CPN-UML को 78 सीटें मिली. नतीजों के बाद ऐसा लग रहा था कि नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा ही प्रधानमंत्री बनेंगे, लेकिन प्रचंड ने पूरा खेल ही पलट दिया.  पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' ने देउबा को प्रधानमंत्री बनने के लिए समर्थन देने से इंकार कर दिया. वे खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, इसलिए देउबा से उन्हें समर्थन करने को कहा. नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा ने ऐसा करने से मना कर दिया. इसके बाद प्रचंड ने चुनाव में विरोधी रहे केपी शर्मा ओली से हाथ मिला लिया. ओली प्रचंड को प्रधानमंत्री बनाने के लिए तैयार हो गए और इसके जरिए ओली की CPN-UML प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (माओवादी सेंटर) के साथ सत्ता में  शामिल हो गई. तीन सबसे बड़ी पार्टियों में सबसे कम सीटें लाने के बावजूद प्रचंड सियासी दांव-पेंच से प्रधानमंत्री बनने में कामयाब हो गए. दिलचस्प बात ये थी कि जिसके साथ मिलकर प्रचंड चुनाव लड़े थे, बाद में वहीं विरोधी हो गया और जिसके खिलाफ चुनाव लड़े थे, उसके ही समर्थन से प्रधानमंत्री बन बैठे.


शेर बहादुर देउबा  के सामने क्या थी मजबूरी?


जब पुष्प कमल दहल, केपी शर्मा ओली से हाथ मिलाकर पीएम बन गए थे, तो ऐसा माना जा रहा था कि शेर बहादुर देउबा की नेपाली कांग्रेस प्रचंड को संसद में बहुमत साबित करने में रोड़ा अटकाएगी. सभी सियासी अटकलों के विपरीत शेर बहादुर देउबा की पार्टी के सारे सदस्यों ने भी विश्वास मत का समर्थन कर दिया. विश्वास मत के दौरान शेर बहादुर देउबा के रवैये से धुर विरोधी केपी शर्मा ओली हैरान रह गए. सवाल उठता है कि ऐसी क्या मजबूरी थी, जिससे शेर बहादुर देउबा ने ऐन मौके पर  प्रचंड का समर्थन कर दिया. उसके बाद नेपाली कांग्रेस के संयुक्त महासचिव महेंद्र यादव ने कहा कि ये पार्टी का आम सहमति से लिया गया फैसला था, हालांकि उन्होंने साफ कर दिया कि नेपाली कांग्रेस सरकार में शामिल नहीं होगी.  


मंझे राजनीतिक खिलाड़ी हैं शेर बहादुर देउबा


नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा राजनीति के माहिर खिलाड़ी रहे हैं.  देउबा 5 बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने हैं. नवंबर 2022 में जब नेपाल में आम चुनाव हो रहा था, देउबा ही पीएम थे. जिस तरह से चुनाव में उनकी पार्टी और गठबंधन को सीट मिली थी, देउबा को पूरा भरोसा था कि वे छठी बार भी देश के प्रधानमंत्री बनने में कामयाब हो जाएंगे. लेकिन प्रचंड के पाला बदलने से ऐसा नहीं हो पाया. विश्वास मत हासिल करने से एक दिन पहले पीएम प्रचंड नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा से उनके आवास पर मिले थे और यहीं से सब कुछ बदल गया. 


कहीं राष्ट्रपति पद पर तो नहीं है नज़र!


नेपाल में फरवरी में अगले राष्ट्रपति के लिए चुनाव होना है. नेपाली कांग्रेस के पीएम प्रचंड को समर्थन करने के बाद कहा जा रहा है कि 76 साल के शेर बहादुर देउबा की नज़र राष्ट्रपति पद पर है. नेपाल में राष्ट्रपति चुनाव के लिए बने निर्वाचक मंडल (electoral college) में 884 सदस्य होते हैं. इनमें  प्रतिनिधि सभा के 275 सदस्य, नेपाली संसद के उच्च सदन नेशनल असेंबली 59 सदस्य और सात प्रांतों के विधानसभा के 550 सदस्य शामिल होते हैं. हालांकि संसद के सदस्य और विधानसभा के सदस्यों के वोट का वेटेज अलग-अलग होता है. अगर प्रचंड के साथ गठबंधन बरकरार रहता, तब तो नेपाली कांग्रेस के ही किसी सदस्य के राष्ट्रपति बनने की संभावना तय थी. लेकिन अब बदले समीकरण में नेपाली कांग्रेस के लिए इतना आसान नहीं रह गया है. CPN (Maoist Centre) के पुष्प कमल दहल को बहुमत हासिल करने में मदद कर शेर बहादुर देउबा राष्ट्रपति चुनाव से जुड़े समीकरणों को साधना चाहते हैं. इसके अलावा प्रतिनिधि सभा का स्पीकर चुना जाना भी बाकी है. उपराष्ट्रपति का चुनाव भी होना है. शेर बहादुर देउबा की पार्टी की नजर इन पदों पर भी है.  


