पटना: बिहार को मिला था एक अनमोल रत्न पर उसकी कीमत सबने रेत सामान आंकी और वो समय आ ही गया जब रेत मुट्ठी से फिसल गई. सही तो है कि हम अपनी धरोहर भी नहीं संभाल पाते. ज्ञान की ऐतिहासिक धरती कहा जाने वाला बिहार न अपने अमूल्य निधि को संभाल पाया और न ही समय रहते उसे वो सम्मान दे पाया जिसका कि वो अधिकारी था. परिजनों को भी मलाल है कि जिंदा रहते उन्हें कोई सम्मान नहीं मिल पाया.
विश्व प्रसिद्ध गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह ने 77 साल की उम्र में गुरुवार को पीएमासीएच में दम तोड़ दिया. वे पिछले 45 वर्षों से 'सिजोफ्रेनिया' बीमारी से बिना किसी सहायता के जूझ रहे थे. गुरुवार की सुबह तबीयत बिगड़ने पर उन्हें पीएमसीएच ले जाया गया, जहां उनकी मौत हो गई. ज़िंदा रहते उनकी ज़िंदगी चलते फिरते लाश की तरह ही रही पर मौत के बाद ऐसी जलालत मिली कि देखने-सुनने वाले भी दंग रह गए.
पीएमसीएच प्रशासन ने उनके शव को स्ट्रेचर पर रख अस्पताल के बाहर कर दिया. परिवार वाले शव को जे लाने के लिए घंटों भटकते रहे. जब मीडिया ने इसे उजागर किया तब जाकर अस्पताल प्रबंधन से लेकर जिला प्रशासन तक हरकत में आया और सरकार भी नींद से जागी. तब जाकर कहीं उनके पार्थिव शरीर को सम्मान के साथ उनके पटना स्थित घर पर पहुंचाया गया.
हैरानी की बात यह थी कि जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार देश के रत्न वशिष्ठ नारायण सिंह की मौत पर शोक प्रकट कर रहे थे ठीक उसी वक्त उनके पार्थिव शरीर को सम्मान नहीं मिल रहा था. किसी आम लोग के शव की तरह अस्पताल कैंपस में पड़ा था. मोर्चरी वैन नहीं मिल पाई, डेथ सर्टिफिकेट नहीं मिला. शोकाकुल परिवार सदमें में था और सरकार की बेरुखी देख रहा था.
उनका अंतिम संस्कार शुक्रवार को उनके पैतृक गांव आरा के बसंतपुर स्थित महुली गंगा घाट पर राजकीय सम्मान के साथ किया गया. शव यात्रा में जन सैलाब जिस तरह से उमड़ पड़ा है उसे देख कर यह ज्ञात हो रहा है कि उस विरले मानव के लिए लोगों के मन में कितनी इज्जत थी. इसके पहले गुरुवार को पटना में भी उनके शव के दर्शनार्थ भारी भीड़ उमड़ पड़ी थी. मुख्यामंत्री नीतीश कुमार ने पटना में उनके घर पर श्रद्धांजलि दी. उनके निधन पर राष्ट्रीपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राज्यमपाल फागू चौहान तथा केंद्र व राज्यर के अनेक मंत्रियों व नेताओं ने भी श्रद्धांजलि दी.
'वैज्ञानिक जी' के नाम से मशहूर थे वशिष्ठ नारायण सिंह
वशिष्ठ नारायण सिंह ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, बर्कले से पीएचडी की थी जो दुनिया की श्रेष्ठ यूनिवर्सिटी में से एक है. यह बात खुद ही हैरान करने वाली है कि कैसे कोई भोजपुर के एक पिछड़े गांव से पहुंच कर अपनी मौजूदगी दर्ज करवा रहा होगा. नासा में काम करने से लेकर गुमनाम हो जाने तक का उनका सफ़र कई विडंबनाओं से भरा है. जीवन के आखिरी प्रहर में कहा जाता है कि वे हाथ में पेंसिल लेकर अपने घर में चक्कर काट रहे होते थे और जहां मन करता वहां कुछ लिखते और खुद से ही बातें करते थे. कभी-कभी बांसुरी भी बजाते थे. जानने वाले बताते हैं कि अपनी युवावस्था में वे 'वैज्ञानिक जी' के नाम से मशहूर थे.
दिलचस्प है कि आखिरी दम तक पढ़ने-लिखने से उनका नाता कभी नहीं टूटा. परिवार के लोग बताते हैं कि अमरीका से वो अपने साथ 10 बक्से किताबें भर कर लाए थे, जिन्हें वो पढ़ा करते थे. पांच भाई-बहनों के परिवार में आर्थिक तंगी को झेलते हुए भी उन्होंने अपने नाम पर कई उपलब्धियां दर्ज करवाईं.
कैसे बनाई पहचान
वशिष्ठ नारायण सिंह ने आंइस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत को चुनौती दी थी. उनके बारे में मशहूर है कि नासा में अपोलो की लॉन्चिंग से पहले जब 31 कंप्यूटर कुछ समय के लिए बंद हो गए तो कंप्यूटर ठीक होने पर उनका और कंप्यूटर्स का कैलकुलेशन एक समान था. पटना साइंस कॉलेज में जब बतौर छात्र वे पढ़ाई कर रहे थे तब वह ग़लत पढ़ाने पर वे अपने गणित के अध्यापक को भी टोक देते थे. प्राचार्य को जब इस बात की जानकारी मिली तब उनकी अलग से परीक्षा ली गई जिसने सबको दंग कर दिया.
