New Criminal Laws: 'गुलामी की मानसिकता'- ये एक शब्द है, जिसका पिछले 10 सालों में सबसे ज्यादा जिक्र किया गया है. यही वजह है कि ब्रिटिश काल से जुड़ी सड़कों से लेकर इमारतों तक का नया नामकरण किया गया. इसी कड़ी में आगे बढ़ते हुए सरकार ने अंग्रेजों के जमाने के कानूनों में भी बदलाव कर दिया है. देश में सोमवार (1 जुलाई) से तीन नए आपराधिक कानून लागू हो गए हैं, जिन्होंने ब्रिटिश काल के कानूनों की जगह ली है. इन कानूनों को लेकर कई तरह की आशंकाएं भी जताई जा रही हैं.
भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम ने ब्रिटिश काल के क्रमश: भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह ली है. सरकार का कहना है कि नए आपराधिक कानूनों से आधुनिक न्याय प्रणाली स्थापित होगी, जिसका फायदा आम जनता होगा. हालांकि, नए कानूनों को लेकर कई तरह की आशंकाएं पैदा हो रही हैं. इन कानूनों के जनता के हित में नहीं होने की बात भी हो रही है.
ऐसे में यहां इस बात को समझना बेहद जरूरी हो जाता है कि आखिर नए आपराधिक कानूनों में ऐसा क्या है, जिसकी वजह से विपक्ष से लेकर कानूनविदों और आम जनता तक के मन में आशंकाएं हैं. आइए इस रिपोर्ट में इस संबंध में विस्तार से जानते हैं.
आतंकवाद के कानून को लेकर सता रहा डर
भारतीय न्याय संहिता के सेक्शन 113(1) में कहा गया है कि अगर कोई शख्स आतंक फैलाने के इरादे से ऐसी कोई गतिविधि करता है, जिससे भारत की एकता, अखंडता, संप्रभुता या आर्थिक सुरक्षा को खतरा पहुंचता है तो उसे आतंकवादी गतिविधि माना जाएगा. अगर किसी शख्स ने आतंकी गतिविधि की और उसकी वजह से लोगों की मौत होती है तो दोषी पाए जाने पर मौत की सजा होगी या फिर आजीवन कारावास की सजा मिलेगी. अन्य आतंकी गतिविधियों के लिए पांच साल की जेल की सजा भी हो सकती है.
यहां गौर करने वाली बात ये है कि अगर किसी को आजीवन कारावास की सजा होती है तो उसे पेरोल भी नहीं मिलेगी. नए कानून में सार्वजनिक सुविधाओं या निजी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने को भी आतंकवाद के दायरे में लाया गया है. सरकार के महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे को अगर नुकसान पहुंचा जाता है तो ऐसे करने वाले शख्स पर आतंकवाद के नियमों के तहत मुकदमा चलेगा.
ऐसे में इस बात का डर है कि प्रदर्शन के दौरान अगर किसी ने तोड़फोड़ की तो क्या उस पर भी इसी कानून में एक्शन होगा. आतंकवाद की ऐसी परिभाषा कर दी गई है कि पुलिस आम नागरिकों को भी इसकी जद में ले सकती है.
राजद्रोह कानून की जगह उसके बदले रूप वाला नया कानून
सरकार ने भले ही राजद्रोह कानून को खत्म कर दिया है, लेकिन देश के खिलाफ अपराध के तहत नया कानून बनाया गया है. इसमें दंगा और विरोध प्रदर्शन करने वाले लोगों को भी कानून की जद में लाया जा सकता है. भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कामों के लिए नया कानून है, जो कहीं न कहीं राजद्रोह की तरह ही है. इसमें अभिव्यक्ति की आजादी और देश की सुरक्षा के बीच इतनी महीन रेखा है कि प्रदर्शन करने वाले लोग भी कानून के दायर में आ जाते हैं.
एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कानून पर बहस के दौरान इस मुद्दे को उठाया था. उन्होंने कहा था कि बीएनएस का सेक्शन 152 राजद्रोह के खत्म होने के बाद भी इसे कुछ हद तक लागू कर रही है. इस पर गृह मंत्री अमित शाह ने राजद्रोह (सरकार के खिलाफ) और देशद्रोह (देश के खिलाफ) के बीच अंतर पर जोर देते हुए कानूनों का बचाव किया था. उन्होंने कहा कि सरकार के खिलाफ विरोध करना एक अधिकार है, लेकिन देश के हितों के खिलाफ बोलना बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.