नेपाल के लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं


नेपाली कांग्रेस के रवैये से ऐसा लग रहा है कि वहां सत्ता की हिस्सेदार बनने के लिए सभी पार्टियां एक हो गई हैं. ये परिस्थिति किसी भी लोकतंत्र के लिए सही नहीं होता है.  नेपाल के सामने एक संकट और भी खड़ा हो गया है. नेपाल की राजनीति में हमेशा अब हमेशा अस्थिरता बनी रहेगी. पुष्प कमल दहल, केपी शर्मा ओली और शेर बहादुर देउबा तीनों को हमेशा डर सताते रहेगा कि कौन-किसके पाले में चला जाए. केपी शर्मा ओली को ये डर सताएगा कि सरकार में उनकी पार्टी को अब वैसा तवज्जो नहीं मिल पाएगा. वहीं पीएम प्रचंड को ये डर रहेगा कि उनसे बड़ी दोनों पार्टियां कभी भी हाथ मिलाकर नेपाल में सत्ता परिवर्तन कर सकती हैं.  इसके अलावा लोकतंत्र में सरकार पर विपक्ष का जिस तरह का दबाव रहना चाहिए, वो भी खत्म सा होता दिख रहा है. 


भारत के साथ रिश्तों पर पड़ सकता है असर


नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा का भारत के प्रति नजरिया पुष्प कमल दहल और ओली के मुकाबले ज्यादा सकारात्मक रहा है. वहीं नेपाल के नए बने प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल का झुकाव हमेशा से ही चीन के प्रति रहा है.  हालांकि इस बार प्रधानमंत्री बनने के बाद 27 दिसंबर को पुष्प कमल दहल प्रचंड ने कहा था कि वे पुरानी बातों को भूलकर भविष्य में भारत से रिश्ते सुधारना चाहते हैं. इस बयान के कुछ दिन बाद ही 9 जनवरी को प्रचंड की अगुवाई वाली सत्ताधारी गठबंधन ने साझा न्यूनतम कार्यक्रम (common minimum programme) जारी किया. इस दस्तावेज में कुछ ऐसा कहा गया, जिनसे भारत के साथ रिश्तों पर असर पड़ सकता है. इसमें प्रचंड सरकार ने  लिम्पियाधुरा (Limpiyadhura), कालापानी (Kalapani) और लिपुलेख (Lipulek)  के क्षेत्रों को भारत से वापस लाने का वादा किया है. नेपाल दावा करता है कि भारत ने इन इलाकों पर अवैध तरीके से कब्जा कर रखा है. प्रचंड सरकार ने कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में भारत के साथ सीमा विवाद का तो जिक्र कर दिया है, लेकिन चीन के साथ नेपाल के सीमा विवाद पर इस दस्तावेज में चुप्पी साध ली गई है. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि पुष्प कमल दहल आने वाले वक्त में भारत को लेकर किस तरह का रवैया अपनाने वाले हैं.  


सीमा विवाद पर फिर मुखर हुई नेपाल सरकार


लिम्पियाधुरा, कालापानी, और लिपुलेख के क्षेत्रों को लेकर भारत-नेपाल के बीच विवाद रहा है. 2019 में नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने भारत के साथ इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की. उन्होंने लिम्पियाधुरा, कालापानी, और लिपुलेख के क्षेत्रों को भारत के नक्शे में दिखाए जाने पर एतराज जताते हुए  कूटनीतिक तरीके से इस मुद्दे को भारत के सामने उठाया. भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने मई 2020 में उत्तराखंड में धारचुला से चीन की सीमा लिपुलेख तक एक सड़क का उद्घाटन किया था. उस वक्त नेपाल ने दावा किया था कि सड़क उसके क्षेत्र से होकर गुजरी है. ये इलाका भारतीय सीमा के अंदर आता है. बाद में मई 2020 में नेपाल की ओली सरकार ने नेपाल का नया नक्शा जारी किया, जिसमें लिम्पियाधुरा, कालापानी, और लिपुलेख के क्षेत्रों को नेपाल की सीमा के भीतर दिखाया गया. भारत की सीमा में आने वाले 400 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को नेपाल के नक्शे में दिखाया गया और इस नक्शे को नेपाल की संसद से भी मंजूरी दिलवाई गई. नक्शा विवाद के बाद भारत-नेपाल के रिश्ते अपने सबसे खराब दौर में पहुंच गया था. ब्रिटिश शासन के दौरान ही कालापानी क्षेत्र में 1816 में ही सीमाएं तय हो गई थी. 


सीमा विवाद पर प्रचंड का क्या है रुख?


जुलाई 2021 में ओली की जगह शेर बहादुर देउबा के प्रधानमंत्री बनने के बाद फिर से भारत-नेपाल के रिश्तों में सुधार दिखना शुरू हुआ था. लेकिन अब नेपाल की नई सरकार यानी प्रचंड सरकार ने देश की जनता से  इन इलाकों को भारत से वापस लाने का वादा किया है. इससे नेपाल के पीएम की मानसिकता झलक रही है कि वे भारत के साथ रिश्तों को सुलझाने को लेकर कितने संजीदे हैं. नेपाल सरकार के इस रुख से दोनों देशों के संबंधों पर असर पड़ सकता है. 