जब वे पटना साइंस क़ॉलेज में पढ़ रहे थे तभी कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली की नज़र उन पर पड़ी. कैली ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और 1965 में वे अमरीका चले गए. साल 1969 में उन्होंने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बन गए. बर्कले यूनिवर्सिटी ने उन्हें‘जीनियसों का जीनियस’ कहा था.यह भी कहा जाता है कि कैली उन्हें अपना दामाद बनाना चाहते थे. पर वे अपने देश से प्रेम करते थे और उन्होंने देश को ही चुना.
1971 में वे भारत लौट आए. पहले आईआईटी कानपुर, फिर आईआईटी बंबई और फिर आईएसआई कोलकाता में नौकरी की. कहा जाता है कि आईएसआई, कोलकाता का अनुभव उनके लिए बेहद खराब रहा. आरोप यह भी लगा कि उनके सहयोगी उनके शोध को अपने नाम से छपवा रहे थे जिससे वे बेहद परेशान रहने लगे.
नहीं सफल हुआ विवाह
1973 में उनकी शादी वंदना रानी सिंह से हुई थी. माना जाता है कि यही वह वक्त था जब उनके असामान्य व्यवहार की चर्चा होनी शुरू हुई. पत्नी उनके साथ रह नहीं पाई और जल्द ही तलाक हो गया.
बीमारी का लंबा सिलसिला
1974 में उन्हें पहला दौरा पड़ा. इलाज के बाद भी जब सुधार नहीं हुआ तब 1976 में उन्हें रांची में भर्ती कराया गया. परिजन कहते हैं कि परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने की वजह से इलाज ठीक प्रकार नहीं हो पाया और सरकार भी उनके प्रति उदासीन रही.
कहा जाता है कि 1976 में इलाज और उनकी सारी जिम्मेदारी लेने को अमेरिका तैयार था, लेकिन परिजनों का आरोप है कि सरकार ने उन्हें अमेरिका जाने नहीं दिया और राजनीति के तहत 1976 से 1987 तक रांची के मेंटल हास्पिटल में भर्ती कराकर उनकी प्रतिभा को कुचल दिया गया.
1989 में अचानक ग़ायब हो गए थे वशिष्ठ नारायण
1987 में वशिष्ठ नारायण अपने गांव लौटे लेकिन 1989 में अचानक ग़ायब हो गए. साल 1993 में बेहद ही बुरी स्थिति में डोरीगंज, सारण में पाए गए. तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने यह कहा था कि भले बिहार को बंधक रखना पड़े, वे उनका इलाज विदेश तक कराएंगे. बंगलुरू स्थित निमहंस अस्पताल में सरकारी खर्चे पर उन्हें भर्ती भी कराया गया जहां 1997 तक उनका इलाज चला जिससे उनकी स्थिति में सुधार हुआ पर इलाज जारी नहीं रह पाया.
इस वर्ष अक्टूबर के पहले सप्ताह में वशिष्ठ नारायण सिंह की तबीयत बिगड़ी थी. वे पटना के अशोक राजपथ स्थित अपने अपार्टमेंट में चक्कर खाकर गिर पड़े थे. उन्हें पीएमसीएच में भर्ती कराया गया. लगभग एक सप्ताह तक वे वहां भर्ती रहे मगर कोई सरकारी प्रतिनिधि तक उनसे मिलने नहीं पहुंचा.
हालांकि जिस नेतरहाट स्कूल से वशिष्ठ नारायण सिंह ने पढ़ाई की थी वहां के पूर्ववर्ती छात्र उनकी मदद करते रहे. नेतरहाट ओल्ड ब्वॉयज एसोसिएशन (नोबा) के सदस्यों ने पटना में रहने और इलाज का सारा खर्च उठाया जिसमें उनके कई सहपाठी भी थे. जब भी वे उनसे मिलने आते, वशिष्ठ नारायण खुशी से चहक उठते.
आज जब वह महान गणितज्ञ नहीं रहा, हर और उनकी चर्चा है और लोग उनकी शान में कसीदें पढ़ रहें हैं.श्रद्धांजलि देने वालों का भी हुजूम लगा है पर जीते जी न उन्हें कोई सम्मान मिला न इज्जत. उन्हें उनकी हालत पर छोड़ दिया गया और उचित चिकित्सा उपलब्ध कराने की जितनी कोशिश होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई.
कहना गलत नहीं होगा कि ना ही बिहार और ना ही देश झोली में आसानी से मिले इस हीरे को संजो पाया. परिजन यह भी कहते हैं कि वे विक्षिप्त हुए नहीं, समाज ने उन्हें पागल बना दिया.वशिष्ठ नारायण सिंह का जीवन हमारे लिए कई सवाल खड़े करता है. अमरीका अपने स्टीफेन हाकिंग को कई गंभीर बीमारियों के बावजूद फलने-फूलने के मौके देता है पर हम अपने वशिष्ठ को तिल-तिल मरने के लिए छोड़ देते हैं.
दिल्ली: नहीं आया प्रदूषण में सुधार तो एक बार फिर हो सकता है ऑड ईवन लागू
मराठी प्लेबैक सिंगर गीता माली की सड़क हादसे में मौत, पति विजय माली भी घायल
मुंबई और सूरत में इनकम टैक्स की छापेमारी, अब तक करीब 735 करोड़ रुपये की गड़बड़ी उजागर