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10% आरक्षण: अखबार के संपादकीय बंटे, फैसले की टाइमिंग पर उठाए सवाल

पक्ष और विपक्ष इस फैसले को लेकर अलग अलग दावे कर रहे हैं. फैसले की खबर के बाद से राजनीतिक पंडितों से लेकर आम आदमी के बीच चर्चा का माहौल रहा. आज अखबारों में भी यह मुद्दा प्रमुखता से छाया हुआ है, कई अखबारों ने अपने संदादकीय पन्ने में इस मुद्दे को जगह दी है.

नई दिल्ली: 2019 चुनाव से पहले मोदी सरकार ने बड़ा दांव खेला है. मोदी सरकार ने गरीब सवर्णों (आर्थिक रूप से पिछड़ी ऊंची जातियों) को 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया है. इस फैसले को लागू करने के लिए सरकार को संसद से संविधान संशोधन बिल पास करवाना होगा, अगर ऐसा हो जाता है तो भारत के इतिहास में पहली बार आर्थिक आधार पर आरक्षण शुरू हो सकता है.

यहां जानने वाली बात ये भी है कि देश में 1931 के बाद जाति के आधार पर जनगणना नहीं हुई. लेकिन 2014 के एक अनुमान के मुताबिक, 100 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां हर जातिगत समीकरणों पर सवर्ण उम्मीदवार भारी पड़ते हैं और जीतते हैं. ऐसे में साफ समझा जा सकता है कि तीन राज्यों में मिली हार के बाद मोदी सरकार ने अपने सियासी तरकश से 'अचूक' तीर चलाया है.

फैसले पर कैबिनेट की मुहर के बाद से ही सियासी हल्कों में इसे लेकर सरगरमी तेज है. पक्ष और विपक्ष इस फैसले को लेकर अलग अलग दावे कर रहे हैं. फैसले की खबर के बाद से राजनीतिक पंडितों से लेकर आम आदमी के बीच चर्चा का माहौल रहा. आज अखबारों में भी यह मुद्दा प्रमुखता से छाया हुआ है, कई अखबारों ने अपने संदादकीय पन्ने में इस मुद्दे को जगह दी है.

गरीब हित का फैसला, स्वागत होना चाहिए: दैनिक जागरण दैनिक जागरण ने अपने संपादकीय में मोदी सरकार के फैसले को गरीबों के लिए बड़ा तोहफा बताया है. संपादकीय में कहा गया है कि यह फैसला आर्थिक समानता के साथ ही जातीय वैमनस्य दूर करने की दिशा में ठोस कदम है. संपादकीय कहता है, "आर्थिक आधार पर आरक्षण का फैसला सबका साथ सबका विकास की अवधारणा के अनुकूल है. इस फैसले को लेकर ऐसे तर्कों का कोई मूल्य नहीं कि मोदी सरकार ने अपने राजनीतिक हित को ध्यान में रखकर ये फैसला लिया. सामाजिक न्याय के तहत अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत का फैसला एक राजनीतिक फैसला ही था. सच तो यह है कि जनहित के सारे फैसले कहीं ना कहीं राजनीतिक हित को ध्यान में रखकर ही लिए जाते हैं.''

फैसला अच्छा लेकिन जल्दबाजी पर सवाल: टाइम्स ऑफ इंडिया अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने संपादकीय में फैसले को अच्छा प्रोजेक्ट बताया है लेकिन इसके पीछे की जल्दबाजी को लेकर सवाल उठाया है. टीओआई का संपादकीय कहता है, ''आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण देने का फैसला एक अच्छा प्रोजेक्ट है लेकिन इसके पीछे की जल्दबाजी पर सवाल खड़े होते हैं. संसद सत्र के आखिरी दिन सरकार संविधान संशोधन विधेयक पास करवाने की योजना बना रही है, यह राजनैतिक हताशा की पुनरावृत्ति दिखाता है. अब जबकि सिर्फ बजट सत्र बचा है और संविधान संशोधन विधेयक को दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत चाहिए और 50% राज्यों की सहमति चाहिए. वास्तव में मोदी सरकार के पास अपने कोटे के वादे को साकार करने का कोई समय नहीं है. अगर सरकार गंभीर है तो इसे अपने कार्यकाल के शुरुआत में ही इसकी पहल करनी चाहिए थी.''

सवर्ण गरीबों की समस्याओं का हल आरक्षण नहीं: हिंदुस्तान हैनिक हिंदी अखबार हिंदुस्तान ने अपने संपादकीय ने कहा है कि आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को आरक्षण देने का फैसला राजनीतिक भूचाल का कारण बन सकता है, शायद यही इसका मकसद भी है. अखबार लिखता है, ''यह मानने का कोई कारण नहीं है कि सवर्णों में जो भी गरीब हैं उन सबकी सारी समस्याओं का समाधान इस दस फीसदी आरक्षण से हो जाएगा. वह भी तब, जब सरकारी नौकरियां लगातार कम हो रही हो रही हैं. यह उम्मीद भी व्यर्थ है कि ऊंची जाति के जो लोग अभी तक आरक्षण का विरोध करते थे, वो इस फैसले से संतुष्ट हो जाएंगे. आरक्षण की मांग और उसके विरोध के लगातार उग्र होते जाने का एक बड़ा कारण यह भी है कि हम अभी तक ऐसी अर्थ व्यवस्था नहीं बना पाए हैं, जो सभी को रोजगार देने का सामर्थ्य रखती हो.'' अखबार कहता है कि संयोग से आरक्षण का फैसला उस दिन हुआ है, जब सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी ने बेरोजगारी संख्या काफी तेजी से बढ़ने के आंकड़े सार्वजनिक किए हैं.''

नौकरियों की कमी के बीच यह फैसला नाराजगी बढ़ाएगा: इंडियन एक्सप्रेस नरेंद्र मोदी सरकार का संविधान संशोधन के जरिए नौकरियों और उच्च शिक्षा में गरीब सवर्णों को आरक्षण का फैसला गंभीर सवाल खड़े करता है. सबसे पहला सवाल इसके औचित्य का है. एक सरकार जो आम चुनाव से पहले कार्यालय में अपने आखिरी कुछ महीनों में संवैधानिक संशोधन के रूप में परिणाम के रूप में कुछ मह्वपूर्ण ला रही है. इससे काफी हद तक साफ है कि सरकार ने आरक्षण के जरिए अपना चुनावी दांव चला है.''

एक्सप्रेस के संपादकीय में सरकार के फैसले को रोजगार की मौजूदा स्थिति से भी जोड़ा है. अखबार कहता है, ''विशेष रूप से ऐसे समय में जब अर्थव्यवस्था में तेजी नहीं है, प्राइवेट सेक्टर में भी अपेक्षित गति से नौकरियां नहीं बढ़ रही हैं और सरकारी क्षेत्र भी सिकुड़ रहा है. सवर्णों के लिए कोटा अपने उद्देश्य को पूरा करने के बजाए सिर्फ नाराजगी को और गहरा करेगा.''

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