यहां डर इस बात है कि अगर किसी ने सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया तो क्या उसके खिलाफ पुलिस राजद्रोह कानून के तहत ही एक्शन लेगी. प्रदर्शन करना वैसे तो अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे में आता है, लेकिन किसी ने इस दौरान सरकार के खिलाफ नारेबाजी कर दी तो पुलिस उस पर नए कानून के तहत कार्रवाई कर सकती है.
पुलिस कस्टडी की भी बदल गई परिभाषा
सीआरपीसी की धारा 162(2) में बताया गया था कि किसी आरोपी को अधिकतम 15 दिनों की पुलिस हिरासत के बाद न्यायिक हिरासत (जेल) में भेजा जा सकता है. इसका मकसद पुलिस को समयबद्ध तरीके से जांच पूरी करने के लिए प्रोत्साहित करना और हिरासत में यातना एवं जबरन कबूलनामा की संभावना को कम करना था. आसान भाषा में कहें तो पुलिस ज्यादा से ज्यादा किसी आरोपी को 15 दिनों तक हिरासत में रख सकती थी. इसके बाद आरोपी को जेल भेजने की तैयारी होती थी.
हालांकि, भारतीय न्याय सुरक्षा संहिता के सेक्शन 187(3) में अनिवार्य रूप से 'पुलिस हिरासत के अलावा' शब्दों को हटा दिया गया है. इससे पुलिस के पास अब भारतीय न्याय संहिता में सूचीबद्ध सभी अपराधों के लिए किसी भी आरोपी को 90 दिनों तक हिरासत में रखने की इजाजत मिल चुकी है. इस मुद्दे पर पूर्व जजों से लेकर मानवाधिकार संगठनों ने चिंता जताई है. उन्हें लगता है कि पुलिस अब सामान्य अपराध के लिए भी किसी आरोपी को 90 दिनों तक की लंबी हिरासत में रख सकती है.
हथकड़ी पहनाने के नियम पर भी विवाद
भारतीय न्याय सुरक्षा संहिता यानी बीएनएसएस के सेक्शन 43(3) के तहत पुलिस को आरोपी को हथकड़ी पहनाने की इजाजत मिली है. इसमें कहा गया है कि पुलिस अधिकारी अपराध की प्रकृति और उसकी जघन्यता को देखते हुए आरोपी को हथकड़ी लगा सकता है. सेक्शन में बताया गया है कि अगर आरोपी आदतन अपराधी है, जो पुलिस कस्टडी से फरार रह चुका है, उसने संगठित अपराध किया है, आतंकवादी गतिविधियों में शामिल रहा है, उसके पास अवैध हथियार बरामद हुए हैं तो पुलिस ऐसे मामलों में उसे हथकड़ी लगा सकती है.
अगर कोई शख्स हत्या, दुष्कर्म, एसिड अटैक, जाली नोटों, मानव तस्करी, बच्चों के साथ यौन अपराध, राज्य के खिलाफ अपराध करने में शामिल है तो पुलिस उसे भी हथकड़ी लगा सकती है. सुप्रीम कोर्ट की तरफ से मानवाधिकारों को लेकर जो गाइडलाइंस बनाई गई हैं, ये कानून उसके खिलाफ नजर आ रहा है.
सामुदायिक सेवा की परिभाषा भी अस्पष्ट
बीएनएसएस में कुछ अपराधों के लिए सामुदायिक सेवा करने का दंड देने की बात की गई है. सामुदायिक सेवा से समाज को बिना किसी मेहनत के फायदा मिलता है और इसका आदेश प्रथम और द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेटों द्वारा दिया जा सकता है. हालांकि, ये कुछ अपराधों के लिए सजा के विकल्प के तौर पर पेश किया गया है. कानून के मुताबिक, छोटी-मोटी चोरी, मानहानि और किसी सरकारी अधिकारी को नौकरी से बर्खास्त करवाने के लिए आत्महत्या का प्रयास करने के दोषी को ये सजा मिल सकती है.
हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसे अपराध कैसे चुने गए, जिनके लिए आरोपी को जेल नहीं भेजा जाना चाहिए, जबकि भारत की जेलों में बंद तीन-चौथाई आबादी विचाराधीन कैदियों की है. यहां गौर करने वाली बात ये है कि अभी तक ये कानून ये परिभाषित नहीं कर पा रहा है कि सामुदायिक सेवा क्या है. अगर किसी को सामुदायिक सेवा की सजा मिलती है तो उसे करना क्या होगा. इसका फैसला पूरी तरह से जजों पर छोड़ा गया है.
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