प्रचंड का रहा है चीन के प्रति झुकाव


तीसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने पुष्प कमल दहल का हमेशा से ही चीन के प्रति ज्यादा लगाव रहा है. अगस्त 2008 में जब प्रचंड नेपाल के पहली बार प्रधानमंत्री बने थे, तो उन्होंने परंपरा को तोड़ते हुए अपने पहले विदेश दौरे के लिए भारत की बजाय चीन को चुना था. उससे पहले करीब 5 दशकों में नेपाल के जो भी प्रधानमंत्री बनते थे, पहले विदेशी दौरे के लिए उनकी पसंद भारत ही हुआ करता था. हालांकि अगस्त  2016 में जब प्रचंड दूसरी बार पीएम बने तो उन्होंने पहले विदेशी दौरे के लिए भारत को ही चुना. इस बार प्रधानमंत्री बनने के बाद भी प्रचंड ने संकेत दिए हैं कि वे पहले विदेशी दौरे पर नई दिल्ली को ही चुनेंगे. उम्मीद है कि वे फरवरी-मार्च में भारत का दौरा कर सकते हैं. लेकिन भारत दौरे से पहले कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में सीमा विवाद को जगह देकर उन्होंने पूरे मामले को फिर से तूल दे दिया है. संसद में बहुमत हासिल करने के बाद प्रचंड ने कहा है कि नेपाल सभी देशों के साथ संतुलित और फ्रेंडली संबंध बनाने की कोशिश करेगा. इसमें पड़ोसी देश चीन और भारत भी शामिल हैं. 


भारत के साथ बेहतर संबंध नेपाल के हक़ में


भारत-नेपाल 1850 किलोमीटर की अंतरराष्ट्रीय सीमा साझा करते हैं. पांच राज्यों सिक्किम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में दोनों राज्यों की सीमाएं लगती हैं. नेपाल भारत के लिए सामरिक नजरिए से बेहद महत्वपूर्ण है. वहीं नेपाल के लिए भारत हमेशा ही बड़े भाई की भूमिका में रहा है. भारत 1950 के बाद से ही हर संकट में नेपाल के लिए मदद का हाथ बढ़ाते रहा है. अप्रैल और मई 2015 को आए जबरदस्त भूकंप से हुई तबाही से निपटने के लिए भारत ने नेपाल को आर्थिक के साथ साथ मानवीय मदद भी की थी. भारत ने उस वक्त करीब 67 मिलियन डॉलर की आर्थिक मदद की थी. भूकंप की तबाही के बाद फिर से निर्माण कार्यों के लिए भारत ने एक अरब डॉलर की मदद की घोषणा की थी, जिसमें अनुदान और बहुत ही कम ब्याज पर कर्ज दोनों शामिल थे. नेपाल के लिए भारत सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार भी है. नेपाल का दो तिहाई से भी ज्यादा विदेशी व्यापार भारत के साथ है. नेपाल एक लैंडलॉक्ड देश (land locked country) है, जो तीन ओर से भारत से घिरा है. ऊर्जा जरूरतों और खाद्यान्न के लिए नेपाल भारत पर बहुज ज्यादा आश्रित है. 


नेपाल में 239 साल पुरानी राजशाही व्यवस्था 2008 में  खत्म हई और यहां सही मायने में लोकतंत्र आया. इन 15 साल में नेपाल में 13 सरकारें बदल चुकी हैं. नेपाल में 2015 में नए संविधान को अपनाया गया. उससे पहले नेपाल के लोगों को माओवादियों के एक दशक लंबे खूनी संघर्ष और फिर राजनीतिक अस्थिरता के एक दशक से जूझना पड़ा था.  संविधान अपनाने के बाद नवंबर 2022 में नेपाल में दूसरी बार आम चुनाव हुआ था. नेपाली कांग्रेस को नेपाल की जनता का समर्थन मिला, लेकिन वो बहुमत से काफी दूर रही. अब नेपाली कांग्रेस ने संसद में सबसे बड़ी और विपक्षी पार्टी होते हुए भी  प्रचंड सरकार को बहुमत हासिल करने में मदद की. इससे इस बात का संकेत मिलता है कि सीमा विवाद पर नेपाल सरकार को भविष्य में सभी बड़ी पार्टियों का समर्थन मिलेगा और इसका लाभ उठाकर प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल इस मुद्दे को ज्यादा तवज्जो देंगे, जो भारत-नेपाल रिश्ते के नजरिए से सही नहीं है. 
 


ये भी पढ़ें:


Rajasthan Election: क्या वसुंधरा राजे BJP की राह में बनेंगी बाधा? गहलोत-पायलट तनातनी का होगा फायदा